डिजिटल करंसी: घुमाफिरा कर फिर गला मध्यम वर्ग का ही काटा जाएगा…

अन्तर्द्वन्द

गुलामी के एक नए युग की शुरुआत हो गई है रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने अपनी डिजिटल करंसी की शुरुआत कर दी है हर क्षेत्र की तरह वित्तीय क्षेत्र में हम पर डिजिटलीकरण भी थोपा जा रहा है: बैंक शाखाएं बंद की जा रही हैं, नकदी को पीछे धकेला जा रहा है,

यह समझ लेना जरूरी है कि डिजिटल करेंसी के मूल में कौन सा विचार काम कर रहा है….इसके मूल में है …….कैश का खात्मा, नकदी लेनदेन को समाप्त कर देना

दरअसल नकदी, यानी कैश ही व्यक्तिगत स्वायत्तता का आखिरी क्षेत्र बचा है… इसमें ऐसी ताकत है जिसे सरकारें नियंत्रित नहीं कर सकतीं, इसलिए इसका खात्मा जरूरी है. जाहिर है, सरकारें हमें असली मकसद नहीं बताएँगी क्योंकि इससे प्रतिक्रिया हो सकती है. हमें बताया जाएगा कि यह हमारी ही ‘भलाई’ के लिए है. अब इस ‘भलाई’ को चाहे जैसे परिभाषित किया जाए. इसे हमारा फायदा बताकर बेचा जाएगा…….”खबरें छापी जाएँगी कि लूट-पाट घटी है. अपराध को अंतिम तौर पर हरा दिया गया है. लेकिन यह नहीं बताया जाएगा कि हैकिंग की घटनाएँ बेइंतहा बढ़ जाएँगी, बैकों के घोटाले आसमान छूने लगेंगे… गरीबों को कहा जाएगा कि अमीर अब अपनी आमदनी नहीं छिपा पाएँगे और उन्हें अपनी आमदनी पर समुचित कर देने के लिए बाध्य होना पड़ेगा…. जबकि गला मध्यम वर्ग का काटा जाएगा

हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां अत्यंत धनी और अत्यंत शक्तिशाली, बहुत छोटे से समूह का वर्चस्व है। उनकी सबसे बड़ी रुचि अपनी समृद्धि और शक्ति को बनाए रखना है। इसलिए डिजिटाइजेशन हमारे फायदे के लिए नहीं है, बल्कि इस छोटे से समूह के फायदे के लिए है।

यह बात आप भी अच्छी तरह से महसूस कर चुके होंगे कि हर क्षेत्र मे किया जा रहा डिजिटाइजेशन मूल रूप से उस छोटे से समूह की धन दौलत और नियंत्रण की क्षमता को बढ़ा रहा है और यही बात अब मुद्रा के विषय मे भी सच होने जा रही हैं

डिजिटल करंसी एक जबरदस्त सामाजिक शासन का मूल होगा जो बड़े पैमाने पर बिना किसी हिंसा के प्रबंधन करेगा क्योंकि यह लोगों को ध्यान दिए बिना किसी भी विपक्ष को दबा सकता है। यह आबादी को नियंत्रित करने, हेरफेर करने और कंडीशनिंग करने का अचूक साधन सिद्ध होगा,

न्यू वर्ल्ड ऑर्डर के लिए कैशलेश सोसायटी की स्थापना बहुत जरूरी है…..कैशलेश समाज का असली मकसद है सम्पूर्ण नियंत्रण: चौतरफा नियंत्रण …और इसे हमारे सामने ऐसे आसान और कारगर तरीके के रूप में पेश किया जाएगा जो हमें अपराध से मुक्ति दिलाएगा यानि फासीवाद को चाशनी में लपेटकर पेश किया जाएगा…….

जी हां !……. फासीवाद ! इक्कीसवीं सदी का फासीवाद……. जिसकी शुरुआत कोरोना से की जा चुकी है डिजीटल करंसी उसका अगला सबसे बड़ा चरण है

हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था, “यह काफी है कि राष्ट्र के लोग हमारी बैंकिंग और मौद्रिक प्रणाली को नहीं समझते हैं, क्योंकि अगर उन्होंने ऐसा किया, तो मुझे विश्वास है कि कल सुबह से पहले एक क्रांति होगी।”

दुनिया इस समय अपने इतिहास के सबसे बड़े आर्थिक और सामाजिक प्रयोग के बीच में है, बड़ी टेक कंपनिया और सरकारें हमारे पूरे जीवन को पूरी तरह से डिजिटाइज करने की कोशिश कर रही है। उनकी नजर दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण प्रणाली पर टिकी हुई हैं और वो है हमारी मौद्रिक प्रणाली आज पैसे की प्रकृति को मौलिक रूप से बदलने की पूरी तैयारी की जा रही है

आज की डॉलर-केंद्रित प्रणाली अनिवार्य रूप से एक नए प्रकार की डिजिटल वित्तीय प्रणाली में बदलने जा रही है पूरी दुनिया में यह परिवर्तन हो रहा है दुनिया में 86 फीसदी सेंट्रल बैंक इस पर रिसर्च कर रहे हैं और 14 फीसदी ने इसके लिए पायलट प्रॉजेक्ट शुरू किए हैं। भारत भी इसी ओर कदम बढ़ा चुका है

डिजीटल करंसी को ठीक से समझने के लिए आपको एक बार मुद्रा के इतिहास पर नजर डालनी होगी क्योंकि वैश्विक मुद्रा का इतिहास ही हमे इस बात का सुराग दे सकता है कि आगे चलकर वैश्विक वित्त क्या मोड़ लेने जा रहा है

हज़ारों सालों के प्रयोग और कई सभ्यताओं ने कई प्रयोग करने के बाद सोने को मुद्रा के रूप में चुना था और पहली औद्योगिक क्रांति के शुरू होने से पहले सोना ही वह धातु थी जिसे वैश्विक मुद्रा के रूप मे जाना पहचाना जाता था

बैंक ऑफ इंग्लैंड द्वारा जब पहली बार कागजी मुद्रा छापी गई तो इसे “फ्लाइंग कैश” के रूप में जाना जाने लगा, क्योंकि धातु के विपरीत, इसमें उड़ने की प्रवृत्ति थी। इसका लेनदेन आसान था

एक समय था जब डॉलर के बजाए पाउंड का अधिक महत्व हुआ करता था लेकिन पाउंड के पीछे भी सोने की ताकत थी जो ब्रिटिश उपनिवेशों से लूट कर इंग्लैंड में जमा किया जा रहा था 1821 में, आधिकारिक रूप से इंग्लैंड स्वर्ण मानक अपनाने वाला पहला देश बन चुका था

स्वर्ण की बादशाहत 19वी शताब्दी के शुरू होने से पहले तक पूरी तरह से कायम थी स्वर्ण मानक मुद्रा का मूल्य निर्धारित करने का एक साधन था

1914 में पहली बार प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सैन्य अभियानों के लिए ब्रिटिश सरकार ने बैंक ऑफ इंग्लैंड के नोटों की सोने में विनिमेयता को निलंबित किया..…..1939-1942 के दौरान, ब्रिटेन ने अमेरिका और अन्य देशों से “नकद दो और माल लो” के आधार पर युद्ध सामग्री और हथियारों की खरीदगी में अपना अधिकांश स्वर्ण भंडार खाली कर दिया सच यही है युद्ध ने ब्रिटेन को दिवालिया बना दिया था। यही हालत यूरोप के अन्य देशों की भी थी आपसी युद्ध मे वो पूरी तरह से तबाह हो गए थे
( यह भी एक बहुत बड़ा कारण था जिससे भारत समेत अनेक उपनिवेशों को ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों ने आजाद किया हालांकि इस तथ्य की हमेशा उपेक्षा की गई है )

लेकिन एक देश था जो युद्ध भूमि से बहुत दूर था वह यूरोपीय देशों की आपसी लड़ाई मे जमकर मुनाफा कमा रहा था, वह था अमेरिका, था.
अमेरिका सेकंड वर्ल्ड वार में बहुत बाद में कूदा…. और अंत मे बीच का बंदर बन उसने एक ऐसा समझौता किया जिससे उसकी विश्व पर बादशाहत आज तक कायम है इसे 1944 के ब्रेटन वुड्स समझौते के नाम से जाना जाता है इसके तहत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना हुई और साथ ही एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली की स्थापना की गयी, जो विभिन्न राष्ट्रीय मुद्राओं के यू.एस. (U.S.) डॉलर में परिवर्तनीयता और बदले में सोने में उसकी परिवर्तनीयता पर आधारित हुई।

अब डॉलर किंग था लेकिन स्वर्ण मानक अभी भी लागू था,उस समय अमरीका के पास दुनिया का सबसे अधिक सोने का भंडार मौजूद था ब्रेटन वुड्स समझौते द्वारा स्वर्ण मानक के समान ही एक प्रणाली स्थापित की गयी। इस प्रणाली के तहत, अनेक देशों ने यू.एस. डॉलर के तुलना में अपने विनिमय दर तय किये। यू.एस. ने सोने की कीमत 35 डॉलर प्रति औंस में तय करने का वादा किया। निःसंदेह रूप से तबसे सभी मुद्राएं डॉलर से आंकी जाने लगीं, जिनका सोने से संबंधित एक निश्चित मूल्य भी हुआ करता था इस समझौते ने दूसरे देशों को भी सोने की जगह अपनी मुद्रा का डॉलर को समर्थन करने की अनुमति दी

लेकिन असल संकट सत्तर के दशक में आया 1970 की शुरुआत में कई देशों ने डॉलर के बदले सोने की मांग शुरू कर दी थी, क्योंकि उन्हें मुद्रा स्फीति से लड़ने की ज़रूरत थी. फ्रांसीसी राष्ट्रपति चार्ल्स डी गॉल के शासनान्तर्गत 1970 तक, फ्रांस ने अपना डॉलर भंडार कम कर दिया, उनसे यू.एस. (U.S.) सरकार से सोना खरीद लिया, जिससे विदेश में यू.एस. (U.S.) का आर्थिक प्रभाव कम हुआ।

उस वक्त अमेरिका के राष्ट्रपति थे रिचर्ड निक्सन उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण फैसला किया अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नेतृत्व में केंद्रीय बैंकों ने 1970 के दशक में सोने के मानक को छोड़ दिया, जिसका मतलब था कि कागज की मुद्राएं अब सोने के लिए विनिमेय नहीं थीं। निक्सन ने डॉलर को सोने से अलग कर दिया

निक्सन के फैसले के बाद, मुद्राएं फ़िएट बन गईं, जिसका अर्थ है कि देश स्वतंत्र रूप से यह तय कर सकते हैं कि प्रचलन में कितनी मनी होना चाहिए।

मुद्राओं का अब मूल्य इसलिए नहीं था क्योंकि वे सोने से समर्थित थी, बल्कि इसलिए था क्योंकि उनके पीछे खड़े राज्य ने कहा कि उनके पास मूल्य था।

लेकिन इसके बावजूद डॉलर इतना ताकतवर हो चुका था कि उसने अपनी बादशाहत कायम रखी आज भी डॉलर के 65 फ़ीसदी डॉलर का इस्तेमाल अमरीका के बाहर होता है.दुनिया भर के 85 फ़ीसदी व्यापार में आज भी डॉलर की संलिप्तता है. दुनिया भर के 39 फ़ीसदी क़र्ज़ डॉलर में दिए जाते हैं. इसलिए विदेशी बैंकों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर की ज़रूरत होती है. पर महामारी के बाद सब कुछ बदल रहा है आज गोल्ड स्टेंडर्ड जैसी चीज नही है ….

एक बात समझ लीजिए जैसे एक निश्चित बिंदु पर ब्रिटिश पाउंड स्टर्लिंग का प्रभुत्व समाप्त हुआ वैसे ही आज डॉलर का प्रभुत्व समाप्त होने को है तकनीक से सब कुछ बदला जा रहा है और तकनीक जिनके हाथों मे है वही इस दुनिया के नए खुदा है

साभार सहित-गिरीश मालवीय जी की पोस्ट से