रिलीज़ के बाद भी पठान फिल्म के बायकॉट की मांग थम नहीं रही। फिल्म को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब यूट्यूब पर बेशर्म गाना रिलीज़ हुआ। फिर लोगों ने शाहरुख और बॉलीवुड को हिंदू विरोधी बताते हुए विरोध किया और अब तो सिर्फ फिल्म के बायकॉट की मांग सुनाई देती है। विरोध क्यों कर रहे हैं, क्या वजह है, इसका कहीं ज़िक्र नहीं किया जाता। दूसरी तरफ ऐसा वर्ग है जो फिल्म को आंख मूंद कर समर्थन दे रहा है। फिल्म का विरोध करने वालों को सिरफिरा बता रहा है और फिल्म की बंपर ओपनिंग को बायकॉट गैंग की हार बता रहा है। इस पूरे विवाद पर जो चर्चाएं सुनाई देती हैं वो भी एक तरफा हैं। या तो बायकॉट करने वालों को सिरे से खारिज किया जा रहा है या फिल्म को हिट बताने वालों को झूठा बताया जा रहा है, उन्हें देशद्रोही तक कहा जा रहा है। मगर मुझे लगता है कि सच्चाई कहीं बीच में हैं।
क्यों हो रहा है विरोध?
बेशर्म रंग गाने को लेकर जब सबसे पहले पठान का विरोध हुआ, तो लगा कि भगवा रंग को बेशर्म बताने पर कुछ लोगों को आपत्ति हुई है। उस पूरे विवाद पर मैंने तब एक लंबा पोस्ट भी लिखा था और बताया था कि कैसे ये पूरा विवाद खोखला है और विरोध करने वालों की बात में कोई दम नहीं।
मगर जैसे-जैसे वक्त बीता ये खुद ही साफ हो गया कि बेशर्म रंग गाना तो कोई वजह ही नहीं था। दरअसल ये विरोध फिल्म या किसी गाने का नहीं, शाहरुख खान का विरोध है। वो शाहरुख खान जो भारत ही नहीं, एशिया का सबसे बड़ा फिल्मी सितारा है। वो शाहरुख खान जिसने 2015 में Intolerance पर एक बयान दिया था। वो शाहरुख खान जिसे कुछ लोग हिंदुस्तानी सिनेमा पर राज करने वाले ‘मुस्लिम सितारे’ के तौर पर देखते हैं। और उसकी फिल्म का विरोध कर वो उस मुस्लिम सितारे की चमक फीकी करना चाहते हैं।
और ऐसा करने के पीछे उनकी अपनी वजह है। दरअसल उनका मानना है कि नरेंद्र मोदी को देश के एक ज़्यादातर मुसलमानों ने आज भी अछूत बना रखा है। देश के प्रधानमंत्री होने और दो बार सत्ता में आने के बावजूद वो आज भी देश के अधिकतर मुसलमानों को स्वीकार नहीं। वो आज भी 2002 के चश्मे से उनका आकलन करते हैं। मुसलमानों के लिए इसके अलावा मोदी की कोई शख्सियत नहीं है। मोदी के किए बाकी सारे काम उनके लिए कोई मायने नहीं रखते। ऐसे में इस तबके को लगता है कि जब आप देश के प्रधानमंत्री का, हिंदुओं के (बहुतों के लिए) सबसे बड़े आइकन का अंधविरोध कर सकते हैं, तो हम भी किसी मुस्लिम आइकन को स्वीकार नहीं करेंगे। फिर चाहे वो आमिर खान हों या शाहरुख खान। और चूंकि दोनों ने एक वक्त intolerance के मुद्दे पर बयान भी दिया है और कभी मोदी का खुलकर समर्थन भी नहीं किया, तो उनके विरोध की जायज़ वजह भी है।
एक तरह से मुसलमानों को कहा जा रहा है कि अगर तुम मोदी के आकलन में तार्किक नहीं हो, तो हम भी किसी मुस्लिम आइकन का बेवजह विरोध कर सकते हैं। चूंकि सिनेमा संस्कृति का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। देश की सॉफ्ट पावर होता है, तो उस सॉफ्ट पावर की कमान, उस संस्कृति का चेहरा हम किसी मुसलमान को नहीं बनने देंगे।
कुल मिलाकर ये सारा मामला लाल सिंह चड्ढा या पठान से जुड़े फिल्मी विवाद का नहीं, बल्कि मोदी के विरोध के विरोध में मुस्लिम सितारों के विरोध का है। और इसके अलावा दी गई बाकी तमाम दलीलों पर चर्चा करना सच्चाई से भागना है।
झगड़ों का मनोविज्ञान
अब आप चाहें तो कह सकते हैं कि किसी राजनीतिक लड़ाई को सिनेमा में लाना कहां तक जायज़ है? बिल्कुल सही बात है। मैं खुद इस बात से सहमत हूं कि राजनीतिक पसंद-नापसंद के कठोर पैमानों पर कलाकारों को सबक सिखाना जायज़ नही है। लेकिन यहां बात राजनीति या सिनेमा की नहीं, बल्कि वैचारिक झगड़े की है। अगर हिंदुओं के एक वर्ग को लगता है कि देश के प्रधानमंत्री को हर हाल में अस्वीकार करके बहुसंख्यक मुस्लिम उनको आहत करता है, तो उसने भी ठान लिया है कि वो भी दूसरे पक्ष को आहत करेगा। जैसे घरेलू झगड़ों में होता है, जब बहस होती है तो सामने वाले को आहत करने के लिए वो सारी बातें खोद-खोदकर निकाली जाती है जिसका झगड़े की मूल वजह से कोई लेना देना नहीं होता। क्योंकि झगड़ा बढ़ने के बाद दोनों पक्षों का एक ही मकसद होता है दूसरे को हर्ट करना, उसका गुरूर तोड़ना।
अब कुछ हिंदुओं को अगर ये लगता है कि देश का मुसलमान मोदी के आकलन में 2002 से आगे देखने को तैयार नहीं। वो ये मानने को तैयार नहीं पीएम आवास योजना से लेकर उज्जवला योजना तक उसको भी फायदा हुआ है, जनधन योजना में उसका भी खाता खुला है। किसान सम्मान निधि में उसको भी पैसा मिलता है। मुद्रा योजना में उसको भी कर्ज़ मिलता है। हर दिन फैलते सड़कों के जाल में उसका भी सफर आसान हुआ है। भ्रष्टाचार की वैसी चर्चाएं सुनाई नहीं देती तो उसको भी इससे फायदा है। अगर बहुसंख्यक मुस्लिम मोदी के निष्कर्ष में ये सब मानने को तैयार नहीं तो फिर हमसे भी उम्मीद मत रखो कि शाहरुख के आकलन में हम भी ये सोचेंगे कि मुस्लिम होने के बावजूद उसके बच्चों के नाम हिंदू हैं। उसके घर में ईद भी मनाई जाती है, तो दिवाली भी। उसने बीसियों ऐसी फिल्में की हैं जिससे हमारा बचपन और जवानी खुशगवार बने हैं। नहीं, हम भी ये नहीं सोचेंगे और उसका वैसा ही अंधविरोध करेंगे जैसा तुम मोदी का करते हो।
तो हासिल क्या है?
मेरा मानना है कि जब भी आप किसी चीज़ का विरोध करते हैं तो उसमें सामान्य से ज़्यादा ऊर्जा खपाते हैं। आप जिसका विरोध करते हैं आपको उसके खिलाफ खड़ा होना होता है। उसे खारिज करना होता है। अपने समर्थन में लोगों को उनके कंफर्ट ज़ोन से बाहर लाना होता है। इसलिए जब भी विरोध करें, तो अपने मुद्दों को अच्छे तरीके से जांच-परख लें। क्योंकि उसमें बहुत सारी एनर्जी लगने वाली है। आपकी साख भी दांव पर है। और अगर आपके विरोध में तर्क नहीं, वो सिर्फ नफरत पर खड़ा है, तो आप अपनी फजीहत तो करवाएंगे ही जिसका विरोध कर रहे हैं उसे भी मज़बूत करेंगे।
अगर मोदी का एक वर्ग ने अंधविरोध किया है, तो उससे मोदी ही मज़बूत हुए हैं तो उसी तरह अगर आप शाहरुख या किसी और का अंधविरोध करेंगे, तो इससे उन्हें ही मज़बूती मिलेगी। आपने बिना जायज़ वजह बताए सिर्फ बदले की भावना से पठान का विरोध किया और फिल्म अगर 500 करोड़ कमा जाती है (जोकि कमा जाएगी), तो इससे आप अपनी ही जगहंसाई करवाएंगे। ये संदेश जाएगा कि लोग आपके साथ नहीं है। विरोधी दावा करेंगे कि आपके आरोप झूठे साबित हुए। और आप एक ऐसी लड़ाई हार जाएंगे, जो आपको कभी लड़नी ही नहीं चाहिए थी।
और ऐसा करके आपको खुद को ही कमज़ोर करेंगे। अपने समर्थकों में संदेह पैदा करेंगे। फिर अगली बार जब न्यूट्रल लोगों से अपने मुद्दे के लिए समर्थन मांगेंगे, तो आधे लोग साथ नहीं आएंगे। ऐसी एक-दो फिज़ूल की लड़ाइयां लड़ने पर बाकी भी आपसे छिटक जाएंगे। ये शेर आया, शेर आया के झूठे शोर वाली कहानी की तरह हो जाएगा। फिर कल जब सच में शेर आएगा, कोई मुद्दा सामने होगा, तो कोई आपके साथ नहीं आएगा। मैंने बहुत लिखा था-ज़िंदगी में जीतने के लिए ये पता होना बहुत ज़रूरी है कि आपको कौन-कौन सी लड़ाईयां नहीं लड़नी! असंतोष या असहमति ज़रूरी तत्व है मगर उसे अपना पेशा मत बनाइए। अपनी लड़ाईयां बड़े ध्यान से चुनिए।
साभार सहित – नीरज बधवार
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