लोग उन्हें ‘कंजरी’ कहते थे मगर फिर सोलहवीं सदी में भारत पर 46 साल तक राज करने वाले मुग़ल बादशाह जलालउद्दीन अकबर ने उन्हें ‘कंचनी’ पुकारने का हुक्म दिया.
शायर और इतिहासकार मोहम्मद हुसैन आज़ाद ‘सुख़नदान-ए-फ़ारस’ में लिखते हैं कि ‘कंजर और कंजरी हिंदी में नाचने-गाने वालों को कहते हैं. अकबर ने एक दिन ख़ुश होकर कहा कि उन्हें कंचनी यानी सुनहरी कहा करो.’
लेखक राना सफ़वी के अनुसार कंचनी सिद्धहस्त गायिकाओं और नृत्यांगनाओं को कहा जाता था, गिरोह या बैंड को तायफ़ा (बहुवचन तवायफ़) और अत्यंत दक्ष संगीतकारों, गायकों और नर्तकों को तवायफ़. ये शब्दावलियां सम्मान के लिए थीं.
भारत में मुसलमानों की रस्मों पर सन् 1832 में छपने वाली एक किताब में ‘कंचनी का तायफ़ा’ के बारे में लिखा गया है कि ‘उसे शहज़ादे और शोरफ़ा (शरीफ़ का बहुवचन) दावत पर बुलाते थे. पोंगी, मृदंग, झांझ, घघरी, सारंग (सारंग या तंबूरा) सभी साज़ मर्द बजाते थे. औरतें नाचते और गाते हुए घुंघरू पहनती थीं. उनकी संख्या तीन से कम और पांच से अधिक नहीं होती थी.’
सांस्कृतिक विरासत का अटूट हिस्सा
शिक्षाविद् और लेखक रूथ विनीता ब्रिटेन और भारत के साहित्यिक इतिहास में शैली और लैंगिकता की विशेषज्ञ हैं. वे तर्क देती हैं कि तवायफ़ की संस्कृति हाइब्रिड हिंदू-मुस्लिम थी.
तवायफ़ें उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक विरासत का अटूट हिस्सा थीं जिनका उनकी कला, फ़ारसी और उर्दू साहित्य और शायरी के लिहाज से बहुत सम्मान किया जाता था. हालांकि वो मुग़ल दौर से पहले भी शोरफ़ा को मनोरंजन उपलब्ध कराती थीं लेकिन मुग़ल काल में उन्हें उत्कर्ष प्राप्त हुआ.
लेखक और इतिहासकार प्राण नेवेल ने लिखा है कि ‘बेहतरीन तवायफ़ें जिन्हें डेरेदार तवायफ़ें कहा जाता है, शाही मुग़ल दरबारों से अपना वंश जोड़ती हैं.’
वो बादशाहों और नवाबों की दासियों में थीं… उनमें से बहुत-सी नामी नृत्यांगनाएं और गायिकाएं थीं जो आराम और सुख-सुविधाओं में रहती थीं… तवायफ़ों से जुड़ा होना हैसियत, दौलत, सभ्यता और सौम्यता का प्रतीक समझा जाता था… उन्हें कोई बुरी औरत या दया का पात्र नहीं समझता था.’
प्राण नेवेल ने अपनी किताब ‘नाच गर्ल्स ऑफ़ इंडिया’ में बताया है कि कैसे उत्तर भारत में तवायफ़ों को दौलत, ताक़त, इज़्ज़त और राजनैतिक पहुंच हासिल थी और उन्हें संस्कृति पर अथॉरिटी समझा जाता था. शरीफ़ ख़ानदान अपने बेटों को तहज़ीब, आदाब और बोलने की कला सीखने के लिए उनके पास भेजते थे.
तवायफ़ों का प्रभाव
इतिहास के जानकार सलीम किदवई का कहना है कि बहुत से मुग़ल राज्यों और सल्तनतों में सभी हिंदू और मुस्लिम दरबारों में तवायफ़ों ने एक महिला प्रभु वर्ग बना लिया था. वे उच्च शिक्षा प्राप्त थीं और कई अवसरों पर राजनैतिक मामलों में भी सक्रिय रहती थीं.
एक उदाहरण सरधना की शासक बेगम समरू (1753-1836) का है जिन्होंने अपनी पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत एक तवायफ़ के तौर पर की थी.
पत्रकार सौम्या राव लिखती हैं कि ”तवायफ़ें दौलत और रुतबे वाली औरतें थीं, कलाकारों की श्रेणी में तवायफ़ों का स्थान शीर्ष पर था, यह एक ऐसा वर्ग था जो गलियों में कला दिखाने और देह व्यापार से अलग था.”
इतिहासकार और शिक्षाविद् दानिश इक़बाल का विचार है कि ‘तवायफ़ें कलाकारों की श्रेणी में सबसे पहले आती थीं. जब पितृसत्तात्मक भारतीय समाज में महिलाओं को कोई जगह या भूमिका नहीं मिलती थी और अधिकतर अपने घर की चहारदीवारी तक सीमित रहती थीं. पुरुषों के वर्चस्व वाले समाज में ये महिलाएं प्रभाव और पहुंच रखती थीं.’
‘वे सिर्फ़ कला और संस्कृति का केन्द्र नहीं बल्कि स्वतंत्र विचारों वाली महिलाएं थीं. पुरुष उन पर निर्भर थे न कि इससे उल्टा मामला था. मर्द उनके मुलााज़िम थे, संगीतकार हों या संगीत और नृत्य के गुरु, मर्द उनके ग्राहक, मर्द उनके दलाल.’
महलुक़ा बाई चंदा उर्दू की पहली शायरा हैं जिनका अपना कविता संग्रह है. उनका कविता संग्रह सन 1898 में तैयार हुआ. महलुक़ा बाई का एक शे’र हैः
ग़मज़ा व नाज़ व अदा शेवा है ख़ूबों का मगर।
हर सुख़न में रूठ जाना कौन सा दस्तूर है।।
मोटे तौर पर इसका मतलब यह है कि नाज़ व अदा तो ठीक है मगर हर बात पर रूठ जाना भी कोई बात है.
सन् सत्तावन के बाद
सफ़वी कहती हैं कि ‘सन् 1857 के बाद सिर्फ़ मुग़ल परिवार या नवाब ही नहीं थे जो तबाह हुए बल्कि एक दौर तबाह हुआ, एक संस्कृति नष्ट हो गई. कथक नृत्यांगना और शास्त्रीय गायिकाएं अब अंग्रेज़ शासकों के अनुसार ‘नाच गर्ल्स’ थीं.’
पत्रकार सौम्या राव का कहना है कि ‘तब मुग़ल सल्तनत कई दशकों के पतन का शिकार हो चुकी थी. दिल्ली को छोड़कर बहुत-सी तवायफ़ें अवध रियासत में लखनऊ चली गई थीं जहां नवाबों ने उनकी कला को संरक्षण दिया. ईरानी और भारतीय नृत्य के मिले-जुले रूप कथक ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल के साथ अवध के दरबारों में लोकप्रियता प्राप्त की. नवाब वाजिद अली शाह जो ख़ुद कथक के प्रतिभावान नर्तक, गायक और शायर थे, उन्होंने कलाओं को बढ़ावा दिया. यह संगीत और नृत्य का सुनहरा दौर था. लेकिन लखनऊ में भी दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा. अंग्रेज़ों ने सन् 1856 में अवध रियासत पर क़ब्ज़ा कर लिया.
अवध के आखि़री नवाब वाजिद अली शाह की बीवी बेगम हज़रत महल शादी से पहले एक तवायफ़ (कुछ स्रोतों के अनुसार) थीं. बग़ावत के दौरान जब उनके पति निर्वासित कर दिए गए थे तो उनके नेतृत्व में बाग़ियों ने थोड़े समय के लिए लखनऊ पर क़ब्ज़ा कर लिया और उनके बेटे को शासक घोषित कर दिया था.
जब ब्रितानी फ़ौजों ने सन् 1858 में लखनऊ पर दोबारा क़ब्ज़ा किया तो हज़रत महल ने नेपाल में पनाह ली और 1879 में अपने निधन तक वहीं बसी रहीं.
ईस्ट इंडिया कंपनी के विरोध में असंतोष बढ़ रहा था. तवायफ़ों ने पर्दे के पीछे से उस ‘विद्रोह’ में सक्रिय भूमिका निभाई थी. वे अपने ब्रितानी ग्राहकों की जासूसी करतीं, उन्हें बात करने को तैयार करतीं और उनसे मिली जानकारियों को ‘विद्रोहियों’ तक पहुंचा देतीं.
कोठे कहलाने वाले उनके घर बाग़ियों के मिलने और छिपने के ठिकाने बन गये. दौलतमंत तवायफ़ें ‘ बाग़ियों’को आर्थिक मदद भी देती थीं.
राव लिखती हैं कि कानपुर की एक तवायफ़ अज़ीज़ुन्निसा या अज़ीज़न बाई ने सन् 1857 के विद्रोह में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग भी लड़ी. जब अंग्रेज़ ‘विद्रोह के मुजरिमों’ को सज़ा देने लगे तो उन्होंने तवायफ़ों पर भी क़हर बरपाया.
सौम्या राव लिखती हैं, ‘जो उत्तर भारत में तवायफ़, दक्षिण भारत में देवदासी, बंगाल में बाई जी और गोवा में नायकन कहलाती थीं, उन पेशवेर गायिकाओं और नृत्यांगनाओं को ब्रितानी राज में ‘नाच गर्ल्स’ कहा जाने लगा और उनके पेशे को 19वीं सदी के आखि़र में देह व्यापार से जोड़ दिया गया था.’
इस तरह भारत की शास्त्रीय कलाओं में उनकी भागीदारी को सामूहिक बोध से दूर कर दिया गया और उनकी कहानियों को इतिहास के कोने में भी जगह नहीं मिली.
इतिहासकार वीना ओल्डनबर्ग ने अपनी किताब ‘द मेकिंग ऑफ़ कोलोनियल लखनऊ’ में लिखा है कि ‘तवायफ़ों को देह व्यापार से जोड़ना उस पेशे का बेहद अन्यायपूर्ण चित्रण है.’
ओल्डनबर्ग ने लखनऊ की तवायफ़ों पर बड़े पैमाने पर शोध किया था, उन्होंने लिखा है कि ‘जब अंग्रेज़ों ने 1857 की बग़ावत में शामिल लोगों का पीछा किया तो पता चला कि ‘वो नाचने और गाने वाली लड़कियां’ थीं और ‘टैक्स रिकॉर्ड में वे सबसे अधिक कर देने वालों में शामिल थीं यानी शहर में सर्वाधिक व्यक्तिगत आमदनी वाली थीं.’
उनके मकान, बाग़, कारख़ाने और खाने-पीने और सुख-सुविधा के साधन ब्रितानी शासकों ने ‘लखनऊ की नाकेबंदी और सन् 1857 में ब्रितानी शासन के विरुद्ध विद्रोह में संलिप्त होने के कारण’ ज़ब्त कर लिए थे.
देह व्यापार को मजबूर हुईं
यह मामला सिर्फ़ संपत्तियों की ज़ब्ती तक सीमित नहीं था बल्कि सबसे आकर्षक तवायफ़ों को फ़ौजियों की सेवा के लिए ब्रितानी छावनियों में भेज दिया गया था. वो तवायफ़ें जिन्होंने शास्त्रीय संगीत, नृत्य और उर्दू साहित्यिक परंपराओं में शानदार भूमिका निभाई थी, अब आम जिस्मफ़रोश बन गई थीं.
शरीफ़ घरानों के बेटों को जिनके पास समाज में सभ्यता सीखने के लिए भेजा जाता था अब उन्हें अंग्रेज़ अफ़सरों और फ़ौजियों की शारीरिक प्यास बुझानी थी.
वे महिलाएं जो कई कलाओं की जनक थीं और उन्हें लोकप्रिय बनाने में अपनी भूमिका निभाई थी, कथक, दादरा, ग़ज़ल और ठुमरी की कला में महारथ हासिल की थी और कला के विभिन्न रूपों को जीवित रखने के लिए बहुत कुछ किया था, उन्हें सिर्फ नृत्य तक बांध दिया गया था.
उन्नीसवीं सदी के अंत में उपनिवेशवादी प्रशासन, ईसाई मिशनरियों और भारतीय समाज सुधारकों ने नाच विरोधी आंदोलन शुरू किया जिससे जनमानस तवायफ़ों और नृत्यांगनाओं के विरुद्ध हो गया. रोज़ी-रोटी तबाह होने के बाद उनमें से कुछ ने अपना पेट भरने के लिए देह व्यापार का रुख़ किया जिससे जिस्मफ़रोशी के साथ उनका संबंध और गहरा हो गया.
कर्ज़िटोफ़ इवानीक लिखते हैं कि ‘माना कि तवायफ़ें पढ़ी-लिखी और उच्च वर्ग की महिलाएं थीं और यह भी कि उन्होंने भारतीय कलाओं में अपनी भूमिका अदा की थी, इस वास्तविकता पर पर्दा नहीं डालना चाहिए कि उन्हें मर्दों को शारीरिक सेवाएं भी देनी पड़ती थीं. बहुत सी तवायफ़ों पर मर्दों का वर्चस्व था. कुछ को शारीरिक अत्याचार का निशाना बनाया गया, कुछ को क़ैदियों जैसी ज़िंदगी गुज़ारने पर मजबूर किया गया या जब मर्द आपस में उनके जिस्म के लिए लड़ते थे तो नतीजा उन्हें ही भुगतना पड़ता था.’
तवायफ़ के जीवन पर लगे क्रमवार ग्रहण की झलक कुछ साहित्यिक कृतियों में मिलती है.
नसीम आरा ने 1960 के दशक में लिखी गई अमृत लाल नागर की किताब ‘ये कोठेवालियां’ की एक कहानी में कहा है कि 19वीं सदी की डेरेवाली तवायफ़ों के एक व्यक्ति से शारीरिक संबंध होते थे जो आम तौर पर पूरे परिवार की देखभाल करता था. अगर घर का मुखिया मर गया तो वो अपनी ज़िंदगी विधवा की तरह बिताती थीं.
बीसवीं सदी के शुरू में अब्दुल हलीम शरर ने नवाबों की प्रशासनिक व्यवस्था में अवध के जीवन और संस्कृति पर अपनी किताब ‘गुज़श्ता लखनऊ’ लिखी.
वो लखनऊ में तवायफ़ों के तीन वर्गों का बयान करते हैं और कंचनी उनमें से एक है. दूसरा वर्ग जिसका वो ज़िक्र करते है, ‘चूनावाली’ है- ऐसी औरतें जो पहले चूना बेचती थीं लेकिन अब बाज़ारू औरतें बन गई हैं, और तीसरी ‘नगरांट’ जिनका संबंध गुजरात से है. वो इन तीनों गिरोहों को ‘बाज़ारों की रानियां’ कहते हैं.
उनका मूल पेशा जिस्म बेचना है तो यह बदलाव था. निस्संदेह एक कारण यह रहा होगा कि नादिरशाह और अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमलों के बाद मुग़लिया सल्तनत बिखर रही थी और शाही संरक्षण अब उच्च जीवन स्तर को बरक़रार रखने के लिए पर्याप्त नहीं रह गया था.
वो इतनी अमीर और ताक़तवर थीं कि शरर लिखते हैं कि ‘हकीम मेहदी जैसे सौम्य व्यक्ति जो बाद में अवध के वज़ीर-ए-आज़म बने, अपनी शुरुआती सफलता के लिए प्यारू नाम की एक तवायफ़ पर निर्भर थे.’
‘प्यारू ने अवध सूबे के गर्वनर के तौर पर उनकी पहली नियुक्ति पर शासकों को तोहफ़ा देने के लिए रक़म दी थी. यह हास्यास्पद बातें इस हद तक बढ़ गई थीं कि कहा जाता है कि जब तक कोई व्यक्ति तवायफ़ों से संबंध न रखता हो वह सुसंस्कृत नहीं कहलाता था. इस समय यानी 1913 में कुछ तवायफ़ें मौजूद हैं जिनके साथ उठना-बैठना निंदनीय नहीं और जिनके घरों में खुलेआम और बेधड़क जाया जा सकता है.’
स्पष्ट है कि शरर सन् 1856 के बाद लिख रहे थे, जब पारंपरिक तवायफ़ों की संस्था अंग्रेज़ नष्ट कर चुके थे.
क़ाज़ी अब्दुल ग़फ़्फ़ार का उपन्यास ‘लैला के खु़तूत’ सन् 1932 में सामने आया था. यह शायद उर्दू का पहला नॉवेल है जिसमें ख़तों की तकनीक का इस्तेमाल किया गया है.
उन्होंने एक ऐसी तवायफ़ की ज़िंदगी को पेश किया है जो मर्दों के बनाए हुए समाज से त्रस्त है. अपने पत्रों में वह एसे समाज पर गहरा व्यंग्य करती है.
इस आधार पर अज़ीज़ अहमद ने ‘लैला के ख़ुतूत’ को पहला प्रगतिशील उपन्यास बताया है हलांकि प्रगतिशील आन्दोलन इस उपन्यास के छपने के लगभग चार साल बाद अस्तित्व में आया था.
प्रेमचंद की कृति ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ का विषय भी यही है.
कुछ उपलब्ध दास्तानों में से एक मलिका पुखराज की है जो जम्मू कश्मीर में महाराजा हरि सिंह के दरबार से जुड़ी गायिका और नृत्यांगना थीं. सलीम किदवई ने उन संस्मरणों का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है.
इस प्रकार आम तौर पर तवायफ़ एक जिस्मफ़रोश के रूप में दाग़दार हो गई थीं. 1960 के दशक के मध्य तक, शायर नियाज़ फ़तेहपुरी याद करते हैं कि ‘मेरे वालिद ने मुझे उन महफ़िलों में भेजना शुरू किया और यहीं से मेरे साहित्यिक जीवन की शुरुआत हुई… शहर की जानी-मानी तवायफ़ों की हैसियत एक ऐसे विद्वान की थी जिनकी बातचीत और जिनके अदब से शरीफ़ों ने लखनऊ के सही आदाब सीखे.’
थिएटर और फ़िल्म
शरया इला इंसूया के अनुसार, थिएटर और फ़िल्म में तवायफ़ों की भागीदारी ने अभिनय और साहित्यिक कला को बहुत शक्ति प्रदान की. जद्दन बाई भारतीय सिनेमा के जनकों में थीं. इसी तरह बेगम अख़्तर भारत की सबसे सम्मानित और सफल गायिकाओं में से एक थीं जिन्हें कला में महारथ के लिए मलिका-ए-ग़ज़ल कहा जाता था.
कुछ और तवायफ़ों ने भारतीय संस्कृति पर दूरगामी प्रभाव छोड़े.
सबसे मशहूर गौहर जान थीं. वो बीसवीं सदी के शुरू में ग्रामोफ़ोन पर अपना गाना रिकॉर्ड करने वाली पहली भारतीय कलाकार थीं. आर्मीनियाई पिता और ब्रितानी मां की संतान गौहर जान ने अपना पूरा जीवन भारत में बिताया. गौहर जान ने 1900 के दशक में रिकार्डिंग आर्टिस्ट के तौर पर बेइंतेहा कामयाबी हासिल की.
महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थन के लिए स्वराज फंड में भागीदारी निभाने के लिए उनसे संपर्क किया. वो इस शर्त पर चंदा जमा करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करने को तैयार हुईं कि गांधी उनके कार्यक्रम को देखने आएंगे.
विक्रम संपत ‘माई नेम इज़ गौहर जान’ में लिखते हैं कि ‘गांधी न आ सके और गौहर जान ने 24 हज़ार में से 12 हज़ार रुपये उन्हें भेजे.’
1920 से 1922 तक महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन के दौरान वाराणसी में तवायफ़ों के एक गिरोह ने स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन के लिए तवायफ़ सभा स्थापित की. सभी की अध्यक्षता करने वाली हसीना बाई ने गिरोह के सदस्यों से अपील की कि वे विरोध के प्रतीक के तौर पर जे़वरों के बदले लोहे की बेड़ियां पहनें और विदेशी सामान का बहिष्कार करें.
इंसूया लिखती हैं कि जद्दन बाई भी एक तवायफ़ और प्रसिद्ध गायिका थीं. उन्होंने सन 1934 में भारत की पहली फ़िल्म प्रोडक्शन कंपनी ‘संगीत मूवी टोन’ बनाई.
उन्होंने न सिर्फ़ फ़िल्में बनाईं बल्कि उसकी स्क्रिप्ट भी तैयार की, उसके लिए संगीत और डायलॉग भी लिखे और अदाकारी भी की. जद्दन बाई की बेटी नर्गिस 1950-60 के दशक में बॉलीवुड के चमकते सितारों में से एक थीं.
सूफ़ी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी का कहना है कि ‘तवायफ़ हमारे इतिहास का एक अनिवार्य अंग हैं. ‘मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम नहीं होता अगर कोई तवायफ़- नवाब जान- उनकी शायरी न गातीं. ये एक तवायफ़ थीं जिन्होंने हमें ग़ालिब से परिचित कराया.’
तवायफ़ की कला और संस्कृति को देह व्यापार से जोड़कर नीचा बना दिया गया.
राना सफ़वी कहती हैं कि ‘आज जिस्मफ़रोशी के लिए तवायफ़ शब्द का इस्तेमाल होता है. जो गाना और नाचना सीखती हैं वो अब ग़ालिब या दाग़ की ग़ज़लें नहीं, ग्राहक को ख़ुश करने के लिए अश्लील फ़िल्मी गाने गाती हैं. कोई बाला-ख़ाना यानी ऊपरी घर नहीं जहां संगीत और नृत्य परवान चढ़े, बस कोठे हैं जहां अक्सर लड़कियों को अग़वा कर या लालच देकर उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जिस्मफ़रोशी के लिए मजबूर किया जाता है.’
-Compiled by up18 News