‘भगवान को कैसे पूजा जाना चाहिए?’ गुरु ने पूछा।
‘संसार को त्यागकर भगवान में मन लगाकर,’ पहला छात्र बोला।
‘संसार की सुंदरता और उसके प्राचुर्य की सराहना कर,’ दूसरा छात्र बोला।
गुरु ने मुस्कराते हुए दूसरे छात्र को गले लगा लिया क्योंकि वह पुष्टि मार्ग का सार समझ गया था।
पुष्टि मार्ग में परमात्मा का एहसास होने के लिए उनकी कृपा को स्वीकारा जाता है। यह मार्ग मुख्यतः गुजरात और राजस्थान के व्यापारिक समुदायों द्वारा संरक्षित एक वैष्णव पंथ का आधारस्तंभ है। इस मार्ग में भगवान को एक व्यक्तित्व दिया जाता है। इस व्यक्तित्व – श्रीनाथजी – को उदयपुर के पास नाथद्वारा में एक हवेली में प्रतिष्ठापित किया गया है।
आस्तिक के लिए श्रीनाथजी की मूर्ति स्व-रूप अर्थात भगवान की जीवित छवि है। संगीत सुनाकर, भोजन खिलाकर और शृंगार से उन्हें प्रसन्न किया जाना अपेक्षित है। हर दिन पुजारी प्रेमपूर्वक परिश्रम कर सुनिश्चित करते हैं कि श्रीनाथजी कोई कमी नहीं महसूस करें। वे उन्हें मधुर संगीत सुनाकर जगाते हैं और फिर सुगंधित जल से नहलाकर स्वादिष्ट व्यंजन खिलाते हैं। त्योहारों पर वे उन्हें क़ीमती कपड़े भी पहनाते हैं।
श्रीनाथजी सांसारिक जीवन के आकाशीय संरक्षक यानी विष्णु के रूप हैं। वे भौतिक सुखों के दिव्य सहभागी कृष्ण के रूप हैं। अपने भक्तों को लौकिक दुखों से बचाने के लिए श्रीनाथजी अपनी उठी हुई भुजा के सहारे ब्रह्मांडीय पर्वत ‘गोवर्धन’ को ऊपर उठाते हैं; अपनी कोणीय आंखों से वे सभी को उपहार रूपी जीवन का बिना किसी संयम के आनंद लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। विश्व-पुष्टि हमेशा से ही वैष्णव दर्शनशास्त्र के केंद्र में रही है।
लेकिन पारंपरिक रूप से वैष्णव शिक्षकों ने सभी सांसारिक कार्यों को भक्ति, तटस्थता और ज्ञान के साथ संयमित करने पर ज़ोर दिया है। उनके अनुसार संसार मात्र माया है, एक सपना, जो किसी व्यक्ति को परमात्मा का अहसास कराने में सहायक है। पंद्रहवीं सदी के वल्लभाचार्य नामक रहस्यवादी ने माया की इस निराशाजनक व्याख्या को नकारा। उनके लिए संसार कोई अमूर्त मृगतृष्णा नहीं थी। संसार राधा की सुंदरता से प्रेरित कृष्ण की कलाकृति थी। भगवान के दिए इस वैभव से भला कोई कैसे दूरी बना सकता था।
श्री वैष्णव तेलुगु ब्राह्मणों के परिवार में जन्मे वल्लभ का मानना था कि विष्णु की पत्नी और सांसारिक धन व भाग्य की दाता ‘श्री’ के माध्यम से हमें भगवान का एहसास हो सकता है। उन्होंने शंकराचार्य की वेदांत की व्याख्या को ‘केवल अद्वैत’ माना, क्योंकि उसने मूर्त विश्व को परमात्मा से अलग करने का प्रयास किया।
जब वल्लभ का बौद्धिक विकास चरम पर था, तब उन्हें ब्रजभूमि में प्रसिद्ध पर्वत गोवर्धन पर श्रीनाथजी की मूर्ति मिली। मूर्ति उनके दर्शनशास्त्र की ठोस अभिव्यक्ति बन गई। उन्होंने मूर्ति एक मंदिर में प्रतिष्ठापित कर दी। उनके ज्येष्ठ पुत्र विट्ठलनाथ ने मूर्ति को पूजने के विस्तृत अनुष्ठान स्थापित किए। उनके माध्यम से श्रीनाथजी मानवीय बनकर लोगों के और निकट आ गए।
मुख्यतः विट्ठलनाथजी के प्रयासों से श्रीनाथजी ‘जागते हैं’, ‘खाते हैं’, ‘खेलते हैं’, ‘पशु चराते हैं’, ‘फैसला सुनाते हैं’ और यहां तक कि उन्हें ‘बुरी नज़र’ से बचाना भी आवश्यक है। पुष्टि मार्ग के अत्यधिक परिष्कृत अनुष्ठानों से पंथ सुदृढ़ बना है। दिन के आठ दर्शनों के दौरान भक्तों को मुश्किल से भगवान की झलक मिलती है। लेकिन अनुष्ठानों के माध्यम से उन्हें प्रकट अनभिव्यक्त के संपर्क में आने का अवसर मिलता है।
सत्रहवीं सदी में धार्मिक असहिष्णुता के कारण श्रीनाथजी की मूर्ति को यमुना नदी के किनारे से राजस्थान के रेगिस्तान में ले जाना पड़ा। यहां उसे एक मंदिर में नहीं, बल्कि राजपूत सरदारों द्वारा संरक्षित हवेली में रखा गया। हवेली और उसके आसपास के गांव को नाथद्वारा अर्थात भगवान का प्रवेशमार्ग कहा जाने लगा। आज भी व्यापारी और कलाकार संपन्नता और प्राचुर्य की देवी के स्वामी श्रीनाथजी की शरण लेते हैं।
– देवदत्त पटनायक
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