प्रसिद्ध चिंतक, दार्शनिक धर्मगुरू आचार्य रजनीश अर्थात् Osho का आज जन्म दिन है। इस अवसर याद करते हैं मनुष्य के तन और मन पर दिये जाने वाले उनके कुछ व्याख्यात्मक संस्मरण।
Osho ने कहा कि तन और मन अलग-अलग खुश नहीं हो सकते, न अलग-अलग दुखी हो सकते हैं। दोनों एक ही अस्तित्व के दो आयाम हैं, जिन्हें एक साथ संभाला और संवारा जाना जरूरी है। मनुष्य एक बीमारी है। यही उसकी तकलीफ है और यही उसकी खूबी भी। यही उसका सौभाग्य है और यही उसका दुर्भाग्य भी। रोग ने ही मनुष्य को सारा विकास दिया है। रोग का मतलब यह है कि हम जहां हैं, वहीं राजी नहीं हो सकते। हम जो हैं, वही होने से राजी नहीं हो सकते। रोग ही मनुष्य की गति बना। लेकिन, वही उसका दुर्भाग्य भी है, क्योंकि इसी रोग की वजह से वह बेचैन है, परेशान है, अशांत है, दुखी है, पीड़ित है। यह जो मनुष्य नाम का रोग है, इस रोग को सोचने, समझने और हल करने के दो उपाय किए गए हैं।
एक उपाय औषधि है और दूसरा ध्यान। ये दोनों एक ही रोग का इलाज हैं। औषधि शास्त्र मनुष्य के रोग को आणविक दृष्टि से देखता है। औषधि शास्त्र मनुष्य के एक-एक रोग के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है। ध्यान मनुष्य को संपूर्ण बीमार मानता है। ध्यान मनुष्य के व्यक्तित्व को बीमार मानता है। हालांकि, धीरे-धीरे यह दूरी कम हुई है और औषधि शास्त्र ने भी कहना शुरू किया है कि बीमारी का नहीं, बीमार का इलाज करो। यह बड़ी गंभीर बात है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि बीमारी भी बीमार के जीने का एक ढंग है। हर आदमी एक-सा बीमार नहीं हो सकता। ऐसा जरूरी नहीं है कि दो लोग क्षय रोग से पीड़ित हों और दोनों एक ही तरह के बीमार हों। दोनों में क्षय रोग भी दो तरह का होगा, क्योंकि वे दो व्यक्ति हैं। हो सकता है कि जो इलाज एक के क्षय को ठीक कर सके, वह दूसरे के क्षय को ठीक न कर सके। इसलिए समस्या की जड़ बीमारी नहीं, बीमार है। औषधि शास्त्र ऊपर से बीमारियों को पकड़ता है।
ध्यान का शास्त्र गहराई से बीमरियों को पकड़ता है। इसे ऐसा कह सकते हैं कि औषधि मनुष्य को ऊपर से स्वस्थ करने की चेष्टा करती है। ध्यान मनुष्य को भीतर से स्वस्थ करने की चेष्टा करता है। न तो ध्यान पूर्ण हो सकता है औषधि शास्त्र के बिना और न औषधि शास्त्र पूर्ण हो सकता है ध्यान के बिना। मनुष्य हजारों वर्षों से इस तरह सोचता रहा है कि आदमी का शरीर अलग है और आत्मा अलग। इस चिंतन के दो खतरनाक परिणाम हुए।
एक तो यह हुआ कि कुछ लोगों ने आत्मा को ही मनुष्य मान लिया, शरीर की उपेक्षा कर दी। जिन कौमों ने ऐसा किया, उन्होंने ध्यान का तो विकास किया, लेकिन औषधि का विकास नहीं किया। वे औषधि को विज्ञान नहीं बना सके। शरीर की उपेक्षा कर दी। इसके विपरीत कुछ ने आदमी को शरीर मान लिया और आत्मा के अिस्तत्व को नकार दिया,उन्होंने औषधि का खूब विकास किया, लेकिन ध्यान के संबंध में गति नहीं कर पाए। जबकि आदमी दोनों हैं, एक साथ। जब कहते हैं कि दोनों एक साथ हैं, तो ऐसा भ्रम पैदा होता है कि दो चीजें हैं जुड़ी हुई। लेकिन, असल में आदमी का शरीर और उसकी आत्मा एक ही चीज के दो छोर हैं।
अदृश्य शरीर का नाम आत्मा है, दृश्य आत्मा का नाम शरीर है। ये दो चीजें नहीं हैं, ये दो अस्तित्व नहीं हैं, ये एक ही अस्तित्व की दो विभिन्न तरंग-अवस्थाएं हैं। असल में जो भी शरीर पर घटित होता है, उसकी तरंगें आत्मा तक सुनी जाती हैं। इसलिए कई बार यह होता है कि शरीर से बीमारी ठीक हो जाती है और आदमी फिर भी बीमार बना रह जाता है। चिकित्सक के जांच के सारे उपाय कह देते हैं कि अब सब ठीक है, लेकिन बीमार को लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है। इस तरह के बीमारों से चिकित्सक बहुत परेशान रहते हैं, क्योंकि उनके पास जो भी जांच के साधन हैं। वे कह देते हैं कि कोई बीमारी नहीं है। लेकिन कोई बीमारी न होने का मतलब स्वस्थ होना नहीं है।
चिकित्सा शास्त्र अब तक, स्वास्थ्य क्या है, इस दिशा में कुछ भी काम नहीं कर पाया है। उसका सारा काम इस दिशा में है कि बीमारी क्या है। अगर चिकित्सा शास्त्र से पूछें कि बीमारी क्या है? तो वह परिभाषा बताता है। उससे पूछें कि स्वास्थ्य क्या है? तो वह धोखा देता है। वह कहता है, जब कोई बीमारी नहीं होती तो जो शेष रह जाता है, वह स्वास्थ्य है। यह धोखा हुआ, परिभाषा नहीं हुई। क्योंकि बीमारी से स्वास्थ्य की परिभाषा कैसे की जा सकती है? यह तो वैसे ही हुआ जैसे कांटों से कोई फूल की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई मृत्यु से जीवन की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई अंधेरे से प्रकाश की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई स्त्री से पुरुष की परिभाषा करे या पुरुष से स्त्री की परिभाषा करे।
- maya
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