सिर्फ हिजाब नहीं, क्रिकेट प्रशासन से लेकर तीन तलाक और दिल्ली सरकार के प्रशासन से लेकर हत्या तक के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की बेंच में जजों की राय अलग-अलग रह चुकी है। आइए एक नजर डालते हैं कि कब और कैसे कुछ अहम मसलों पर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने बंटा हुआ फैसला दिया।
18 जून 2020, तीन तलाक केस
करीब 24 साल पहले 1998 में इंस्टेंट ट्रिपल तलाक के एक मामले में जस्टिस आर. भानुमति और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की बेंच ने बंटा हुआ फैसला दिया था। मुद्दा था कि क्या फैमिली कोर्ट सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरणपोषण के लिए दी गई अर्जी को मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986 की धारा 3 और 4 में बदल सकता है। जस्टिस भानुमति ने अपने फैसले में कहा कि मुस्लिम वुमेन एक्ट के तहत फैमिली कोर्ट को यह अधिकार नहीं है जबकि जस्टिस बनर्जी ने कहा कि फैमिली कोर्ट एक धर्मनिरपेक्ष संस्था के तौर पर काम करता है इसलिए वह जिन मामलों पर विचार करता है, उस पर भी यह बात लागू होती है, भले ही मुकदमे में शामिल पक्षों का धर्म कुछ भी हो।
दो जजों की बेंच के बंटे हुए फैसले के बाद मामला बड़ी बेंच में पहुंचा लेकिन 22 सितंबर 2022 को जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच भी उस बंटे हुए फैसले का मामला सुलझा नहीं पाई। हालांकि, बेंच ने एक नया मैंटिनेंस फॉर्म्युला सुझाया और उम्मीद जताई कि दोनों पक्षों को यह मंजूर होगा।
14 फरवरी 2019, दिल्ली में सर्विसेज पर किसका कंट्रोल?
दिल्ली में सर्विसेज पर किसका नियंत्रण हो, इसे लेकर जस्टिस ए. के. सीकरी और जस्टिस अशोक भूषण की दो जजों की बेंच की राय बंटी हुई थी परंतु ऐंटी-करप्शन ब्यूरो, इलेक्ट्रिसिटी रिफॉर्म्स ऐक्ट और कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट के तहत कंपीटेंट अथॉरिटी जैसे 5 अन्य मसलों पर बेंच की राय एक थी।
जस्टिस सीकरी ने अपने फैसले में कहा कि जॉइंट सेक्रटरी रैंक से ऊपर के अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास रहेगा। बाकी अफसरों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार के पास रहेगा।
दूसरी तरफ जस्टिस भूषण ने अपने फैसले में कहा कि ‘सर्विसेज’ पर पूरी तरह एलजी का अधिकार है, यह दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। मई 2022 में तत्कालीन सीजेआई एनवी रमण की अगुआई वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को 5 जजों वाली संविधान पीठ को भेज दिया।
3 अप्रैल 2017, क्या मर्डर केस में दोषी को मिल सकता है संदेह का लाभ?
क्या हत्या के मामले में दोषी को संदेह का लाभ यानी बेनिफिट ऑफ डाउट मिल सकता है? जस्टिस प्रफुल्ल सी. पंत और जस्टिस आर. एफ. नरीमन की दो जजों की बेंच ने बंटा हुआ फैसला दिया। दोनों जजों की राय एक दूसरे से उलट थी। हत्या के मामले में एक शख्स को निचली अदालत ने बरी कर दिया था। हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलट दिया। जस्टिस पंत ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया जबकि जस्टिस नरीमन ने बरी करने का आदेश दिया। आखिरकार 7 फरवरी 2019 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच ने ट्रायल कोर्ट के बरी करने के फैसले पर मुहर लगाई।
28 जुलाई 2015, आतंकी याकूब मेमन के डेथ वारंट मामला
जस्टिस अनिल आर. दवे और जस्टिस कुरियन जोसेफ की दो जजों की बेंच ने आतंकी याकूब मेमन के डेथ वारंट पर स्टे को लेकर बंटा हुआ फैसला सुनाया। जस्टिस जोसेफ ने कहा कि वह अगले आदेश तक डेथ वारंट पर रोक लगा रहे हैं जबकि जस्टिस दवे ने वारंट पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। अगले दिन तीन जजों की बेंच बैठी और डेथ वारंट पर रोक लगाने से इंकार कर दिया।
28 अप्रैल 2011, बीसीसीआई के कामकाज पर
दो जजों की बेंच बीसीसीआई के क्लॉज 6.2.4 में संशोधन पर बंटा हुआ फैसला दिया था। क्लॉज में संशोधन से क्रिकेट प्रशासकों को खेल में कॉमर्शियल इंट्रेस्ट की इजाजत दी गई थी। जस्टिस जे. एम. पांचाल ने क्लॉज 6.2.4 में संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया जबकि जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने याचिका को यह कहते हुए मंजूरी दी कि बीसीसीआई के पदाधिकारियों का किसी आईपीएल टीम (एन. श्रीनिवासन) में हिस्सेदारी नहीं हो सकती। इस मामले में कभी 3 जजों की बेंच नहीं बनी। जनवरी 2015 में जस्टिस टीएस ठाकुर और जस्टिस इब्राहिम कैफुल्लाह की दो जजों वाली एक अन्य बेंच ने विवादित क्लॉज को रद्द कर दिया।
-Compiled by up18 News