मोदी: वर्ग संघर्ष के अप्रतिम नायक !

अन्तर्द्वन्द

-एच. एल. दुसाध-

गत 30 मई को मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में बड़ी उपलब्धि अपने नाम दर्ज करा ली. 30 मई , 2019 को उन्होंने 15 वें प्रधानमंत्री के रूप में दूसरी बार शपथ लिया था. इस तरह दोनों कार्यकाल मिलाकर उन्होंने 30 मई, 2022 को लगातार आठ साल पीएम के रूप में कार्य करने का कारनामा दर्ज किया. उनकी इस उपलब्धि को ढेरो राजनीतिक विश्लेषकों ने ही नजरंदाज़ किया, किन्तु राष्ट्रवादी मीडिया और उनकी पार्टी से जुड़े लोगों ने इस अवसर पर उनकी उपलब्धियों को याद करने में कोताही नहीं की. अधिकांश राष्ट्रवादी अख़बारों ने लिखा है कि उन्होंने अपनी कार्यशैली और विशेष रूप से विकास एवं जनकल्याण की योजनाओं को प्रभावी तरीके से जमीन पर उतारने में जैसी सफलता अर्जित की, उसकी मिसाल मिलना कठिन है. जहाँ तक भाजपाईयों का सवाल है अधिकांश ने ही योगी आदित्यनाथ की भांति माना है कि उनके नेतृत्व में 2014 के बाद सांस्कृतिक और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद पहली बार भारत की राष्ट्रीय राजनीति में सम्मानजनक स्थान पा रहा है .

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने उन आयामों को छूने में सफलता अर्जित की, जो प्रभु श्रीराम की कृति और महात्मा बुद्ध के संदेशों के कारण सदियों पूर्व निर्धारित हुए थे और जिन्हें आज भी कई देशों के परम्पराओं में देखा जा सकता है. मेक इन इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया, बेटी- बचाओं, बेटी-पढाओ जैसी पहल नए भारत के निर्माण में मील का पत्थर साबित हो रही है. नोटबंदी और जीएसटी नए भारत के निर्माण में मील का पत्थर साबित हो रही है…’ बहरहाल प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के आठ साल की जो उपलब्धियां राष्ट्रवादी मिडिया और नेता गिना रहे हैं, उसे विपक्षी बुद्धिजीवी काफी हद ख़ारिज कर चुके हैं. लेकिन मोदी की ढेरों उपलब्धियां ख़ारिज करने के बावजूद कोई भी व्यक्ति भारत में वर्ग संघर्ष के अप्रतिम नायक के रूप में उनकी भूमिका को ख़ारिज नहीं कर सकता. इसे समझने के लिए महान समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स के नजरिये से मानव जाति के इतिहास का, जिसकी हम अनदेखी करने के अभ्यस्त रहे हैं, सिंहावलोकन कर लेना पड़ेगा.

मार्क्स ने कहा है कि अब तक का विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है.एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है. पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है.

मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित : ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमे कभी भी समझौता नहीं हो सकता. मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के इतिहास की यह व्याख्या मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास की निर्भूल व अकाट्य सचाई है, जिसकी भारत में बुरी तरह अनदेखी होती रही है, जोकि हमारी ऐतिहासिक भूल रही . ऐसा इसलिए कि विश्व इतिहास में वर्ग-संघर्ष का सर्वाधिक बलिष्ठ चरित्र हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा है,जो मूलतः शक्ति के स्रोतों अर्थात उत्पादन के साधनों के बंटवारे की व्यवस्था रही है एवं जिसके द्वारा ही भारत समाज सदियों से परिचालित होता रहा है. जी हाँ, वर्ण-व्यवस्था मूलतः संपदा-संसाधनों, मार्क्स की भाषा में कहा जाय तो उत्पादन के साधनों के बटवारे की व्यवस्था रही. चूँकि वर्ण-व्यवस्था में विविध वर्णों (सामाजिक समूहों) के पेशे/कर्म तय रहे तथा इन पेशे/कर्मों की विचलनशीलता धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध रही, इसलिए वर्ण-व्यवस्था एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले ली,जिसे हिन्दू आरक्षण कहा जाता है. वर्ण-व्यवस्था के आर्य प्रवर्तकों द्वारा हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत सुपरिकल्पित रूप से तीन अल्पजन विशेषाधिकारयुक्त तबकों के मध्य आरक्षित कर दिए गए. इस आरक्षण में बहुजनों के हिस्से में संपदा-संसाधन नहीं, मात्र तीन उच्च वर्णों की सेवा आई, वह भी पारिश्रमिक-रहित.

वर्ण-व्यवस्था के इस आरक्षणवादी चरित्र के कारण दो वर्गों का निर्माण हुआ: एक विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजन सवर्ण और दूसरा वंचित बहुजन.ऐसे में दावे के साथ कहा जा सकता है कि सदियों से ही भारत में वर्ग संघर्ष आरक्षण में क्रियाशील रहा है. बहरहाल प्राचीन काल में शुरू हुए ‘देवासुर –संग्राम’ से लेकर आज तक सवर्णों की समस्त धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक गतिविधियाँ जहां हिन्दू आरक्षण से मिले वर्चस्व को अटूट रखने पर केन्द्रित रहीं, वहीं बहुजनों की ओर से जो संग्राम चलाये गए हैं, उसका प्रधान लक्ष्य शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक-सांस्कृतिक) में बहुजनों की वाजिब हिस्सेदारी रही है.

वर्ग संघर्ष में प्रायः यही लक्ष्य दुनिया के दूसरे शोषित-वंचित समुदायों का भी रहा है.

भारत के मध्य युग में जहां संत रैदास, कबीर, चोखामेला, तुकाराम इत्यादि संतों ने तो आधुनिक भारत में इस संघर्ष को नेतृत्व दिया फुले-शाहू जी-पेरियार–नारायणा गुरु-संत गाडगे और सर्वोपरी उस आंबेडकर ने, जिनके प्रयासों से वर्णवादी-आरक्षण टूटा और संविधान में आधुनिक आरक्षण का प्रावधान संयोजित हुआ. इसके फलस्वरूप सदियों से बंद शक्ति के स्रोत सर्वस्वहांराओं (एससी/एसटी) के लिए खुल गए. इस क्रम में डॉ. आंबेडकर वंचितों के नजरिये से भारत में सदियों से जारी वर्ग-संघर्ष के सबसे बड़े नायक रहे. बहरहाल हजारों साल से भारत के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी और वंचित बहुजन समाज: दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर जो अनवरत संघर्ष जारी रहा,उसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया. इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण पर संघर्ष का एक नया दौर.

मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया. इसीलिए मंडलवादी आरक्षण की घोषणा होते ही हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के छात्र व उनके अभिभावक, लेखक- पत्रकार, साधु- संत और धन्नासेठों के साथ सवर्णों के राजनीतिक दल भी सर्वशक्ति से कमर कास लिए . इसी मकसद से भाजपा के आडवाणी ने रामजन्मभूमि –मुक्ति का आन्दोलन छेड़ दिया, जिसकी जोर से भाजपा एकाधिक बार सत्ता में आई और आज अप्रतिरोध्य बन चुकी है. बहरहाल मंडलवादी आरक्षण से हुई इस क्षति की भरपाई ही दरअसल मंडल उत्तरकाल में सुविधाभोगी वर्ग के संघर्ष का प्रधान लक्ष्य था.

कहना न होगा 24 जुलाई ,1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत के शासक वर्ग ने मंडल से हुई क्षति का भरपाई कर लिया. जिसमें पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह की विराट भूमिका रही. किन्तु इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पूर्ववर्तियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है. इनके ही राजत्व में पिछले आठ सालों में मंडल से सवर्णों को हुई हुई क्षति की कल्पनातीत रूप से हुई है भरपाई. मोदी ने वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए मंडल से सवर्णों को हुई क्षति का किस पैमाने भरपाई की है, इसे जानने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में दृष्टि निक्षेप कर लेनी होगी.

आज यदि कोई गौर से देखेगा तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80- 90 प्रतिशत फ्लैट्स सवर्ण मालिकों के ही हैं. मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की हैं. चार से आठ- दस लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाडियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है. संसद विधान सभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्ही वर्गों से हैं. मोदी की सवर्णपरस्त नीतियों जिस तरह शक्ति के स्रोतों पर सवर्णों का वर्चस्व और ज्यादा बढ़ा है, उसके आधार पर दावे के साथ कहा जा सकता है कि न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय विशेष का नहीं है. इसका अधिकाश श्रेय मोदी को जाता है.

मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की व्याख्या करते हुए कहा है शासक वर्ग अपने प्रभुत्व को बनुए रखने के लिए राजसत्ता का इस्तेमाल करता है. मोदी ने हिन्दू धर्म के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को स्थापित करने के लिए जिस पैमाने पर राज्य का इस्तेमाल किया है, उसकी मिसाल स्वाधीन भारत के इतिहास में तो दुर्लभ है ही, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है. मोदी ने हिन्दू-धर्म के सुविधाभोगी वर्ग के हाथ शक्ति के समस्त स्रोत देने के लिए ही नफरत की राजनीति को उस जगह पहुचाया है, जिसकी मिसाल आज के सभ्यतर युग में प्रायः असंभव है. हिन्दू धर्म के सुवुधाभोगी वर्ग के प्रभुत्व को विस्तार देने के लिए ही देश बेचने और संविधान को व्यर्थ करने जैसा जैसा दुसाह्सिक काम अंजाम दिया है. अपने चहेते वर्ग सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर प्रभुत्व स्थापित करने लिए मोदी ने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद जो बढ़ावा दिया, उससे पहले ही मानव सभ्यता की दौड़ में कई सौ साल पीछे चल रहा भारत आज 2000 साल पीछे जाने का मैन बना लिया है. इस क्रम में मोदी ने सीधे-साधे लोगों की साईक में ऐसा बदलाव ला दिया है कि आज हिन्दू खौफ का विषय बन गए हैं.

वर्ग विशेष के हित में देश बेचने वाला मोदी जैसा शासक ही कोई और हुआ है! सिर्फ और सिर्फ हित में नीतियाँ बनाने के चलते ही आज हिन्दू- धर्म के गुलाम मूलनिवासी दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबके उस स्टेज में पहुँच गए हैं, जिस स्टेज में सारी दुनिया के वंचितों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ने पड़े. सिर्फ और सिर्फ आँख मूंदकर सवर्ण हित में नीतियाँ बनाने के कारण ही पिछले वर्ष वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम द्वारा तैयार ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट में भारत के आधी आबादी की अत्यंत कारुणिक तस्वीर उभरी.

रिपोर्ट में बताया गया कि पुरुषों के बराबर महिलाओं के समानता पाने में भारत नेपाल, भूटान, मायनामार, बांग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि से भी पीछे चला गया है. रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में पुरूषों के बराबर आर्थिक समानता पाने में भारतीय महिलाओं को 257 साल से ज्यादा लग सकते हैं. शायद आज की तारीख में पूरे विश्व में मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या पुरुषों के मुकाबले भारत के आर्थिक आबादी की आर्थिक असमानता है, जिसके लिए जिम्मेवार मोदी के आठ साल की सवर्ण-परस्त नीतियाँ हैं.

बहरहाल यह सवाल लोगों के जेहन में उठ सकता है कि मोदी ने वर्ग संघर्ष का भयानक खेल खेतते हुए क्यों शुद्रातिशुद्रों और इनसे धर्मान्तरित लोगों को गुलामों की स्थिति में पहुचाने के साथ भारत की आधी आबादी को क्यों इस हालात में पहुंचा दिया कि आज उनकी आर्थिक मुक्ति प्रायः असंभव बन चुकी है. इसका उत्तर यह है कि शुद्रातिशुद्र और महिलाओं के लिए शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनैतिक-धार्मिक-शैक्षिक) का भोग इनके अधर्म है. अतः कभी जिन हिन्दू धर्म-शास्त्रों को मानवता-विरोधी मानते हुए डॉ. आंबेडकर ने डायनामाईट से उड़ाने का निदेश दिया था, उन धर्मशास्त्रों में अपार आस्था के कारण संघी मोदी के लिए आरक्षण का लाभ उठानेवाले आरक्षित वर्गों के लोग साक्षात् वर्ग शत्रु हैं .विगत आठ सालों में इन वर्ग शत्रुओं को फिनिश करने के लिए मोदी ने विगत आठ सालों में जैसी नीतियाँ बनायीं, वैसा स्वाधीन भारत में तो किसी ने किया ही नहीं: विश्व इतिहास में भी इसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है. ऐसे में इतिहास निसंदेह सवर्ण नजरिये से मोदी को वर्ग संघर्ष के एक अप्रतिम नायक के रूप में जरुर वरण करेगा.

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)