सिर पर लंबी लंबी जटाएं और शरीर पर शमशान की राख….नागा साधुओं की विचित्र दुनिया, जिसे जानकर आप रह जाएंगे हैरान !

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महाकुंभ का जिक्र हो और नागा साधुओं के बारे में बात न की जाय ऐसा तो हो ही नहीं सकता। सिर पर लंबी लंबी जटाएं और शरीर पर शमशान की राख….लपेटे नागा साधुओं हमेशा लोगो का ध्यान अपनी तरफ खींचते है। इनकी विचित्र दुनिया के बारे में हर कोई जानना चाहता है। आज हम नागा साधुओं से जुड़ी कुछ बातों के बारे में बताने जा रहे है जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगे।

सबसे पहले जान लें नागा का अर्थ

नागा शब्द संस्कृत के नग से बना है। जिसका अर्थ होता है पहाड़। यानि पहाड़ या गुफाओं में रहने वाले को नागा कहते है। नौवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने दशनामी संप्रदाय की शुरुआत की थी। अधिकतर नागा सन्यासी इसी संप्रदाय से आते है।

महिलाएं कैसे बनती हैं नागा साधु

महिलाओं के लिए नागा साधु बनने का रास्ता इतना आसान नहीं होता है। इसके लिए महिलाओं को दस से पंद्रह सालों तक कठोर बह्यचर्य व्रत का पालन करना पड़ता है। गुरु को अपनी योग्यता और ईश्वर के प्रति समपर्ण का प्रमाण देना होता है। महिला नागा साधुओं को जीवित रहते हुए अपना पिंडदान औऱ मुंडन भी जरुर करना होता है।

इतना ही नहीं महिलाओं को नागा साधु बनने के लिए कई कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जब अखाड़े के गुरु उस महिला पर भरोसा हो जाता है तो वो दीक्षा देते है। दीक्षा के बाद महिला सन्यासी को सांसारिक कपड़ा छोड़कर अखाड़े से मिला पीला और भगवा कपड़े पहनना होता है। इन्हें माता की पदवी दी जाती है।

जूना अखाड़ा देश का सबसे बड़ा और पुराना अखाड़ा है। अधिकतर महिला नागा इसी से जुड़ी है। साल 2013 में पहली बार इससे महिला नागा जुड़ी थी।सबसे अधिक महिला नागा इसी अखाड़े में है।

महिला नागा साधुओं को गंगा स्नान या महाकुंभ के दौरान अमृत स्नान के समय अगर पीरियड्स आ जाते हैं तो ऐसे में उन्हें छूट होती है कि वह गंगाजल को हाथ में लेकर उसे अपने शरीर पर छिड़क लें। इससे मान लिया जाता है कि महिला नागा साधु ने गंगा स्नान कर लिया है। हालांकि, उन्हें गंगा तट पर जाने की अनुमति नहीं होती है। वे सिर्फ अपने शिविर में ही रहती हैं और वहीं जल में गंगाजल मिलाकर उससे स्नान करती हैं। पीरियड्स के दौरान महिला नागा साधु साधना नहीं कर सकती हैं, इसलिए वे मानसिक जाप करती हैं।

नागा साधु बनने के लिए परिवार की सहमति है जरुरी

पुरुष नागा सन्यासी की बात करें तो ये दो तरह के होते हैं। एक शास्त्रधारी और दूसरा शस्त्रधारी। आमतौर पर नागा बनने की उम्र 17 से 19 साल होती है। इसके तीन स्टेज है। महापुरुष, अवधूत और दिंगबर। लेकिन इससे पहले प्रीस्टेज यानी परख अवधि होती है। जो भी नागा साधु बनने के लिए अखाड़े में आवेदन देता है, उसे पहले लौटा दिया जाता है।

फिर भी वो नहीं मानता तब अखाड़ा उसकी पूरी पड़ताल करता है। अखाड़े वाले उम्मीदवार के घर जाते है। घर वालों को बताते है कि आपका बेटा नागा बनना चाहता है। परिवार की सहमति के बाद उनका पूरा क्रिमिनल रिकॉर्ड देखा जाता है। इसके बाद नागा बनने की चाह रखने वाले व्यक्ति को एक गुरु बनाना होता है। किसी अखाड़े में रहकर दो तीन साल सेवा करनी होती है।

सन्यास जीवन में रहने की दिलाई जाती है प्रतिज्ञा

वरिष्ठ सन्यासियों के लिए खाना बनाना, उसके स्थानों की सफाई करना, साधना और शास्त्रों का अध्ययन कराना होता है। एक टाइम भोजन करना होता है। काम,वासना,नींद और भूख पर काबू करना सीखता है। मोह माया परिवार से दूर रहना होता है।तब जाकर सन्यास जीवन में रहने की प्रतिज्ञा दिलाई जाती है। उसे महापुरुष घोषित करके पंच संस्कार किया जाता है। अखाड़े की तरफ से इन्हें नारियल, भगवा वस्त्र, जनेऊ, रुद्राक्ष, भभूत सहित नागाओं के प्रतीक आभूषण दिए जाते है। इसके बाद गुरु अपनी प्रेम कटारी से शिष्य की शिखा यानी चोटी काटलेते है। इस मौके पर शीरा और धनिया बांटा जाता है।

महापुरुष को अवधूत बनाने के लिए सुबह चार बजे उठाया जाता है। नित्य कर्म और साधना के बाद गुरु इन्हें लेकर नदी किनारे पहुंचते हैं। उसके शरीर से बाल हटाकर नवजात बच्चे जैसा कर देते हैं। नदी में स्नान कराया जाता है। वह पुरानी लंगोटी छोड़कर नई लंगोटी धारण करता है। इसके बाद गुरु जनेऊ पहनाकर दंड, कमंडल और भस्म देते हैं।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर धनंजय चोपड़ा अपनी किताब ‘भारत में कुंभ’ में लिखते हैं- ‘महापुरुष नागाओं को तीन दिन तक उपवास रखना होता है। फिर वह खुद का श्राद्ध करता है। उसे 17 पिंड दान करने होते हैं। 16 अपने पूर्वजों के और 17वां पिंडदान खुद का। इसके बाद वह सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। वह नया जीवन लेकर अखाड़े में लौटता है।’

इसके बाद आधी रात में विरजा यानी विजया यज्ञ किया जाता है। गुरु एक बार फिर महापुरुष से कहते हैं कि वो चाहे तो सांसारिक जीवन में लौट सकता है। जब वह नहीं लौटता तो यज्ञ के बाद अखाड़े के आचार्य, महामंडलेश्वर या पीठाधीश्वर महापुरुष को गुरुमंत्र देते हैं। इसके बाद उसे धर्म ध्वजा के नीचे बैठाकर ऊं नम: शिवाय का जाप कराया जाता है।

अगले दिन सुबह चार बजे महापुरुष को फिर गंगा तट पर लाया जाता है। 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। इसके बाद दंड-कमंडल का त्याग कराया जाता है। अब वह अवधूत संन्यासी बन जाता है। इस 24 घंटे की प्रक्रिया में उसे उपवास रखना होता है।भारत में महाकुंभ’ किताब के मुताबिक अवधूत बनने के बाद दिगंबर की दीक्षा लेनी होती है। ये दीक्षा शाही स्नान से एक दिन पहले होती है। ये बेहद कठिन संस्कार होता है। इस दौरान गिने-चुने बड़े साधु ही मौजूद रहते हैं।

इसमें अखाड़े की धर्म ध्वजा के नीचे उसे 24 घंटे बिना कुछ खाए-पिए व्रत करना होता है। इसके बाद तंगतोड़ संस्कार किया जाता है। इसमें सुबह तीन बजे अखाड़े के भाले के सामने आग जलाकर अवधूत के सिर पर जल छिड़का जाता है। उसके जननांग की एक नस खींची जाती है। इसके बाद सभी शाही स्नान के लिए जाते हैं। डुबकी लगाते ही ये नागा साधु बन जाते हैं।

साभार सहित


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