न्‍यायसंगत एनेर्जी ट्रांज़िशन फाइनेंसिंग में भारत की महत्‍वपूर्ण भूमिका

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विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि कोयले पर बहुत ज्‍यादा निर्भर उभरते हुए देशों को न्‍यायसंगत ऊर्जा ट्रांज़िशन बनाने के लिये चुनने में मदद के लिये गठित जस्‍ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेईटीपी) कई बुनियादी सवालों के जवाब नहीं देता, इसीलिये इसे लेकर दुनिया में कम उत्‍साह है।

इन बातों का पता चला एक वेबिनार में। दरअसल जलवायु थिंकटैंक ‘क्‍लाइमेट ट्रेंड्स’ ने जी20 देशों के अध्‍यक्ष के रूप में भारत के पास मौजूद अवसरों और वह किस तरह से समानतापूर्ण समाधानों को आगे बढ़ाने में अपने नेतृत्‍व का इस्‍तेमाल कर सकता है, इस पर चर्चा के लिये एक वेबिनार आयोजित किया। इसमें ग्रेशम कॉलेज के इमेरिटस प्रोफेसर और बारबेडोस के प्रधानमंत्री के विशेष राज‍नयिक अविनाश प्रसाद, वर्ल्‍ड रिसोर्सेज इंस्‍टीट्यूट इंडिया के क्‍लाइमेट चेंज प्रोग्राम की निदेशक उल्‍का केलकर और द एनर्जी रिसोर्स इंस्‍टीट्यूट के फेलो आर आर रश्मि ने अपने-अपने विचार रखे।

अविनाश प्रसाद ने जी20 के अध्‍यक्ष के रूप में भारत के सामने खड़े अवसरों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘भारत इस पूरे वर्ष 2020 का अध्यक्ष है और अगले साल अमेरिका के राष्ट्रपति पद का चुनाव भी है। यह बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण अवसर है। हम इस वक्त बहुत ही अन्यायपूर्ण ट्रांज़िशन प्रणाली का हिस्सा हैं। पर्यावरण में तपिश बढ़ रही है। हमने पिछले साल पाकिस्तान में जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न भीषण आपदा देखी है और भारत में भी जबरदस्त तपिश को महसूस किया गया है। एक्शनल फाइनेंस के मसले को सुलझाने के लिए भारत सबसे अच्छी स्थिति में है।’’

उन्‍होंने कहा, ‘‘हमें पर्यावरण को लेकर हो रहे अन्‍याय को पहचानना पड़ेगा। कोई भी देश किसी भी ऐसे नेता को नहीं चुन रहा है जिसका यह उद्देश्य हो कि वह अपने देश को धन को क्‍लाइमेट फाइनेंसिंग के नाम पर विदेश को देना चाहता है। हमें रेसिलियंस (सततता) पर और भी ज्यादा निवेश की जरूरत है। भारत तथा कई अन्य देश इस वक्त रेजीलियंट हैं लेकिन भविष्य में नहीं रहेंगे। क्योंकि सततता से आपका धन बचता है इसलिए आप इसे सततता से उधार ले सकते हैं। ऐसे में मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंक्स को नया धन उधार देने और अपने उधार देने के दायरे को बढ़ाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। न सिर्फ सतत विकास लक्ष्यों पर, बल्कि अतिरिक्त धन के लो कॉस्ट लॉन्ग टर्म रेजीलियंस इन्वेस्टमेंट पर भी ध्यान देना होगा। भारत को इस मामले में एक चैंपियन की भूमिका अदा करनी चाहिए।’’

प्रसाद ने कहा, ‘‘लॉस एंड डैमेज कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए दुनिया के देश कर्ज लें। अगर ऐसा ही हो तो हर देश में कोई न कोई जलवायु सम्‍बन्‍धी आपदा होती रहती है। ऐसे हालात में हमारे देश कर्ज के जबरदस्त बोझ तले दब जाएंगे इसलिए हमें आमदनी के नए जरिए तलाशने होंगे। इसके लिए एक ग्लोबल पैक्ट की जरूरत होगी और मेरा मानना है कि भारत को इसका हिस्सा बनना चाहिए। हमें लगता है कि दुनिया को नए वैश्विक करों की जरूरत है। जैसे कि कार्बन एडजेसमेंट टैक्स, ताकि जलवायु परिवर्तन से जुडी आपदाओं से निपटने के लिए धन इकट्ठा किया जा सके। भारत को इस दिशा में नेतृत्‍वकर्ता और अभियानकर्ता की भूमिका निभानी पड़ेगी।’’

आगे, उल्का केलकर ने कहा कि यह ध्यान देने योग्य बात है कि दुनिया के विभिन्न देशों को सततता निर्माण और अनुकूलन कीमत पर अपने घरेलू खर्च को कम करना पडा है। हम जानते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान फिजी को रेजीलियंस बिल्डिंग और एडेप्टेशन की मद में अपने खर्च को 40% तक कम करना पड़ा। बांग्लादेश को इसी मद में 7% और इंडोनेशिया में 20% कटौती करनी पड़ी। यह सिर्फ कर्ज वापस करने का मामला नहीं है बल्कि अनुकूलन के लिए फंडिंग की जरूरत से जुड़ा मामला भी है।

उन्‍होंने कहा कि विश्व बैंक समेत विभिन्‍न बैंक ऊर्जा समेत विभिन्न क्षेत्रों में हरित ट्रांज़िशन के लिए नए अतिरिक्त वित्त उत्पन्न नहीं कर रहे हैं, लेकिन कृषि, स्वास्थ्य और जल जैसे क्षेत्रों से वित्त को लो कार्बन एनर्जी इंफ्रास्ट्रक्चर की तरफ स्थानांतरित किया जा रहा है। हमें इस पर नजर रखनी होगी।

कोयले पर बहुत ज्‍यादा निर्भर उभरते हुए देशों को न्‍यायसंगत ऊर्जा ट्रांज़िशन बनाने के लिये चुनने में मदद के लिये गठित जस्‍ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेईटीपी) का जिक्र करते हुए उल्‍का ने कहा कि जेईटीपी को लेकर शुरू में तो काफी उत्साह था लेकिन जब उससे जुड़े तथ्य सामने आए तो यह उत्साह जाता रहा। जेईटीपी का 97 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण अफ्रीका के खाते में वित्तपोषण के बजाय कर्ज के रूप में जा रहा है। यह निश्चित रूप से निराशाजनक है क्योंकि यह गतिविधियां ऐसी नहीं है जिन्हें कर्ज के जरिए वित्‍तपोषित किया जाए।

उन्‍होंने कहा, ‘‘आईपीसीसी कि कल आयी रिपोर्ट में दो तथ्य देखने योग्य हैं। पहला यह कि दुनिया के 10% सबसे धनी लोग लगभग 45% ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं और नीचे के 50% लोग जो जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे परिणामों को भुगत रहे हैं, वे ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन के 15% हिस्से के लिए ही जिम्मेदार हैं। जाहिर है कि असमानता और अन्याय को दूर किया जाना चाहिए। एक अन्य तथ्य है कि हमें यह भी जानना चाहिए कि मौजूदा और योजना के दौर से गुजर रहा जीवाश्म ईंधन इंफ्रास्ट्रक्चर 850 बिलियन टन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करेगा और 1.5 डिग्री सेल्सियस कार्बन बजट में सिर्फ 510 बिलियन टन के भार को ही वहन किया जा सकता है।’’

उल्‍का ने कहा, ‘‘जहां तक जेईटीपी का सवाल है तो मेरा मानना है कि दक्षिण अफ्रीका, वियतनामख्‍ इंडोनेशिया और भारत के बीच संदर्भों का व्यापक अंतर है न केवल क्षेत्रों की क्षमता के आधार पर बल्कि विकल्पों की उपलब्धता के मामले में भी। मेरा मानना है कि इसीलिए

जेईटीपी को लेकर बहुत कम उत्साह है क्योंकि यह बहुत थोड़ा समाधान ही उपलब्ध कराता है।

आर आर रश्मि ने जेईटीपी को लेकर उठ रहे बुनियादी सवालों का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘जब हम ऊर्जा ट्रांज़िशन को एक वैश्विक समस्या या घरेलू समस्या के तौर पर देखते हैं तो इनके दो बिल्कुल अलग-अलग आयाम नजर आते हैं। घरेलू स्तर पर ऊर्जा ट्रांज़िशन से जुड़े मसले वैश्विक स्तर के मुकाबले बिल्कुल जुदा हैं। अगर हमें प्रदूषणमुक्‍त विकास की प्रक्रिया को सहयोग करना है तो उसका स्वरूप अलग होगा। जेईटीपी में इन बातों को बिल्कुल नजरअंदाज किया गया है। इसलिए नीति निर्धारक लोग यह बुनियादी सवाल उठा रहे हैं कि आखिर जीईटीपी के रूप में आ रहा यह एनर्जी ट्रांजीशन फाइनेंस किस तरह से अंतर्राष्ट्रीय कैपिटल मार्केट और इंटरनेशनल फाइनेंशियल सिस्टम में उपलब्ध व्यवस्था से अलग है।’’

उन्‍होंने कहा ‘‘बहुपक्षीय वित्‍तीय प्रणाली पहले से ही भारत को कर्ज दे रहा है। एक सवाल यह भी है कि जेईटीपी ऊर्जा ट्रांज़िशन के न्याय संगत आयामों को भी कवर करेगा या नहीं। क्‍या यह सिर्फ कोयला आधारित ऊर्जा प्रणाली को ही देखेगा या फिर अक्षय ऊर्जा ट्रांज़िशन को भी सहयोग करेगा। ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका विस्तार से जवाब तलाशा जाना चाहिए।’’

रश्मि ने कहा, ‘‘हमें याद रखना होगा कि मौजूदा वर्ष न सिर्फ भारत की जी-20 की अध्यक्षता के लिए है बल्कि ग्लोबल स्टॉक टेक के लिए भी है। ग्लोबल स्टॉक टेक में हमने प्रदूषणकारी तत्‍वों के उत्‍सर्जन में कमी लाने के अवसरों और लक्ष्‍यों के बारे में काफी बात की है और हम उत्सर्जन न्यूनीकरण के लक्ष्यों से कई बार चूक चुके हैं। हमें इस बारे में बात करने की जरूरत है कि हम क्या कर सकते हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हम न्‍यूनीकरण के लक्ष्‍य को हासिल करने में फिर से नाकाम होने जा रहे हैं। हम वैश्विक तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के करीब हैं, बल्कि सच्चाई यह है कि हम उसे पार करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न जोखिम का सामना कर रही इस दुनिया में मौजूद इस चुनौती से दुनिया के विभिन्न देश किस तरह से निपटेंगे। हमारे पास अनुकूलन को लेकर एक वैश्विक लक्ष्य है। इस पर काम भी हो रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या हम आगामी सीओपी में इस पर कोई बड़ी कामयाबी हासिल कर लेंगे। दरअसल, यह सबसे बड़ा बुनियादी सवाल है।’’

– Climateकहानी