आगरा, (विवेक कुमार जैन)। जिस दिन हम यह स्वीकार कर लेंगे कि हमें जीवन में जो दुख सुख मिल रहा है वह मेरे स्वयं के कर्मों का परिणाम है और हमें इसे भोगना पड़ेगा।दशांग सूत्र के पहले अध्याय में कहा गया है की हमें जो सुख मिल रहा है , आनंद की अनुभूति हो रही है , मान और प्रतिष्ठा मिल रही है इसमें पूर्व जन्म के कर्म कार्य कर रहे है। कहते है पूर्व जन्म का फल भोगना ही पड़ता है। इसे भोगे बिना कोई उपाय नहीं है परंतु जब दु:ख आते है तो हम ऐसी शक्तियों को खोजने का प्रयास करते है, ऐसे किसी चमत्कार की उम्मीद करते है कि पूर्व जन्म के कर्म भुगतने न पड़े। यह उद्गार जैन मुनि डॉ. मणिभद्र ने महावीर भवन जैन स्थानक में अनुयायियों के सम्मुख रखें।
उन्होंने कहा कि हम लोग भगवान महावीर के अनुयाई होकर भी सांसारिक चमत्कार के पीछे लगना शुरू हो गए। लेकिन भगवान महावीर का मार्ग हमें सही मंजिल की और लेकर जायेगा। जैन.दर्शन की विशिष्ट मान्यता श्रमण विशेषण से होती है। इसका अभिप्राय यह है कि महावीर ने भगवान का पद श्रमणत्व के द्वारा, साधना के द्वारा प्राप्त किया, वे सनातन ईश्वर नहीं, साधनाजनित ईश्वर या भगवान् थे। जैनमुनि ने बताया कि कहने को तो जैन लोग भी कहते हैं, कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर का जन्म हुआ, किन्तु ऐसा कहना एक अपेक्षा.मात्र है। जैनदर्शन की गहराई में उतरें और तथ्य को खोजने चलें तो प्रतीत होगा, कि उस दिन केवल भौतिक रूप से महावीर का जन्म हुआ, महावीर का असली जन्म तो तब हुआ, जब महावीर को भगवान् दशा प्राप्त हुई, अर्थात् केवल दर्शन और केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। वह तिथि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी नहीं, वैशाख शुक्ला दशमी थी।
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महावीर स्वामी साधु बने और साधु बने तो भेष बदलने वाले साधु नहीं, जीवन बदलने वाले साधु बने। उन्होंने सोने के महलों को छोड़ा तो फिर पल भर के लिए भी उनकी ओर नहीं झाँका। वे संसार के सर्वोत्तम वैभव को ठुकरा कर आगे आए। तीस वर्ष तक का जीवन उन्होंने गृहस्थावस्था में बिताया, पर जब उसका त्याग किया, तो सर्वतोभावेन त्याग किया। उन्होंने अपने जीवन के लिए जो राह चुनी, उस पर अग्रसर होते ही चले गए, पल-पल आगे ही बढ़ते गए। वह अपने जीवन का विकास करने के लिए अपने विकारों और अपनी वासनाओं से लड़े और ऐसे लड़े कि उन्हें खदेड़ कर ही, दूर हटाकर ही दम लिया। उन्होंने जीवन की दुर्बलताओं को और बुराइयों को चुनौती दी और उन्हें पराजित भी किया। केवल ज्ञान और केवल दर्शन पाया और तब भगवान् का महान् पद भी प्राप्त किया। उन्हें भगवतेज की प्राप्ति हुई।
इससे पूर्व जैन मुनि पुनीत ने महामंत्र नवकार की व्याख्या करते हुए बताया की ऊध्र्व लोक, अधोलोक एवम मध्यलोक में नवकार मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। जिस प्रकार पारस पत्थर के छूने मात्र से लोहा सोने में बदल जाता है ऐसे ही नवकार महामंत्र जिसके हृदय में बस जाता है उसे भगवन स्वरूप बना देता है। आज की धर्म सभा में मेरठ एवम पूना से धर्म प्रेमी उपस्थित थे। धर्मसभा का संचालन राजेश सकलेचा ने किया।
इस अवसर पर आदेश बुरड़, सुरेंद्र चपलावत, अशोक जैन गुल्लू, सुरेंद्र सोनी, नरेश बरार, विवेक कुमार जैन,प्रदीप सुराना, राजकुमार सुराना , राजीव जैन, संजय जैन आदि लोग उपस्थित थे।
-up18news
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