RBI के पूर्व गवर्नर डी सुब्‍बाराव ने बताया, रेवड़ी कल्‍चर की समस्‍या का समाधान

अन्तर्द्वन्द

आरबीआई गवर्नर के अनुसार चुनाव आयोग कैंपेन के दौरान रेवड़ि‍यों के वादों पर कंट्रोल कर सकता है लेकिन सरकार को वह नहीं रोक सकता है। किस तरह की रेवड़ी दी जाए और कितना कैसे खर्च हो, उसे लेकर अर्थशास्त्रियों का मत साफ है। वे कहते हैं कि इसे इस आधार पर होना चाहिए कि उसका असर कितना है। यह सिद्धांतों में है लेकिन इसे अमल में ला पाना मुश्किल है।

क्‍या है बुनियादी दिक्‍कत?

सुब्‍बाराव ने इसकी वजह बताई है। उन्‍होंने बताया कि वेलफेयर स्‍कीम के इकनॉमिक इम्‍पैक्‍ट का मूल्‍यांकन कर पाना आसान नहीं है। अगर इसका मूल्‍यांकन कर भी लिया जाए तो जमीन पर कौन सी स्‍कीम ज्‍यादा प्रभावी होगी, इसकी रैंकिंग करना मुश्किल होगा। इसका उदाहरण ले सकते हैं। मसलन, स्‍कूल की बच्चियों को साइकिल बांटने का फैसला ओल्‍ड एज पेंशन (AOP) के मुकाबले ज्‍यादा प्रभावी होगा लेकिन ऐसा कौन राजनेता है जो एओपी को खारिज करने के तर्क को न्‍यायोचित ठहरा पाएगा।

आखिर क्‍या है समाधान?

रेवड़‍ियों से बचने के लिए सुब्‍बाराव ने एक दूसरा रास्‍ता भी बताया है। उनके अनुसार इसके लिए फिजूल के ट्रांसफर को परिभाषित करना होगा। इनमें रेवड़ी के तौर पर किसी वस्‍तु या सेवा को देना शामिल है। इस परिभाषा के तहत मनरेगा मजदूरी रेवड़ी नहीं होगी लेकिन टॉयलेट के लिए सब्सिडी, किसानों का कर्ज माफी या रियायती बस टिकट रेवड़ी मानी जाएगी।

केंद्र और राज्‍यों के लिए एफआरबीएम एक्‍ट में लिखा होना चाहिए कि वे ऐसी रेवड़‍ियों पर कितना खर्च कर सकते हैं। इसे सरकार के रेवेन्‍यू या जीडीपी/जीएसडीपी के प्रतिशत के अनुसार रखा जा सकता है। राजनेताओं के बीच प्रतिस्‍पर्धा होनी चाहिए कि कौन कितने सलीके से सीमित रकम को खर्च कर पाता है। इसमें बिना मेरिट वाली कुछ सब्‍स‍िडी भी आएंगी। लेकिन, उनके बारे में तब नहीं सोचना चाहिए।

सुब्‍बाराव कहते हैं कि लोकतंत्र में गैर-जिम्‍मेदाराना खर्च को चेक करने का जिम्‍मा लोगों का है लेकिन गरीब समाज में रेवड़ियो के लिए लोगों का वोट करना तर्कसंगत लगता है। इस समाज में नेताओं की साख बहुत नीची होती है। कम से कम इतना तो जरूर किया जा सकता है कि सभी राजनीतिक दलों के भीतर एक आदर्श आचार संहिता की शुरुआत की जाए।

–Compiled by up18news