मोदी सरकार के कुशासन के आठ साल, देश हुआ बेहाल, बदहाल-कंगाल

Cover Story अन्तर्द्वन्द

आर्थिकमंदी, बेरोजगारी,शिक्षा स्वास्थ्य व नीतिगत मसले पर हवा-हवाई हुई सरकार

“नरेंद्र मोदी ने भारत की कैबिनेट व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है, सारी शक्तियां सचिवों के माध्यम से पीएमओ में केंद्रित हो गई हैं। भारत में कैबिनेट का मतलब सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी हो गया है। अन्य मंत्री, मंत्री बने रहने के लिए मोदी की हां में हां मिलाने के लिए बाध्य हैं और स्थिति चाटुकारिता तक पहुंच गई है कैबिनेट मंत्री मकलुआ टाइप के हो गए है”

अमित मौर्या
अमित मौर्या

नई दिल्ली/वाराणसी : भाजपा की नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के अब 8 साल का कार्यकाल पूर्ण हो रहा है । नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार में भारत की कैबिनेट व्यवस्था को माना जाय तो एकतरह से पूरी तरह ध्वस्त कर दिया गया है, केंद्र की सभी शक्तियां सचिवों के माध्यम से पीएमओ में केंद्रित हो गई हैं। भारत में कैबिनेट एवं केंद्र सरकार का मतलब सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी हो गया है। केंद्र के अन्य मंत्री, अपनी गरिमा को बरकरार रखने के लिए मात्र मंत्री बने रहने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हर,गलत-सही निर्णय में हां में हां मिलाने के लिए बाध्य हैं । अब तो स्थिति यहाँ तक पहुंच चुकी है कि प्रधानमंत्री मोदी को भाजपा प्रवक्ता ईश्वरीय अवतार में ढूढ़ रहे है ,यही कारण है कि भारतीय मीडिया के सवालों के जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी कभी भी प्रेस कांफ्रेंस का हिस्सा नही बनना चाहते ,इसके बावजूद मीडिया सुबह से लेकर देर रात्रि तक चाटुकारिता के महिमामंडन का कोई अवसर नही छोड़ना चाहता है ।

30 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाले शासन काल के 8 वर्ष पूरे हो गए, भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का फरमान आ गया है कि भाजपा शाषित मुख्यमंत्री , सांसद ,विधायक , पार्टी पदाधिकारी व कार्यकर्ता 8 साल की उपलब्धियां जनता को बताए एवं लोकसभा चुनाव 2024 का रोडमैप तैयार करे ,लेकिन धरातल पर ऐसा कोई भी काम ऐसा नही हुआ है जिसका लाभ प्रत्यक्ष रूप से आम जनता को मिल सके ।

मोदी सरकार के 8 साल एवं उपलब्धि का आकलन :

गरीबी-

मोदी सरकार के इन 8 सालों के कार्यकालों के बीच भारत की 23 करोड़ से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जा चुकी है ।इससे पूर्व इन लोगों की गणना गरीबी रेखा से ऊपर मानी जाती थी ।

गरीबी रेखा का पैमाना 375 रुपए प्रतिदिन की आय है। (स्रोत-अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, मई 2021)

आकड़ो के खेल में छुपा सच :

वर्ष 2014 से लोकसभा चुनाव के बाद से गठित इस भाजपा सरकार में आकड़ो की गजब की बाजीगरी खेली गई , जिसे ढूढ़ पाना सामान्य लोगों की बात नही है,डिजिटल भारत का नारा बुलंद करने वाली सरकार की बेवसाइट से वास्तविक आकड़ो का डाटा ही अब गायब है ,अब हालात तो यहाँ तक आ चुके है पूर्व की केंद्र सरकार की 2005 से 2015 के बीच की उस उपलब्धि को ही सीधे पलट दिया गया है, इसके अनुसार भारत मे कुल 27 करोड़ से अधिक लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए थे। यानि भारत गरीबों की संख्या और अनुपात के मामले में करीब वहां पहुंच गया, जहां 2005 से पहले खड़ा था।

भारत के 90 प्रतिशत परिवारों की आय में गिरावट आई।

आर्थिक मोर्चे पर विफल सरकार :

नेशनल स्टैटिक्स सर्वे ( NSO) 2021 के मुताबिक देश में आर्थिक विकास दर का जो अनुमान सरकार अब तक लेकर चल रही थी ,उस लक्ष्य से अभी तक किसी भी वर्ष अपनी पूर्णता हासिल नही कर पाई । एक आंकड़े के मुताबिक़ विगत वर्षों में विकास का दर 2019-2020 में सिर्फ 4 प्रतिशत रही है। कोरोना महामारी के दौरान वर्ष 2020-21 में यह 8 प्रतिशत तक गिर गई।

2021-22 में वास्तविक अर्थों में इसके आंकड़े अभी तक पूरी तरह स्पष्ट नही पाए है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार जानबूझकर ऐसा कर रही है ।

यदि देश के सकल घरेलू उत्पाद के आकड़ो की बात करें तो इसके गिरावट के आधार पर इसका मूल्य राष्ट्रीय आर्थिक क्षति के रूप में वर्ष 2019-20 में 2.8 लाख करोड़ रुपये की क्षति हुई ( यह महामारी का समय नहीं था), 2020-21 में 11 लाख करोड़ रुपये की क्षति हुई ( महामारी काल) और 2021-2022 में विकास दर यदि 5 प्रतिशत भी रहे, यह मान लें, तो भी, तब भी अर्थव्यव्यवस्था को 6.7 लाख करोड़ रुपये की क्षति होगी। यदि सिर्फ पिछले तीन वर्षों की क्षति को ही जोड़ दें, तो कुल राष्ट्रीय आर्थिक क्षति 20 लाख करोड़ रुपये की होती है।

यह धनराशि भारत के कुल बजट ( 2021-2022) का करीब दो तिहाई है। भारत का 2021-2022 का कुल बजट 34 लाख 50 हजार और 305 करोड़ रुपये का था। हालांकि इन आकड़ो की क्षति पूर्ति के लिए भारत सरकार देश के संसाधनों का तेजी से निजीकरण करने पर जोर दे रही ताकि इन परिसंपत्तियों को बेचकर राजस्व घाटे की पूर्ति की जा सके । हाल ही में देश के शीर्ष सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की नीलामी इसके पुख्ता प्रमाण है ।

देश मे बेरोजगारी चरम पर –

देश मे यह बात अब जगजाहिर हो चुकी है कि भारत की बेरोजगारी ने 46 वर्षों के रिकार्ड को भी तोड़ दिया। सीएमआई के 26 मई 2021 की अपनी रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी की दर 11.17 प्रतिशत है। शहरों में 13.52 प्रतिशत और गांवों में 10.12 प्रतिशत। बेरोजगारी की यह दर तब है, जब 40 प्रतिशत से अधिक रोजगार की उम्र वाले लोग रोजगार की तलाश छोड़ चुके हैं। इसका मतलब है कि इस आंकड़े में उनकी गणना नहीं की गई है, जो करीब 60 प्रतिशत लोग रोजगार खोज रहे हैं, सिर्फ उनकी बेरोजगारी की बात की जा रही है। बैंकों का विलयीकरण एवं अन्य आर्थिक एजेंसियों में छंटनी तथा मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था इस बात को प्रमाणित करती है कि केंद्र सरकार के पास ऐसी कोई योजना नही बची है ,जिससे देश के बेरोजगार नौजवानों को रोजगार का अवसर प्रदान हो सके । सरकार अब इस समस्या से बचने के लिए तरह-तरह के मुद्दे गढ़ रही है ,ताकि नौजवानों के मन में सरकार की कमियों के प्रति कोई शंका न उत्पन्न हो सके ।

बीमार है स्वास्थ्य व्यवस्था :

2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में घोषित नरेंद्र मोदी ने गुजरात मॉडल का पूरे देश मे हवाला दिया कि देश मे खुशहाली और समृद्धि का एकमात्र विकल्प भाजपा सरकार ही है ,लेकिन भारत के अन्य प्रांतों में गिरती-बिलखती स्वास्थ्य व्यवस्था खुद बीमारी की शिकार हो गई है, जहाँ-जहाँ नए मेडिकल कालेज के नाम पर बिल्डिंग बनी हुई है ,वहाँ-वहाँ चिकित्सा सुविधाओं का भरपूर टोटा लगा हुआ है । नीट के जरिये एम बी बी एस में दाखिले की सीटें कम कर दी गई है ,इसके अलावा कई प्रांतों में आलम यह है कि मरीजों एवं मृतकों को एम्बुलेंस तक नसीब नही हो रही है । हाल ही में कई राज्यो में ठेले या बांस के बने चारपाई के सहारे मरीजों को अस्पताल ले जाने से पूर्व दम तोड़ने की खबर ने देश के कई हिस्सों में आम नागरिकों को हिला दिया था । लोकसभा में एक प्रश्न के दौरान कोरोना के दौरान चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्था एवं मृतको के आंकड़े तक देने में सरकार बगले झांकने लगी थी ।

चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी उठे सवाल …

भारत में लोकतंत्र का आधार चुनाव प्रणाली है ,जिसे निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न कराने का दायित्व केंद्रीय एवं राज्य स्तरीय चुनाव आयोग का है । चुनाव आयोग अपनी विश्वसनीय ,निष्पक्ष तथा पारदर्शी तरीक़े से चुनाव कराने के लिए प्रतिबद्ध है।

लेकिन भारत मे यह पहली बार महसूस हुआ कि अब भारत में चुनाव आयोग भारतीय जनता पार्टी ( जिसका मतलब मोदी जी होता है) के हाथ सिर्फ एक उपकरण बनकर रह गया है,पिछले लोकसभा एवं कई प्रांतों के विधानसभा चुनाव में विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव आयोग की पारदर्शिता एवं निष्पक्षता पर सवाल खड़े हुए ,लेकिन चुनाव आयोग के छिट-पुट कार्रवाइयों के बीच चुनाव आयोग, जनता में अपना भरोसा बनाने में नाकाम रहा है । वह ऐसी स्थिति में आकर खड़ा हो गया जैसे वह भाजपा की विस्तारित इकाई बन चुका है ।

केंद्रीय जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर भी खड़े हुए सवाल :

देश की सभी शीर्ष केंद्रीय जांच एजेंसियां ( सीबीआई, ईडी, एनआईए, आईटी, आईबी आदि) भी अपनी निष्पक्षता खोकर केंद्र सरकार की एक तरह गुलाम बन गई हैं। न्याय प्रणाली में इन एजेंसियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है ,समय-समय पर न्यायालयों द्वारा भी इन एजेंसियों के काम-काज के तरीके पर सवाल खड़ा किया गया ।लेकिन अपनी स्वायत्तता की आड़ में ये एजेंसियां सुधरने का नाम नही ले रही है । एक तरह से तो लग रहा है कि इनके लिए जनता से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता की चाटुकारिता है ।

तो सर्वोच्च न्यायालय भी केंद्र के दबाव में है ?

देश की शीर्ष अदालत संविधान और कानून के राज को स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है, वह संरक्षक के तौर पर अपनी संवैधानिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता को आधार पर अपने निर्णय देने के लिए प्रतिबद्ध होती है ।लेकिन विगत कई वर्षों से शीर्ष अदालत ने कई ऐसे फैसले दिए ,जिसमे जनता की अपेक्षा सरकार का हित हो ,राफेल, सी ए ए, बाबरी जैसे फैसले देने वाले जजों को सरकार ने अवकाश प्रप्ति के बाद भी कई महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर आसीन करके अपने ऊपर इस उपकार का इनाम स्वरूप आभार व्यक्त किया ।

पिछला आठ वर्ष और मोदी की कार्यप्रणाली :

संघीय ढांचे का खात्मा के करीब पहुंची व्यवस्था :

भारत की संघीय प्रणाली भारतीय लोकतंत्र का एक अनिवार्य स्तंभ है, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछले आठ वर्षों में राजनीतिक, आर्थिक ,सामाजिक,शैक्षणिक तौर पर संघीय व्यवस्था को लगभग ध्वस्त कर दिया गया है। जीएसटी प्रणाली लागू होने के बाद तो राज्य आर्थिक मामलों में केंद्र पर आश्रित हो गए हैं। विपक्षी पार्टियों के नेतृत्व वाली सरकार, केंद्र शासित राज्य के नेता और नौकरशाह द्वारा केंद्रीय एजेंसियों के सहारे हमेशा रडार पर रखे जाते हैं। केंद्रीय जांच एजेंसियां हर समय उन्हें धर-दबोचने के लिए तत्पर रहती हैं,कही-कही तो विपक्षी पार्टियों की सरकारों को अस्थिर करने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है । जैसा कि पिछले साल ही पश्चिम बंगाल के घटनाक्रम में सीबीआई की गतिविधियों को आप देख सकते है।

सामाजिक क्षेत्र में विभाजन :

सामंतवाद में इजाफा –

देश मे ऐसा माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में व्यवहारिक तौर पर देश मे हिंदूवादी व्यवस्था लागू हो चुका है जो संविधान के विपरीत की धारा है, हिंदुत्व में , वर्ण-जाति, श्रेणी के क्रम एवं महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व को स्वीकृति प्रदान की कई है जो सामंतवाद एवं पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है ।

आज़ादी के बाद वर्ण-जाति व्यवस्था की सबसे मुखर पैरोकार शीर्ष स्तर की जातियां धीरे-धीरे यह स्वीकार कर रही थीं कि उन्हें पिछड़ों ( शूद्रों) दलितों ( अतिशूद्रों) की बराबरी की आकांक्षा को स्वीकार करना ही पड़ेगा और धीरे-धीरे ही सही सामाजिक संबंधों के निर्वाह में वर्चस्व की स्थिति को छोड़कर धीरे-धीरे पीछे हटना होगा। पिछड़े-दलितों की मजबूत दावेदारी ने भी इसमें अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन नरेंद्र मोदी के पिछले आठ वर्षों के कार्य-काल में शीर्ष जातियों में वंचित समाज के प्रति आक्रामकता में इजाफा हुआ है , और वह नए सिरे से एक हद तक अपना खोया हुआ सामन्तवादी साम्राज्य वापस लेना चाह रहा है, हिंदू धर्मग्रंथों में ( मनुस्मृति) आधारित वर्ण-जाति व्यवस्था के श्रेणीक्रम को बनाए रखना और दलितों-पिछड़ों को मिले अधिकारों ( विशेषकर आरक्षण) को उनसे येन-केन तरीके से छीन लेना और उन्हें अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देना मोदी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल है ।

मनुवादी विचारों के आगे संविधान को गौड़ करने का प्रयास …

भारत में आजादी के बाद से ही धीरे-धीरे ही सही महिलाएं, संवैधानिक अधिकारों के सहारे पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देकर, समानता हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही थीं और समाज के एक हिस्से ने यह समानता हासिल भी किया। हिंदू राष्ट्र महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व को जायज ठहराता है,ताकि पितृसत्तात्मक अवधारणा लागू रहे । प्रधानमंत्री मोदी के पिछले आठ सालों में लव जेहाद आदि रोकने के नाम पर महिलाओं की स्वतंत्रता और समता की चाह को सीमित करने की तमाम कोशिशें हुई हैं , इसके अलावा हिंसात्मक तरीके से इनके दमन का हरसंभव प्रयास भी किया गया है । ऐसा कई जगहों पर देखने को मिला कि महिलाओं पर अपने वर्चस्व के संदर्भ में पुरुष पहले की अपेक्षा अधिक आक्रामक हुए ।

सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के विरोध में भाजपा का रुख एवं उत्तर वैदिक काल की व्यवस्था को लागू करने के प्रयास जैसे कई ऐसे तमाम उदाहरण भी इस संदर्भ में प्रासंगिक रहे और देखने को मिले ।

धार्मिक उन्माद के जरिये हिंसा :

पिछले आठ वर्षों के शासन काल में नरेंद्र मोदी ने धार्मिक स्वतंत्रता, सौहार्द और सहिष्णुता के सारे ताने-बाने को तोड़ दिया है। इनकी ही पार्टी के प्रवक्ताओं ने मजहब के नाम पर एकतरफ मुसलमानों को आतंकी एवं राष्ट्रद्रोही और ईसाईयों को धर्मान्तरणकर्ता घोषित किया तो दूसरी तरफ सिक्खों को खालिस्तानी कहने से भी नही चुके । समता की भावना को कायम करने की अपेक्षा हिंदुओं और मुसलमानों के मध्य इस कदर नफरत भर दी गई है । उदाहरण स्वरूप आप देख सकते है कि फिलिस्तीन में एक बच्चा-बूढ़ा या जवान ( मुसलमान) मारा जाता है, तो भारत के हिंदुओं का एक हिस्सा खुशी से झूम उठता है और आराम से सोशल मीडिया पर अपनी खुशी को जाहिर करता है। धर्म के आधार पर मॉब लिंचिंग, दंगे और नरसंहारों की चर्चा तो बहुत हो चुकी है।

विदेशनीति भी हुई विफल :

प्रधानमंत्री के दावे के विपरीत वैदेशिक मामलों में भी भारत अपनी रही-सही हैसियत भी अब गंवा चुका है, ले-देकर उसके पास चीन और पाकिस्तान विरोध के नाम पर अमेरिका और उसके सहयोगियों का पिट्ठू बनने का विकल्प बचा हुआ है। पड़ोसी देशों में कोई पक्का साथी नहीं रह गया है,अब तो देखने को यह भी मिल रहा है कि चीन की आसपास के पड़ोसी मुल्कों के बीच मजबूत उपस्थिति हो चुकी है और करीब सभी पड़ोसी विभिन्न कारणों से भारत से खफा हैं। चीनी सीमा पर क्या हुआ और हो रहा है और केंद्र सरकार की कूटनीति जगजाहिर है। देश के अंदर ही विपक्ष के सवालों का जवाब न देने के कारण सरकार की चारों-तरफ थू-थू हो रही है।

पिछले आठ सालों में मोदी ने देश को करीब हर मोर्चे पर गर्त में धकेल दिया है,इसके कई तथ्य इसको प्रमाणित करते हैं। अभी मोदी कितने गर्त में देश को ले जाएंगे, यह सोचकर ही विपक्ष को कंपकपी आ जाती है। साम्प्रदायिक विद्वेष की भावना के बुनियाद पर खड़ी संघ और भाजपा की राजनीति देश की कितनी दुर्गति करेंगे यह तो अब आने वाला समय ही बता पाएगा ।

वादे है वादों का क्या ?

देश में 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान हुए चुनावी वादों में बुलेट ट्रेन,2 करोड़ युवाओं की नौकरियां, गंगा का निर्मलीकरण, स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम, कालाधन वापसी ,अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद की वापसी, किसानों की आय में वृद्धि, एम एस एम ई और मुद्रा बैंक के अंर्तगत लोन देकर व्यवसाय का विस्तार , कुटीर उद्योग को बढ़ावा और निर्यात,महंगाई जैसे अनगिनत मसले शामिल रहे ,लेकिन इनमें से किसी भी वादे पर अब तक सरकार खरी नही उतरी बल्कि इसके विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र को निजीकरण के अंतर्गत निजी कंपनियों को बेंच देना,नोटबन्दी,पेट्रोलियम व गैस सिलेंडर के कीमतों में इज़ाफ़ा, मानव संसाधन पर निजी कंपनियों का नियंत्रण, सार्वजनिक व निजी क्षेत्र में नौकरियों में कटौती जैसे मसले को लागू करने के बाद ,उपजे सवालों से बचने के लिए देश मे साम्प्रदायिक मुद्दों को मजबूत करने का प्रयास कर रही है ।

साभार- अचूक संघर्ष समाचार पत्र