चिरकुट शब्द की रचना संस्कृत भाषा के दो शब्दों, चिर (कहीं-कहीं इसे चीर भी माना गया है) तथा कूट के मेल से हुई है। इसका अर्थ फटा-पुराना कपडा, चिथड़ा अथवा गुदड़ है।
जायसी ने इस शब्द का प्रयोग इस प्रकार किया है :
काढ़हु कंथा चिरकुट लावा ।
पहिरहु राते दगल सुहावा ।
— जायसी
चिर — (चि + बाहुलकात् रक् ।) लम्बा समय, पुराना, स्थाई। यह विष्णु तथा शिव के नामों में भी है। लम्बे समय जीने वाले हनुमान, अश्वत्थामा आदि भी चिर कहलाते हैं।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः । कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥
चीर — (चिनोति आवृणोति वृक्षं कटिदेशा- दिकं वा । चि + “शुसिचिमीनां दीर्घश्च ।” उणां । २ । २५ । इति क्रन् दीर्घश्च ।) वस्त्र, कपड़ा, फटा हुआ वस्त्र, छाल, एक प्रकार का लेखन आदि। यथा:
क्षौमं दुकूलमजिनं चीरं वल्कलमेव वा ।
वसेऽन्यदपि सम्प्राप्तं दिष्टभुक्तुष्टधीरहम् ॥
— शतपथ ब्राह्मण ७.१३.३९ ॥
(भावार्थ :—
अपने शरीर को ढंकने के लिए, मैं जो कुछ भी उपलब्ध है, उसका उपयोग करता हूं, चाहे वह मेरे भाग्य के अनुसार सन, रेशम, कपास, कौपीन या मृगछाला हो, और मैं पूरी तरह से संतुष्ट और अविकल हूँ।)
कुट — (कुट इ वैकल्ये । इति कविकल्पद्रुमः ॥ ) इसका अर्थ है कटना, फटना, तुड़-मुड़ा, गतिहीन होना, छल करना, धूर्तता करना, बेईमानी करना आदि। (इस अर्थ में कभी-कभी दीर्घ मात्रा भी प्रयुक्त है)।
स्त्रीबालवृद्धकितव मत्तोन्मत्ताभिशस्तकाः ।
रङ्गावतारिपाखण्डि कूटकृद्विकलेन्द्रियाः ॥
— याज्ञवल्क्यस्मृतिः व्यवहाराध्यायः साक्षिप्रकरणम् २.७० ॥
इससे बना चिरकुट, जो है फटा-पुराना। किसी व्यक्ति को यह उपमा दी जाए तो अर्थ यही कि उसका व्यक्तिगत चिथड़ों की तरह बिखरा हुआ है। इसी चिरकुट को गुलजार ने चिरंजीव कर दिया, अंगूर में संजीव कुमार के मुख से कहला कर “अगर मेरा नाम चिरकुट कुमार होता तब भी? “
– अरविन्द व्यास