लोकतंत्र से चुनकर आकर लोकतंत्र को सीमित करने की कोशिश: न्यायपालिका निशाने पर क्यों..

प्रतिक्रियावाद का यह पुराना तरीका है। करो खुद आरोप दूसरे पर लगा दो। प्रतिक्रियावाद दक्षिणपंथ पाखंड पर ही चलता है। मूल उद्देश्य होता है लोगों को बेवकूफ बनाकर अपना काम निकालाना। इसके लिए वे कुछ भी कह सकते हैं। किसी पर भी कोई भी आरोप लगा सकते हैं। ताजा उदाहरण है निशिकांत दुबे का। न्यायपालिका […]

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प्राइवेट स्कूल का मास्टर: सम्मान से दूर, सिस्टम का मज़दूर

प्राइवेट स्कूलों में शिक्षकों से उम्मीदें तो आसमान छूती हैं, लेकिन उन्हें न तो उचित वेतन मिलता है, न सम्मान, न छुट्टी और न ही सुरक्षा। महिला शिक्षक दोहरी ज़िम्मेदारियाँ उठाती हैं, वहीं शिक्षक दिवस के दिन सिर्फ प्रतीकात्मक सम्मान मिलता है जबकि सालभर उनका शोषण जारी रहता है। अभिभावक, स्कूल प्रबंधन और सरकार तीनों […]

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“डिग्री से दक्षता तक: शिक्षा प्रणाली को उद्योग से जोड़ने की चुनौती”

“क्लासरूम से कॉर्पोरेट तक: उच्च शिक्षा और उद्योग के बीच की दूरी” “डिग्री नहीं, दक्षता चाहिए: नई अर्थव्यवस्था की नई ज़रूरतें” “कुशल भारत की कुंजी: उद्योग अनुरूप विश्वविद्यालय शिक्षा” वर्तमान में, उच्च शिक्षा प्रणाली उद्योग की तेजी से बदलती आवश्यकताओं से मेल नहीं खाती, जिसके परिणामस्वरूप अधिकांश स्नातक रोजगार के लिए अपर्याप्त होते हैं। रिपोर्ट्स […]

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रंगमंच पर जाति का खेल: मनोरंजन के नाम पर मानसिकता का निर्माण कितना जायज़?

कला का काम समाज को जागरूक करना है, उसकी विविधताओं को सम्मान देना है, और उस आईने की तरह बनना है जिसमें हर वर्ग खुद को देख सके। लेकिन जब कला सिर्फ कुछ खास वर्गों या समूहों की महिमा गाने लगे, और बाकी समाज की पीड़ा, संघर्ष और उपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर दे, तो वह […]

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डॉ. भीमराव अंबेडकर और आज: विचारों का आईना या प्रतीकों का प्रदर्शन?

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत को एक समतामूलक, न्यायप्रिय और जातिविहीन समाज का सपना दिखाया था। उन्होंने संविधान बनाया, शिक्षा और सामाजिक न्याय को हथियार बनाया, और जाति व्यवस्था का खुला विरोध किया। आज उनका नाम हर मंच पर लिया जाता है, लेकिन उनके विचारों को गंभीरता से अपनाया नहीं जाता। आरक्षण को राजनीतिक हथियार […]

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किसी सिरफिरे द्वारा दिया गए दुर्भाग्यपूर्ण बयान से राणा सांगा की वीरता कम नहीं होगी: पूरन डावर

देश की राजनीति आजकल नकारात्मक मुद्दों पर केंद्रित होती जा रही है। लगभग सभी दलों के नेताओं के ऐसे बयान सामने आते हैं, जिनसे अनावश्यक विवाद खड़ा हो जाता है और राजनीति गरमा जाती है। राणा सांगा जैसे ऐतिहासिक और वीर पुरुष पर किसी सिरफिरे द्वारा दिया गया दुर्भाग्यपूर्ण बयान उनकी महानता या वीरता को […]

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अंबेडकर जयंती विशेष: लोकतंत्र केवल अधिकारों का मंच नहीं, बल्कि नागरिकों के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का साझेधार भी

लोकतंत्र केवल अधिकारों का मंच नहीं, बल्कि नागरिकों के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का साझेधार भी है। भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में नागरिकों की भूमिका केवल वोट देने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। उन्हें न्याय, समानता, संवाद, स्वच्छता, कर भुगतान, और संस्थाओं के प्रति सम्मान जैसे क्षेत्रों में भी सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। […]

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सरकारी स्कूलों को बन्द करने की बजाय उनका रुतबा बढ़ाये

भारत में सरकारी स्कूल सामाजिक समानता और शिक्षा के अधिकार के प्रतीक हैं, लेकिन बजट कटौती, ढांचागत कमी और शिक्षकों की अनुपलब्धता ने इनकी साख गिराई है। हरियाणा इसका ताजा उदाहरण है, जहाँ 2022 में 292 स्कूल बंद हुए, और 2024 में 800 और स्कूलों को बंद करने की योजना है। सरकारें नामांकन की कमी […]

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“जनता का धन, निजी लाभ: खिलाड़ियों के इनाम पर सवाल”

परिणाम चाहे जो भी हो, ईनाम देना जरूरी। पदक नहीं मिला, पर ईनाम मिल गया — क्या यह नैतिकता है? चार करोड़ रुपये — एक बड़ी राशि है। यह पैसा किसी व्यक्तिगत कोष से नहीं आया, बल्कि यह जनता के खून-पसीने की कमाई है। क्या कोई भी सरकार अपनी मर्ज़ी से यह तय कर सकती […]

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कलम से खींची गई नई सरहदें: स्याही की सादगी… प्रियंका सौरभ की चुपचाप क्रांतिकारी कहानी

हर युग में कुछ आवाज़ें होती हैं जो चीखती नहीं, बस लिखती हैं — और फिर भी गूंजती हैं। ये आवाज़ें न नारे लगाती हैं, न मंचों पर दिखाई देती हैं, लेकिन उनके शब्द पिघलते लोहे की तरह समाज के ज़मीर को गढ़ते हैं। प्रियंका सौरभ ऐसी ही एक आवाज़ हैं — जो लेखनी की […]

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