चुनावी महाभारत की व्यूह रचना में अखिलेश, ‘अर्जुन’ बनेंगे या ‘अभिमन्यू’

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भाजपा के धुरन्धर चुनाव प्रचारकों का अकेले मुकाबला कर रहे सपा मुखिया अखिलेश यादव

राजतंत्र हो या लोकतंत्र। सत्ता पाने की जंग सदियों से चलती आ रही है। राजतंत्र के काल में दूसरे राज्यों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये दो राजाओं के बीच लड़ाईयां होती रहती थी। किन्तु सत्ता हासिल करने के लिये जब भी किसी लड़ाई का जिक्र होता है तो उदाहरण महाभारत का ही दिया जाता है। क्योंकि इस लड़ाई में असंख्य राजाओं ने दोनों तरफ से भाग लिया था। महाभारत में ही जिक्र आता है चक्रव्यूह रचना की। चक्रव्यूह का सबसे बड़ा नियम होता है व्यूह की ऐसी रचना, जिसे भेदने की कोशिश करने वाला अंदर प्रवेश कर ही ना सके। अगर किसी तरह प्रवेश कर भी लिया तो जहां से वो आया है, वहां से वापसी के सारे रास्ते फ़ौरन बंद कर दिए जाएं, ताकि चक्रव्यूह भेदने वाले की घेराबंदी हो सके। कहा जाता है कि चक्रव्यूह को भेदने की कला सिर्फ अर्जुन के पास थी। अभिमन्यू सिर्फ चक्रव्यूह को तोड़कर अंदर जा सकता था किन्तु बाहर निकलने की कला उसने नहीं सीखी थी। वहीं चुनौती इस बार सपा मुखिया अखिलेश यादव के समक्ष है। भाजपा के बनाये चक्रव्यूह को भेदने के लिये वे आगे बढ़ चुके हैं। देखना यह होगा कि वे व्यूह रचना को तोड़कर सत्ता हासिल करके अर्जुन बनते हैं या फिर अभिमन्यू।

यूपी में चुनावी समर शुरू हो चुका है। इस बार मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही है। एक तरफ भाजपा के दिग्गजों की फोज है जो चक्रव्यूह रच चुकी है और दूसरी तरफ अकेले अखिलेश यादव ही नजर आ रहे हैं, क्योंकि जिन सियासी दलों से उनका गंठबंधन है उनके नेता उतने प्रभावशाली नहीं है जो पूरे युपी में अपनी पकड़ रखते हों। उनका असर कुछ क्षेत्रों और जातियों तक ही सीमित है।

चुनावी रणभेरी बज चुकी है और अखिलेश को सियासी व्यूह में बढ़ते जाना है। रास्ते में भारतीय जनता पार्टी समेत बाक़ी विरोधी दलों द्वारा रची गई हर बाधा को पार करते हुए सत्ता तक पहुंचना है, लेकिन, ये इतना आसान नहीं है, क्योंकि चक्रव्यूह को भेदने वाला तभी अर्जुन कहलाता है, जब वो व्यूह की रचना को तोड़ते हुए आगे बढ़ता और जीत का परचम लहराता है।

रथ से चक्रव्यूह भेदने के महारथी

उत्तरप्रदेश के चुनावी चक्रव्यूह में समाजवादी विजय यात्रा लेकर अखिलेश यादव 12 अक्टूबर 2021 को ही उतर गए थे। रथयात्रा में नोटबंदी को मोदी सरकार की विफलता बताने से लेकर योगी सरकार की बुलडोज़र नीति पर सवाल उठा रहे थे। लगातार भाजपा पर निशाना साध रहे थे। कभी पूर्वांचल एक्सप्रेसवे पर रथ के ज़रिए विजय का संकल्प दोहरा रहे थे तो कभी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ में गरज रहे थे।
अखिलेश के समाजवादी विजय रथ को घेरने के लिए बीजेपी ने रथयात्राओं का जो सियासी चक्रव्यूह रचा था। उसकी शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी ने जन आशीर्वाद यात्रा से की थी।

जुलाई 2021 में उत्तर प्रदेश के कोटे से अनुप्रिया पटेल समेत 7 लोगों को जब पीएम मोदी ने अपनी टीम में शामिल करते हुए मंत्री बनाया, तो उसके नेपथ्य में वो यात्रा थी, जिसके ज़रिए यूपी की जनता को ये संदेश देना था कि पिछड़ा वर्ग में शामिल हर बिरादरी को अहमियत दी गई है। इसके बाद जब अखिलेश की समाजवादी विजय यात्रा में भीड़ जुटने लगी, तो योगी सरकार पर विश्वास बनाए रखने की आस में बीजेपी ने जनविश्वास यात्रा निकाली।

अखिलेश की रथयात्रा में भारी भीड़ जुटने की चर्चा होने लगी तो बीजेपी ने दसों दिशाओं से जनविश्वास यात्रा का चक्रव्यूह रचा। अखिलेश के रथ के जवाब में बीजेपी ने दसों दिशाओं से अपने बड़े नेताओं, चेहरों और राजनीतिक रसूख वाले नेताओं को प्रचार में लगा दिया। कोशिश यह रही कि अखिलेश से पहले पहुंचकर यूपी के ज़िलों में जनता के बीच अपनी छाप छोड़ी जाए या अखिलेश की रथ यात्रा के बाद उन ज़िलों में पहुंचकर समाजवादी विजय यात्रा का असर कम किया जाए। किन्तु चुनाव की तिथि घोषित होते ही चुनाव आयोग ने रथयात्रा, रैली, जूलूस आदि भीड़ जुटाउ कार्यक्रमों पर रोक लगाकर सभी के सपनों पर लगाम लगा दिया।

भाजपा नेताओं की लंबी कतार के बीच अकेले अखिलेश

अखिलेश यादव जिस संकल्प के साथ अकेले चुनावी महाभारत में मुक़ाबला कर रहे हैं, वहां उनके सामने बीजेपी के बड़े नेताओं की लंबी कतार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चेहरा हैं, तो अमित शाह चुनावी चाणक्य, नड्डा मोर्चेबंदी में माहिर हैं तो योगी आदित्यनाथ हिंदुत्व के पोस्टर बॉय बनकर करारे प्रहार करने में नहीं चूकते। इसके अलावा यूपी के चुनाव प्रभारी केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, सह प्रभारी केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर समेत बड़े नेताओं की पूरी फौज है। सबके पास ये ज़िम्मेदारी है कि वे सरकार के प्रति जनता के विश्वास जीतने के लिये रणनीति के साथ जुटें और जनता के विश्वास को वोटों में तब्दील करने की कोशिश को अंजाम तक पहुंचाएं।

अखिलेश चुनावी महाभारत के चक्रव्यूह में ना सिर्फ़ प्रवेश कर लिये हैं, बल्कि वो काफ़ी दूर तक निकल चुके हैं। बीजेपी के महारथी हर दिशा में घूम-घूमकर उन्हें घेरने की कोशिश कर रहे हैं। अखिलेश के सामने चुनौतीपूण मुकाबला है क्योंकि उन्हें आगे बढ़ाने वाला एक भी सहयोगी सियासी क्षत्रप नहीं है। चाहे वो जयंत चौधरी हों या चाचा शिवपाल सिंह यादव। उनके पास जो सबसे बड़े छत्रप हैं, वो अब सिर्फ़ मार्गदर्शन कर सकते हैं, मार्ग पर चल नहीं सकते। इसलिए, ये कहा जा सकता है कि 2017 में 47 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है। अखिलेश को आगे ही बढ़ना है जबकि बीजेपी को उन्हें रोकने की चुनौती है।

इनकम टैक्स के छापों से भी व्यूह रचना?

उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा के व्यूह रचना में शामिल सरकारी एजेन्सियों पर भी उसी तरह आरोप लग रहा है जैसे पश्चिम बंगाल में 2021 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक समेत कई करीबियों पर और इनकम टैक्स के छापे पड़ने पर लगे थे। उस समय टीएमसी और ममता ने ये प्रचार किया कि बीजेपी चुनाव हार रही है, इसलिए सिर्फ़ मानसिक दबाव और चुनाव में टीएमसी नेताओं को डराने के लिहाज़ से केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है। उस समय उत्तर प्रदेश विधानसभा में समाजवादी पार्टी के नेता विरोधी दल रामगोविंद चौधरी ने बजट भाषण के अगले दिन कहा था- “2022 में यूपी में हम बंगाल दोहराएंगे”. उनका इशारा इस बात की ओर था कि जिस तरह बंगाल में बीजेपी के साथ ‘खेला’ हुआ, ठीक उसी तरह अब यूपी में ‘खदेड़ा’ होगा।

खेला और खदेड़ा की इस सियासी स्क्रिप्ट में बीजेपी ने अपना दांव चल दिया है। अब केंद्रीय एजेंसियों के छापों और जांच के भले ही सियासी मायने निकाले जा रहे हों, लेकिन जांच की आंच का चुनाव पर क्या असर होगा, ये देखना अभी बाक़ी है। जब तक कुछ बहुत ठोस और अखिलेश यादव के आसपास शिकंजा कसने लायक ना मिले, तब तक समाजवादी पार्टी के रथ पर तीर कमान लेकर बैठे अखिलेश को ख़ास दिक्क़त नहीं नज़र आ रही है. लेकिन, चुनाव के दौरान इनकम टैक्स विभाग के छापों से सियासी सरगर्मी जरूर बढ़ गयी है।

जिन्ना वाले ‘जिन्न’ के चक्रव्यूह को खामोशी से तोड़ा

उत्तरपद्रेश के हरदोई में अखिलेश यादव ने 31 अक्टूबर को जिन्ना, पटेल और नेहरू का नाम लेकर तीनों की राष्ट्रनिर्माण में जो भूमिका बताई थी, उस डेफिनिशन को बीजेपी ने ऐसा हथियार बनाया कि अखिलेश डिफेंसिव मोड में आ गए थे। क़रीब दो हफ़्तों तक मुख्यमंत्री योगी समेत बीजेपी के तमाम छोटे-बड़े नेताओं ने जिन्ना पर अखिलेश को घेरने की कोशिश की। कई मौक़ों पर अखिलेश यादव असहज भी हुए, लेकिन समाजवादी पार्टी के नेताओं ने इस विवाद पर ख़ामोशी ओढ़े रखी। लिहाज़ा जिन्ना वाला तीर जो अखिलेश की ज़ुबान से निकला था, वो फ़िज़ा में बहुत दिनों तक आक्रामक नहीं रह सका। दरअसल, अखिलेश ने ये तय कर लिया था कि वो और उनकी पार्टी इस मुद्दे पर अब और कोई डैमेज नहीं करेंगे। इसलिए तात्कालिक डैमेज कंट्रोल हो गया और भाजपा के इस चक्रव्यूह को अखिलेश की खामोशी ने तोड़ दिया।

धर्म का चक्रव्यूह

चुनाव के दौरान यूपी में विकास का मुद्दा गौड़ हो जाता है। भाजपा धर्म की राजनीति करके सत्ता में आयी है और इसे वह अपना अचूक हथियार भी मानती है। अयोध्या में राममंदिर और काशी में काशी विश्वनाथ कारिडोर के बाद मथुरा का धार्मिक मुद्दा भी भाजपा की व्यूह रचना का अंग बन चुका है। समाजवादी पार्टी ने जिस तरह टिकट बांटे हैं उसमें मुसलमानों को अधिक जगह दी गयी है। भाजपा का आईटी सेल इसे भी जमकर मुद्दा बना रहा है। भाजपा नेताओं द्वारा ‘अब्बाजान’ ‘जिन्नावादी’ जैसे शब्दों का प्रयोग भी उसी व्यूह रचना का अंग है। अखिलेश के लिये चक्रव्यूह की यह घेरेबंदी सबसे कठिन दिख रही है। देखना यह भी होगा कि व्यूह के इस द्वार को अखिलेश कैसे ध्वस्त करने में सफल होते हैं।

चुनावी चक्रव्यूह में जीत किसकी होगी?

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूपी के चुनाव में विकास अब शायद पीछे छूट गया है। चुनावी राजनीति अब उस एक्सप्रेस वे पर तेज़ रफ़्तार से बढ़ चुकी है, जहां एक दूसरे के ख़िलाफ़ स्पीड ब्रेकर बनाने की होड़ मची है। राजनीतिक रण वाले इस रास्ते पर ना तो स्पीड लिमिट है और ना ही नियम तोड़ने की कोई सीमा। यहां निजी हमलों से लेकर तमाम एजेंसियों की जांच तक और एक-दूसरे के खेमे से नेताओं को तोड़ने से लेकर सड़कों पर घेराबंदी तक, सबकुछ दांव पर है। बीजेपी के सामने चुनौती यह है कि वह अपने 325 सीटों के दुर्ग को किसी तरह बचा सके। बीजेपी को अभी भी उम्मीद है कि ओबीसी वोटबैंक एक बार फिर उस पर भरोसा करेगा, जिसके दम पर वो दोबारा सरकार बनाएगी।

वहीं, अखिलेश यादव ने ख़ुद को उस कसौटी पर रख दिया है, जहां उनके सामने 47 सीटों से बढ़कर 202 तक पहुंचने का लक्ष्य है। इस मुश्क़िल लक्ष्य को हासिल करना नामुमकिन बिल्कुल नहीं है, क्योंकि 2007 में 97 सीटों से 224 तक पहुंचने का करिश्मा समाजवादी पार्टी दोहरा चुकी है।

हालांकि, 2012 की लड़ाई मायावती को रोकने की थी, इस बार जंग बीजेपी से है। राजनीति की दुनिया में बीजेपी ने प्रधान से लेकर प्रधानमंत्री तक जितने भी चुनाव लड़े हैं, वो सब जीतने के लिए ही लड़े हैं। इसीलिये चुनावी महासमर में अपने सभी सेनानियों को भाजपा ने उतार दिया है। वहीं इनका मुकाबला करने के लिये अकेले अखिलेश यादव चुनावी मेहनत को अपने पक्ष में करके यूपी के राजनीति की महाभारत में अभिमन्यू नहीं अर्जुन बनने की दिशा में चल रहे हैं, लेकिन बीजेपी की व्यूह रचना ऐसी है कि वह उन्हें अभिमन्यु बनाकर घेरने में लगी है। अब देखना यह होगा कि इस चुनावी महाभारत में अखिलेश यादव अर्जुन बनते हैं या फिर अभिमन्यू।

– हरीश सिंह