आगरा: यह कैसी विश्वविद्यालय है, जहाँ ‘ए प्लस’ ग्रेड का तमगा लेकर भी छात्रों का भविष्य अंधकार में धकेला जा रहा है? डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा, जिसे ‘ए प्लस’ ग्रेड से नवाजा गया है, उसकी हकीकत कुछ और ही बयाँ करती है। यह सवाल उठता है कि जब एक छात्र को अपनी तीन साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी डिग्री के लिए 10 साल तक दर-दर भटकना पड़ता है, दर्जनों चक्कर काटने पड़ते हैं, तब इस ‘ए प्लस’ ग्रेड का क्या औचित्य? क्या यह सिर्फ कागजी खानापूर्ति है, या फिर भ्रष्टाचार और निकम्मेपन का खुला प्रदर्शन?
श्वेता मिश्रा, मैनपुरी की एक छात्रा, का दर्द इस पूरे सिस्टम पर एक करारा प्रहार है। 2010 में बीएससी की परीक्षा पास करने के बाद, उन्हें अपनी डिग्री के लिए 14 साल का इंतज़ार करना पड़ा। इस बीच उनकी नौकरी छूट गई, उनका वकालत का सपना अधूरा रह गया। यह सिर्फ एक श्वेता की कहानी नहीं है, बल्कि सैकड़ों ऐसे छात्रों की पीड़ा है, जो इस विश्वविद्यालय की अव्यवस्था और संवेदनहीनता का शिकार हैं।
कानपुर 8 दिन में, आगरा 14 साल में: क्या यही है ‘ए प्लस’ का पैमाना?
श्वेता ने 2022 में कानपुर विश्वविद्यालय और डॉ. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, दोनों में एक साथ ऑनलाइन डिग्री के लिए आवेदन किया। कानपुर विश्वविद्यालय ने 8 दिन में उनकी लॉ की डिग्री घर भेज दी, लेकिन आगरा विश्वविद्यालय की ‘ए प्लस’ वाली व्यवस्था में श्वेता को 25 चक्कर काटने पड़े, लिखित शिकायतें करनी पड़ीं, यहाँ तक कि कोर्ट से नोटिस भी भिजवाना पड़ा, फिर भी डिग्री नहीं मिली।
हेल्प डेस्क से लेकर अलग-अलग विभागों तक, श्वेता को सिर्फ टालमटोल और झूठे आश्वासन ही मिले। “डिग्री घर पहुँच जाएगी,” यह सुनकर श्वेता ने इंतज़ार किया, लेकिन डिग्री कभी नहीं आई। यह कैसी व्यवस्था है जहाँ एक सामान्य नागरिक को अपनी वैध डिग्री के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती है? क्या ‘ए प्लस’ ग्रेड सिर्फ इमारतों और दिखावे के लिए होता है, या फिर छात्र सेवा और पारदर्शिता के लिए भी कोई मापदंड होता है?
नौकरी छूटी, सपना टूटा: कौन है जिम्मेदार इस बर्बादी का?
श्वेता मिश्रा की आपबीती केवल डिग्री न मिलने तक सीमित नहीं है। डिग्री न होने के कारण उनकी एक महत्वपूर्ण नौकरी हाथ से निकल गई। एक ऐसे देश में जहाँ बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है, वहाँ विश्वविद्यालय की लापरवाही छात्रों के सपनों को कैसे कुचल रही है, यह सोचने वाली बात है। श्वेता के भाई-बहन भी इसी विश्वविद्यालय से संबद्ध कॉलेजों से पढ़े हैं और उन्हें भी आज तक अपनी डिग्रियाँ नहीं मिली हैं। यह दिखाता है कि यह कोई इक्का-दुक्का मामला नहीं, बल्कि एक व्यापक समस्या है जो इस विश्वविद्यालय की जड़ तक फैली हुई है।
मैनपुरी के उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग ने कुलपति पर 46 हजार रुपये का जुर्माना लगाकर श्वेता को न्याय दिलाने की कोशिश की है। यह जुर्माना मानसिक और शारीरिक कष्ट पहुँचाने के लिए कुलपति पर लगाया गया है। लेकिन क्या यह जुर्माना उन छात्रों के टूटे सपनों, उनके बर्बाद हुए समय, और उनके खोए हुए अवसरों की भरपाई कर सकता है?
क्या डिग्रियों पर कुंडली मार कर बैठना ही ‘ए प्लस’ की पहचान है?
यह बेहद गंभीर सवाल खड़े करता है कि अगर विश्वविद्यालय डिग्री जारी करने में इतना लंबा समय लगाएगा, तो उन युवाओं का क्या होगा जो समय पर डिग्री मिलने से नौकरी पा सकते थे, अपने करियर को आगे बढ़ा सकते थे? क्या यह विश्वविद्यालय छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहा है?
‘ए प्लस’ ग्रेड का क्या अर्थ है जब बुनियादी आवश्यकताओं के लिए छात्रों को सड़कों पर उतरना पड़े? क्या यह ग्रेडिंग सिस्टम सिर्फ एक दिखावा बनकर रह गया है, जो वास्तविक स्थिति से कोसों दूर है? यह समय है कि इस ‘ए प्लस’ ग्रेड की सार्थकता पर गंभीर सवाल उठाए जाएँ और विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली पर गहन जाँच की जाए।
आखिर, छात्रों का भविष्य किसी भी विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी धरोहर होता है, और जब वही खतरे में हो, तो फिर ऐसी ‘ए प्लस’ डिग्री का क्या फायदा? क्या यह विश्वविद्यालय अपने छात्रों के प्रति अपनी जवाबदेही को समझेगा, या फिर ऐसे ही ‘ए प्लस’ के नाम पर छात्रों के भविष्य को बर्बाद करता रहेगा?
-मोहम्मद शाहिद की कलम से