अदालत में जब कोई सच गवाही देता है, तो सिस्टम के चेहरों पर झुर्रियाँ क्यों आ जाती हैं? आगरा के बोदला-बिचपुरी रोड पर महीनों से पड़ी सिल्ट और मलबे की कहानी अब सिर्फ गंदगी की नहीं, बल्कि उस सिस्टम की है जो खुद को साफ़-सुथरा दिखाने का ढोंग करता है। कहानी में एक दरोगा हैं, एक ट्रस्ट है, कुछ बड़े अधिकारी हैं, और सबसे ऊपर एक अदालत है जो सवाल पूछ रही है। लेकिन इस कहानी का सबसे दिलचस्प मोड़ यह है कि जिस दरोगा ने सच पर रिपोर्ट दी, उसे ही सज़ा मिली।
यह बात है आगरा के बोदला-बिचपुरी रोड की। पिछले कई महीनों से यह सड़क नहीं, बल्कि एक दलदल बन चुकी थी। किनारे पर कीचड़, मलबा और सिल्ट का ढेर लगा था, जिससे आवाजाही मुश्किल थी। यह सिर्फ एक सड़क की समस्या नहीं थी, यह उस जनता के धैर्य की परीक्षा थी जो अधिकारियों से बार-बार गुहार लगा रही थी। लेकिन जनता की पुकार को सुनने का समय किसके पास है? जनता तो बस वोट देने के लिए होती है, उसके बाद तो उसे अपनी ज़िंदगी खुद ही जीनी पड़ती है, चाहे वो कीचड़ में हो या धूल में।
जब अधिकारियों ने शिकायत पर ध्यान नहीं दिया, तो सत्यमेव जयते ट्रस्ट ने तीन जून को पुलिस आयुक्त से शिकायत की। कोई कार्रवाई नहीं हुई। फिर 21 जुलाई को ट्रस्ट के अध्यक्ष मुकेश जैन ने सीधे सीजेएम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। उन्होंने अपनी याचिका में डीएम, सीडीओ और नगर आयुक्त जैसे बड़े अधिकारियों को आरोपी बनाया। आरोप भी छोटे-मोटे नहीं थे, बल्कि यह कि बजट और अधिकार होने के बावजूद सफाई नहीं करवाई गई, जो जनता के विश्वास का आपराधिक उल्लंघन है। वाह, क्या बात है! लोकसेवक, जो जनता के सेवक होते हैं, वही जनता के भरोसे का गला घोंट रहे हैं और यह सब क़ानून की किताबों में भी लिखा है।
कैसे एक दरोगा ने ‘सच’ बोल दिया?
अदालत ने याचिका स्वीकार की और जगदीशपुरा थाने के दरोगा देवी शरण सिंह से रिपोर्ट माँगी। अब यहाँ से कहानी में ट्विस्ट आता है। दरोगा ने मौके पर जाकर देखा, लोगों से बात की और 29 जुलाई को अदालत में एक रिपोर्ट भेजी। उस रिपोर्ट में उन्होंने साफ-साफ लिखा कि सड़क पर मलबा, कीचड़ और सिल्ट जमा है और लोगों को परेशानी हो रही है। सोचिए, एक अदना सा दरोगा, जो शायद रोज़ अपनी ड्यूटी पर बड़े अधिकारियों के आदेशों का पालन करता है, उसने अदालत में सच लिख दिया। उसने लिखा कि यह समस्या सच है, यह शिकायत सही है। क्या यह कोई बहुत बड़ी बात थी? नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन यह बात इतनी बड़ी हो गई कि सिस्टम का सिंहासन हिल गया।
सज़ा-ए-सच
जैसे ही यह रिपोर्ट अदालत पहुँची, पुलिस और प्रशासन में भूचाल आ गया। और फिर हुआ वही जो अक्सर सच बोलने वालों के साथ होता है। उस दरोगा को निलंबित कर दिया गया। कारण क्या बताया गया? “सरकारी कार्य में लापरवाही” और “उच्च अधिकारियों के आदेशों का पालन न करना।”
अब यहीं पर कुछ सवाल पैदा होते हैं, जो सीधे हमारे दिल में चुभते हैं।
अगर दरोगा ने लापरवाही की थी, तो क्या यह लापरवाही सिर्फ तब सामने आई जब उन्होंने कोर्ट में रिपोर्ट दी?
क्या इससे पहले तक उनकी सारी फाइलें साफ़ थीं और उनकी सेवा बिल्कुल शानदार थी?
और अगर डीसीपी सिटी सोनम कुमार कहते हैं कि उन्हें इस मामले की जानकारी नहीं थी, तो क्या हमारे अधिकारी सच में इतने बेख़बर हैं कि अदालत में पहुँच गए एक मामले से भी अनजान रहते हैं?
क्या यह मुमकिन है कि एक डीसीपी को यह भी नहीं पता कि उनके थाने का एक दरोगा कोर्ट में किस मामले की रिपोर्ट दे रहा है?
यह सब सुनकर ऐसा लगता है, जैसे दरोगा की असली सज़ा लापरवाही के लिए नहीं, बल्कि ईमानदारी के लिए दी गई है। यह वही सिस्टम है जहाँ ईमानदार आदमी को किनारे कर दिया जाता है, और चापलूस और निष्क्रिय लोग आगे बढ़ते रहते हैं।
और आखिर में, एक सवाल और: क्या बोदला-बिचपुरी रोड अब साफ़ हो गया है? या यह सिर्फ एक और कहानी बन कर रह जाएगा, जहाँ एक सच बोलने वाले को सज़ा मिली और बाकी सब अपनी-अपनी जगह पर जमे रहे?
मोहम्मद शाहिद की कलम से