गुवाहाटी हाईकोर्ट ने छह नवंबर 2013 को अपने फैसले में कहा था कि सीबीआई constitutional संस्था नहीं है
एक अप्रैल 1963 को एक एग्जीक्यूटिव ऑर्डर के तहत बनी सीबीआई को स्वयत्तता देने की बात तो कही गई मगर दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिशमेंट एक्ट-1946 में ‘सीबीआई’ शब्द कहीं नहीं लिखा है, इसीलिए आज भी सीबीआई को constitutional दर्जा हासिल नहीं है। यही वजह है कि गाहे-बगाहे सीबीआई पर तोता या सत्ता की उंगली पर नाचने वाली एजेंसी कहा जाता है जो अपने गले में केंद्रीय जांच ब्यूरो का तमगा लटकाए घूमती है। जिसे राजनीतिज्ञ अपने अपने हिसाब से गरियाते , कोसते हैं और इस्तेमाल करते हैं।
दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेबलिसमेंट (डीएसपीई) एक्ट-1946, के तहत सीबीआई के गठन या उसके अधिकार क्षेत्र की बात कही जाती है परंतु डीएसपीई एक्ट में ‘सीबीआई’ शब्द ही नहीं लिखा है। इस एक्ट में संशोधन कई हुए मगर सीबीआई नाम फिर भी शामिल नहीं हो सका। संविधान के किसी भी चैप्टर में सीबीआई के गठन का कहीं कोई प्रावधान ही नहीं है। यही वजह है कि ‘केंद्रीय जांच एजेंसी’ को आज भी constitutional दर्जा हासिल नहीं है।
केंद्र सरकार की ‘संघ सूची’ के विषयों में शामिल करने की बात
संविधान सभा के सदस्य नजीरुददीन अहमद और डॉक्टर बीआर अंबेडकर ने सीबीआई जैसी संस्था होने की बात कही थी, ऐसी एजेंसी जो केंद्र सरकार की ‘संघ सूची’ के विषयों में शामिल रहेगी। इसका कामकाज क्रिमिनल केस दर्ज करना या अपराधी को गिरफ्तार करना नहीं होगा। यह एजेंसी केंद्र सरकार के पास विभिन्न अपराधों की जो सूचनाएं आती हैं, उन्हें क्रॉस चैक कर सकती है। एजेंसी के पास अंतरराज्य अपराधों की तुलना कर उसकी रिपोर्ट केंद्र सरकार को देने का अधिकार था। पुलिस, जो कि ‘राज्य सूची’ का विषय है, उसकी तर्ज पर यह जांच एजेंसी न तो किसी को गिरफ्तार कर सकती है और न ही किसी से पूछताछ। आज सीबीआई द्वारा किसी को गिरफ़्तार करने, जांच करने या पूछताछ का जो भी अधिकार मिला है, वह डीएसपीई एक्ट के तहत संभव हो सका है।
क्या था सीबीआई को लेकर गोवाहाटी हाईकोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता डॉ. एलएस चौधरी ने सीबीआई की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी जिसके बाद गुवाहाटी हाईकोर्ट ने छह नवंबर 2013 को अपने फैसले में कहा था कि सीबीआई constitutional संस्था नहीं है। इसके पास किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने का अधिकार नहीं है।हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि संविधान के अनुसार केंद्र सरकार ऐसी एजेंसी या फोर्स नहीं रख सकती। अदालत ने सीबीआई को पूरी तरह असंवैधानिक घोषित कर दिया था। अगर सीबीआई को पुलिस की तरह अधिकार देने हैं तो उसे संविधान की ‘समवर्ती सूची’ में शामिल करना ही होगा।
थोड़ी मजबूती मिली, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं थमा
सुप्रीम कोर्ट ने विनीत नारायण मामले में सीबीआई निदेशक को लेकर फैसले के बाद निदेशक का कार्यकाल न्यूनतम दो साल कर दिया गया। इसके बाद यह उम्मीद की गई कि अब जांच एजेंसी का निदेशक केंद्र सरकार के दबाव में आकर काम नहीं करेगा। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद ही सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के लिए एक चयन समिति का गठित की गई। इसके बावजूद सीबीआई पर राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगते रहे। पिछले साल आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल सरकार ने अधिकारिक तौर पर सीबीआई को राज्य में जांच करने और छापा मारने के लिये दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है। इन राज्यों का आरोप था कि सीबीआई निष्पक्ष जांच एजेंसी नहीं है। यह एजेंसी सरकार के इशारे पर राजनीतिक विरोधियों को जानबूझकर प्रताड़ित करती है।
सीबीआई को लेकर पूर्व निदेशक सरदार जोगेंद्र सिंह की बात महत्वपूर्ण
सीबीआई के पूर्व निदेशक सरदार जोगेंद्र सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था, जांच एजेंसी के पास एक वकील रखने का अधिकार तो है नहीं। गिरफ्तारी हो या चार्जशीट, हर बात के लिए सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती है, इस इंतजार में कई बार साक्ष्य नष्ट हो जाते हैं। आजादी के इतने सालों बाद भी यह जांच एजेंसी डीएसपीई एक्ट के तहत चल रही है। सीबीआई को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करने के लिए इसे संवैधानिक दर्जा देना होगा। इस एजेंसी को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने का एकमात्र यही तरीका है। दिल्ली हाईकोर्ट ने जयदेव बनाम भारत सरकार केस में कहा था, सीबीआई का अपना डायेक्टर प्रोसिक्यूशन होगा। बाद में जांच एजेंसी ने इसकी स्वायत्तता पर भी अंकुश लगाकर इसे पुलिस नियमों के मुताबिक काम लेना शुरु कर दिया।
कैसे मिले सीबीआई को पूर्ण स्वायत्तता
सीबीआई को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए सरकार को संविधान संशोधन करना होगा। इसके लिए दोनों सदनों में अलग-अलग दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास होना जरुरी है। क्योंकि पूर्ण स्वायत्तता न होने के कारण जांच एजेंसी को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। पूर्व दूरसंचार मंत्री सुखराम के मामले में निदेशक को पीएम ने बड़ी मुश्किल से मिलने का समय दिया था। पूर्व निदेशक आरके राघवन ने भी स्वीकारा था कि जांच एजेंसी पर राजनीतिक दबाव रहता है। हर बात में मंजूरी लेनी पड़ती है, मामलों की जांच में देरी होती है, नतीजा कोर्ट की फटकार खाओ। इससे बचाव का एक ही तरीका है कि जांच एजेंसी को पर्याप्त स्वायत्तता और अधिकार दिए जाएं।
-एजेंसी