सुविधा और सुख का संबंध नहीं है। पदार्थ की प्रचुरता है, किन्तु सुख नहीं है। पदार्थ की अल्पता है, किन्तु दुख नहीं है। सुखी वह है, जो संतुलित है। दुखी वह है, जो असंतुलित है। संतुलन और असंतुलन से जुड़ा है सुख-दुख का प्रश्न, अभाव और अतिभाव का संवेदन। संतुलित वह है जो आत्म-रमण करता है, स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार करता है। इसके लिये सभी धर्मों में प्रार्थना एक सशक्त माध्यम हैं। हिन्दू गीता पढ़ता है, मुसलमान कुरान। बौद्ध धम्मपद पढ़ता है, सिक्ख गुरुग्रंथ साहित्य पढ़ता है, क्रिश्चियन बाइबिल। नाम, रूप, शब्द, सिद्धांत, शास्त्र, संस्कृति, संस्कार की भिन्नताओं के बावजूद साध्य सबका एक है- भीतर का बदलाव, स्व की पहचान, शाश्वत मूल्यों का स्वीकरण एवं पवित्रता की साधना। जैन धर्म में इस तरह की प्रार्थना का एक सशक्त माध्यम है सामायिक।
सामायिक जैन साधना पद्धति की एक प्रक्रिया है जिसमें साधक अड़तालिस मिनट एकाग्रता की साधना में स्वयं को लीन रखता है। यह साधना पद्धति जहां जीवन में शांति, समता, एकाग्रता, सौहार्द को स्थापित करती है वहीं समाज और राष्ट्र में अहिंसा, प्रेम, करुणा को स्थापित करती है। मानव मानव के बीच मैत्री के बीच वपन करती है, विषमता एवं कटुता को दूर करती है। सामायिक आध्यात्मिक चेतना के जागरण का प्रयोग है। अध्यात्म सार्वभौम तत्व है। इसका किसी भी देश, जाति, वर्ण और संप्रदाय से संबंध नहीं होता। वह किसी पक्ष से आबद्ध नहीं होता।
सामायिक स्वयं ध्यान हैं फिर भी उसमें ध्यान के विशेष प्रयोग किये जाते हैं। पूज्य आचार्य श्री तुलसी ने अभिनव सामायिक का प्रयोग प्रस्तुत कर सामायिक के आध्यात्मिक स्वरूप को उजागर किया है। जिस व्यक्ति ने उसका प्रयोग किया है, उसमें अभिनव आकर्षण उत्पन्न हुआ है। कुछ लोग अपने को व्यस्त मानकर सामायिक की साधना से वंचित रह जाते हैं। उनका दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है। हम तेजी से आगे बढ़ना चाहते हैं। सफल होने के लिए शॉर्टकट अपनाते हैं। कारण, हमें यही लगता रहता है कि हम पीछे रह गए हैं और दूसरे आगे निकल गए हैं। असली खुशी मंजिल पर पहुंचकर ही मिलेगी। पर लेखक डब्ल्यू पी किंसेला कहते हैं, ‘जो चाहते हैं, उसे पाना सफलता है। जो मिला है, उसे चाहना खुशी है।’
आज संभ्रांत इंसान अनगिनत द्वंद्वों से और अपने ही अंतद्र्वंद्वों से आक्रांत और दिग्भ्रांत होकर दुख भोग रहा है। वह तनाव से संत्रस्त, अशांति से ग्रस्त है। वह मानसिक संतुलन, शांति और प्रसन्नता का जीवन चाहता है, उसके लिए सामायिक एक अमोघ प्रयोग है। इससे आनंद, आत्मिक निद्र्वंद्व और निर्विकल्प बन प्रसन्नता का रहस्य पाया जा सकता है। सामायिक का उद्देश्य है स्वाभिमान रहना किन्तु अभिमान नहीं करना। चेतना में शक्ति छिपी है, उसे पहचानें और उसे सकारात्मक मोड़ दे। जीवन में समता एवं सहिष्णुता के लिए सदा जिज्ञासु बने रहे। पहले स्वयं जागे फिर दूसरे को जगाएं। मंगल भावना करें- अज्ञान तमस अब दूर हो, फैले अमर उजास। अपने भीतर समता का, ऐसा दिवला चास।।
अपने जीवन में समता की स्थापना ही सामायिक का सार है। लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण, निंदा-प्रशंसा- इन सब घटनाचक्रांे में सम रहना, अप्रकम्प रहना साधना का सर्वोच्च शिखर है। इस शिखर पर आरोहण करने का साधन है सामायिक। हिंसा, असत्य, संग्रह- ये विषमता की ओर ले जाते हैं। इनसे मुक्त होने का अभ्यास है सामायिक। कलह, दोषारोपण, चुगली, निंदा, मिथ्या दृष्टिकोण- ये सब मानसिक शांति और सामुदायिक शांति के विघ्न हैं। इन विघ्नों का निवारण सामायिक की साधना से संभव है।
भगवान महावीर अन्दर और बाहर का युद्ध समाप्त कर जिस ऊंचाई तक पहुंचे वहां तक जाने में हमें भी कुछ पड़ाव अवश्य निश्चित करने होंगे और उसमें सामायिक की साधना हमारे लिए सहायक होगी-उन सभी कर्मों को अशुभ मानें जो निजी गुणों का अन्त कर दें। जिनका परिणाम औरों के लिए भी घातक बने। उन विचारों को त्याज्य जाने जिनसे औरों के अधिकार, भावना और सुख को गहरा आघात पहंुचे। कुछ तो करना ही पड़ता है। बिना काम किए कुछ हासिल नहीं होता। आज किए गए हमारे काम ही कल फल बनकर सामने आते हैं। लगातार खर्च करना है तो साथ-साथ जमा भी करना पड़ता है। लेखक रॉबर्ट लुइस स्टीवेंसन कहते हैं, ‘हर दिन क्या पाया, इससे मापा नहीं जाता। यह तो इससे तय होगा कि आप कैसे और कितने बीज बोते रहे हैं।’
आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा है कि सामायिक सचमुच अध्यात्म का प्रवेशद्वार है, शांतिमय जीवन का उपहार है जिससे विषमता मिटेगी एवं समता पनपेगी। विषमता का निदर्शन है जातिवाद, भाषा, वर्ण और संप्रदायवाद इनसे जुड़ी है मनुज की प्रतिबद्धता, जो सहिष्णुता और समता छीन लेती है। मजहबी कट्टरता बनती है दुःस्वप्न, ज्वलंत बन जाता है मानवाधिकार का प्रश्न। एक ओर अहं का उत्कर्ष दूसरी ओर हीनता का प्रकर्ष इसमें यदि हो जाए सामायिक का अवतरण हो जाये तो मानव-मानव के बीच मैत्री का बीज के बीज प्रस्फुटित हो सकते है,, भेदजनित घृणा को समाप्त कर जीवन में प्रेम, सौहार्द, संतुलन एवं सद्भावना की जा सकती है।
सामायिक जीवन का शुद्ध ध्येय बने। वीतरागता तक पहुंचना हमारा संकल्प बने। जब भी सामायिक में हम संलग्न हो, हम आरोग्य, बोधि, समाधि का संकल्प करें। आंखें जब भी बंद कर प्रभु का ध्यान करें, प्रभु दर्शन के सिवाय कोई दृश्य न देखें। जब भी संस्कारांे की भीड़ में त्रासदी से उबा, थका मांदा मन दिशा बदले, कदम प्रभु तक पहुंचने वाली सीढ़ियों पर जाकर टिकें। ऐसी तड़प जागे कि मैं और तुम के बीच कोई भेद रेखा शेष न बचे। इस निःशेष की यात्रा में ही एक अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर मिलेगा- जो तू है वही मैं हूं, जो मैं हूं, वही तू है। तू और मैं के भेद को मिटाने की प्रक्रिया है सामायिक।
सामायिक आत्मदर्शन की साधना है। मगर एक बार जो सामायिक की साधना में उतर जाता है तो उसे अपने भीतर की प्रभु-सत्ता का अहसास हो जाता है। साहस, धैर्य, अभय, पुरुषार्थ, विश्वास और दिशा निर्णय की प्रज्ञा जाग जाती है। तब संसार समंदर को तैरने के लिए नौका के रूप में भी शरीर उसे पर्याप्त लगता है। मैं यहां यह दावा नहीं करती कि सामायिक करने वाला हर व्यक्ति वीतराग बन जायेगा, समस्याओं से मुक्त हो जायेगा, सिद्धि पा लेगा। किन्तु इतना जरूर होगा कि वह ऐसी जीवनशैली अपना लेगा, ऐसे मार्ग पर चरण बढ़ा लेगा कि समता की सिद्धि प्राप्त होगी। जिसने समता साध ली, जिसके जीवन में असंतुलन नहीं रहा ऐसा व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक कर लेता है, व्यावहारिक जीवन में उससे ज्यादा सुखी व्यक्ति दूसरा नहीं हो सकता।
– मंजुला जैन,
अध्यक्ष – सामायिक क्लब,मुम्बई