इस वर्ष 20 नवम्बर को छठ पूजा है । छठपूजा लोक आस्था का पर्व है। हमारे देशमें सूर्योपासनाके लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ का पर्व । मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होनेके कारण इसे छठ कहा गया है । यह पर्व वर्षमें दो बार मनाया जाता है । पहली बार चैत्रमें और दूसरी बार कार्तिकमें । चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठीपर मनाए जानेवाले छठ पर्वको चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठीपर मनाए जानेवाले पर्वको कार्तिकी छठ कहा जाता है । छठ देवी, भगवान सूर्य की बहन हैं, इसलिए लोग सूर्य की तरफ अर्घ्य दिखाते हैं और छठ मैया को प्रसन्न करने के लिए सूर्य की आराधना करते हैं।
पारिवारिक सुख-समृद्धि तथा मनोवांछित फलप्राप्तिके लिए यह पर्व मनाया जाता है । इस पर्वका वैज्ञानिक दृष्टीसे भी लाभ ध्यान में आता है । ज्योतिषशास्त्र के दृष्टीसे भी इसका महत्त्व है । सूर्य को सभी ग्रहों का अधिपति माना गया है। सभी ग्रहों को प्रसन्न करने की जगहपर केवल सूर्य की ही आराधना की जाए और नियमित रूप से अर्घ्य (जल चढ़ाना) दिया जाए, तो कई लाभ मिल सकते हैं । इस पर्वको स्त्री और पुरुष समानरूपसे मनाते हैं । सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है।
छठ पूजा व्रत विधि
यह पर्व चार दिन का होता है और बडे ही उत्साह के साथ मनाया जाता है । उत्तर भारत में इस दिन गंगास्नान का भी विशेष महत्त्व है । यह व्रत स्त्री-पुरुष दोनों करते हैं । यह चार दिवसीय त्यौहार का माहत्मय इस प्रकार है –
पहला दिन
नहाय खाय । इस दिन सूर्योदय के पूर्व पवित्र नदियों में स्नान करने के पश्चात ही भोजन करते हैं जिसमें कद्दू (लौकी) खाने का विशेष महत्त्व पुराणों में है ।
दूसरा दिन
खरना, इस दिन सवेरे से निर्जला उपवास कर पूरी पवित्रता के साथ सायंकाल को रोटी एवं गुड की खीर बनाते हैं ।
तीसरा दिन
इस दिन डूबते हुए सूर्य को अर्ध्य अर्पण करते हैं, प्रात:काल स्नान करके प्रसाद (ठेकुआ) बनाते हैं । इस प्रसाद को बनानेवाले सभी निर्जला रहकर ही बनाते हैं । तदुपरांत बांस अथवा पीतल के सूप में, उस मौसम में उपलब्ध सभी फलों के साथ ठेकुआ रखकर सूपों को अंतिम रूप देकर बांस की बडी सी टोकरी में रख नदी या तालाब पर जाते हैं । वहां व्रती स्त्री / पुरुष नदी में स्नान कर गीले वस्त्रों में ही भगवान सूर्य को अर्ध्य अर्पण कर वापस घर आते हैं ।
चौथा दिन
इस दिन प्रात: चार बजे पुन: नदी पर जाते एवं उगते सूर्य को अर्ध्य अर्पण करते हैं और तत्पश्चात घर वापस आते हैं । इस प्रकार चार दिनों का यह महापर्व संपन्न होता है ।
छठ व्रत के नियम
1. इसे घर की महिलाएं एवं पुरुष दोनों करते हैं ।
2. इसमें स्वच्छ एवं नए तथा बिना सिले वस्त्र पहने जाते हैं जैसे महिलाएं साडी एवं पुरुष धोती पहनते हैं ।और व्रत करनेवाले व्रत की अवधि में धरती पर कंबल एवं चटाई प्रयोग कर सोते हैं ।
3. इन दिनों घर में प्याज, लहसुन एवं मांस-मछली आदि का प्रयोग निषिद्ध है ।
आजकल कुछ नई रीतियां भी आरंभ हो गई हैं, जैसे पंडाल और सूर्यदेवताकी मूर्तिकी स्थापना करना, अनावश्यक रोषनाईपर अधिक व्यय करना, पटाखे जलाना, ऑर्केस्ट्राका आयोजन करना, आदि. व्रत का उद्देश्य भूलकर राजनीतीक दृष्टीसे चालू हो रहे अयोग्य तथा अनुचित प्रथाओंमें बदलाव करने के लिए जागृति की भी आवश्यकता है ।
वैसे तो बड़े-बुजुर्ग हमेशा कहते हैं कि, सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए। लेकिन, डूबते और उगते सूर्य को जल चढ़ाने से चर्म रोग नहीं होता और शरीर निरोगी भी रहता है। छठ के दौरान सुर्यकिरणें अधिक ऊर्जावान होती हैं। छठ करने से स्वास्थ्य से जुड़ी कई परेशानियां दूर होती हैं। उपवास से शरीर की आरोग्य क्षमता में वृद्धि होकर पाचन तंत्र में भी सुधार होता है । छठ पर गुड़ और आटे से बनने वाला प्रसाद सेहत के लिए लाभदायक होता है। छठ पर्व सर्दी की शुरुआत में होता है और गुड़ से बना प्रसाद सर्दी से बचने में मदद करता है।
छठ महापर्व की शुरुआत माता सीता ने बिहार के ही मुंगेर स्थित मुद्गल के आश्रम में की थी। वाल्मीकि रामायण व आनंद रामायण में इसका वर्णन आता है। माता सीता ने जहां पहला छठ किया था, वह स्थान वर्तमान में ‘सीता चरण मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। वहां शिला पर माता सीता के चरण निशान हैं।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब भगवान राम वनवास के लिए निकले थे, तब वे माता सीता और लक्ष्मण के साथ ऋषि मुद्गल के आश्रम गए थे। बिहार के मुंगेर स्थित गंगा नदी के बबुआ घाट से दो किलोमीटर अंदर गंगा के बीच एक पर्वत पर ऋषि मुद्गल का आश्रम था। तब मुंगेर का नाम मुद्गल था। वहां माता सीता ने मां गंगा से वनवास सकुशल बीत जाने की प्रार्थना की थी। वनवास व लंका विजय के बाद भगवान राम व माता सीता मुद्गल ऋषि के आश्रम गए। गंगा नदी के बीच स्थित ‘सीता चरण’ पर शोध करनेवाले मुंगेर के प्रो. सुनील कुमार सिन्हा के अनुसार भगवान राम ने जब ब्राह्मण कुल में जन्मे रावण का वध किया, तब उन्हें ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। इस पाप से मुक्ति के लिए अयोध्या के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ ने श्रीराम व सीता माता को मुद्गल ऋषि के पास मुंगेर भेजा था। वे बताते हैं कि आनंद रामायण के पृष्ठ संख्या 33 से 36 तक सीता चरण और मुंगेर का उल्लेख है। वहां ऋषि ने माता सीता को सूर्य की उपासना करने के लिए कहा । इसके बाद माता सीता ने वहीं गंगा नदी में एक टीले पर छठ व्रत किया था । माता सीता ने जहां छठ व्रत किया था, वहां मंदिर बना है। मंदिर के गर्भ गृह में पश्चिम और पूरब दिशा की ओर माता सीता के चरणों के निशान हैं। विशेष तो यह है कि सीताचरण मंदिर के सीता के चरण निशान देश के अन्य मंदिरों के निशानों से मिलते हैं । प्रसिद्ध ब्रिटिश शोधकर्ता गियर्सन ने इस मंदिर के पदचिह्न तथा माता सीता के जनकपुर मंदिर, चित्रकूट मंदिर, मिथिला मंदिर आदि में मौजूद चरण निशानों के बीच समानता पाई।
छठ के संदर्भ में एक और पौराणिक कथा महाभारत के काल से जुडी हुई है । पौराणिक कथाओं में छठ व्रत के प्रारंभ को द्रौपदी से भी जोड़कर देखा जाता है । द्रौपदी ने पांच पांडवों के उत्तम स्वास्थ्य और सुखी जीवन लिए छठ व्रत रखा था और सूर्य की उपासना की थी, जिसके परिणामस्वरूप पांडवों को उनको खोया राजपाट वापस मिल गया था । साथ ही महाभारत के अनुसार, दानवीर कर्ण सूर्य के पुत्र थे और प्रतिदिन सूर्य की उपासना करते थे । एक कथानुसार, सबसे पहले कर्ण ने ही सूर्य की उपासना शुरू की थी । वह प्रतिदिन स्नान के बाद नदी में जाकर सूर्य को अर्घ्य देते थे । छठ पूजा यह एक प्रकार की सूर्य उपासना ही है।
सूर्योपासना का महत्व और उसका लाभ –
सूर्य की उपासना भारतवर्ष का प्राण है । हमारे ऋषि-मुनियों ने साधना कर सूर्योपासना के लाभ प्राप्त किए हैं । ‘आरोग्यं भास्करात् इच्छेत् ।’ अर्थात सूर्य से स्वास्थ्य की मांग करनी चाहिए, अर्थात सूर्योपासना कर स्वास्थ प्राप्त करना चाहिए, ऐसा वचन है । अन्य देवताओं की उपासना का आधार केवल सूर्योपासना ही है; इसलिए जो उत्तम स्वास्थ्य प्राप्ति का इच्छुक है, वह सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करे तथा उगते सूर्य को अर्घ्य देकर प्रतिदिन नमस्कार करे । प्रत्यक्ष प्रभु रामचंद्रजी ने भी रावण के साथ युद्ध में विजयी होने के लिए अगस्ति ऋषि के कहने पर आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ किया था । तत्पश्चात ही विजय प्राप्त की । सूर्योपासना करने से मनुष्य आपत्ति से मुक्त होता है, यह अगस्ति ऋषि ने बताया है । सूर्योपासना के संबंध में अगस्ति ऋषि कहते हैं कि भीषण संकट में, भयंकर परिस्थिति में, निर्जन वन में, घोर प्रसंग में, महासागर में कीर्तन, प्रार्थना, पूजा, अर्चना कर मानव आपत्ति से सहज मुक्त हो सकता है । सूर्यदर्शन से अपवित्र मानव भी पवित्र हो जाता है ।
भगवान सूर्य के कारण मनुष्य और पृथ्वी को लाभ –
सूर्यदेव वेदों के भी परमात्मा हैं । सूर्योपासना वैदिक संस्कृति का मूलाधार है; इसलिए ही हिन्दू धर्मीय विकारों की दासता नष्ट कर पा रहे हैं । सूर्योपासना करने से प्रतिदिन वायुमंडल, वातावरण शुद्ध होता है तथा रोगों का निवारण होता है । यह सूर्य पृथ्वी से 9 करोड मील की दूरी पर है, तब भी सूर्य का प्रभाव इस पृथ्वी पर निरंतर बना हुआ है । सूर्योपासना से कर्करोग (कैंसर) जैसा भयंकर रोग भी ठीक हो सकता है ।
सूर्य उपासनाका वैज्ञानिक महत्व –
सूर्य आत्मा जगतस्तथुष्चयं अर्थात स्थावर तथा जड़ यानी चल-अचल समग्र सृष्टि कीआत्मा सूर्य है । कुछ दिन यदि सूर्य की उष्मा न मिले तो समस्त पेड़ पौधे समाप्त हो जाएंगे ।
उनके अभाव में मानव ही नहीं समस्त जीव-जगत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा । आज के आधुनिक चिकित्सा पद्धति में सन बाथ का बहुत महत्व है ।
सूर्य की उपासना करने से बल, शक्ति, स्मरण, तेज, ज्ञान, वीरता और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । इस उपासना से बुरे स्वप्न दिखाई नहीं देते तथा अनिष्ट ग्रहों की पीडा दूर होती है । इस उपासना से किसी भी व्रत को हानि पहुंचानेवाली अनिष्ट शक्तियों का नाश हो सकता है । साथ ही सूर्य की सविता नामक शक्ति का लाभ साधक को मिलता है । सूर्य की उपासना करने से होनेवाले लाभ के उदाहरण हम सभी को ज्ञात है । सूर्य से ही कुंती को स्वर्णकवच कुंडलधारी कर्ण प्राप्त हुआ तथा द्रौपदी को अन्न की थाली मिली ।
स्रोत : मासिक सनातन प्रभात
– कु. कृतिका खत्री,
सनातन संस्था, दिल्ली