ईरान की उर्मिया झील कभी पर्यटकों से गुलज़ार रहा करता थी. होटलों, बोट हाउस और रेजॉर्ट में लोगों की ख़ूब चहल-पहल रहती थी लेकिन इसके पर्यावरण पर बढ़ते दबाव की वजह से यह सिकुड़ती गई और इसकी ज़मीन लोगों के रहने लायक नहीं रह गई.
झील की आसपास की खेती और वनस्पतियाँ ख़त्म हो गईं और किनारे बनाये गए रेजॉर्ट और होटल वीरान हो गए. पूरा इलाका किसी भुतहा शहर जैसा लगने लगा था.
उर्मिया की उजड़ने की कहानी युद्ध, प्रतिबंधों और ईरान की घरेलू राजनीति की तीखी लड़ाई से जुड़ी रही है.
यह लड़ाई इस स्तर पर पहुँच गई है कि इस झील को पुनर्जीवित करने की कोई भी पहल राजनीति से घिर जाती है.
लेकिन उर्मिया की कहानी इसलिए भी अनोखी है कि तमाम बाधाओं के बावजूद इसने एक बार फिर जीवन के संकेत देने शुरू कर दिए हैं.
कैसे उजड़ा ईरान का यह पसंदीदा पर्यटन स्थल?
उर्मिया ईरान की सबसे बड़ी दलदली ज़मीन को समेटे है और कभी यह दुनिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झीलों में से एक हुआ करती थी.
हाल तक यह ईरान में सबसे प्रमुख पर्यटन स्थलों में शुमार थी.
दशकों तक ईरान के लोग राजधानी से दस घंटे की दूरी तय कर देश के सुदूर उत्तर पूर्व में मौजूद इस झील तक आते थे.
लेकिन अब झील की तटों पर उजड़ते होटलों और यूँ ही छोड़ दी गईं नावों का मंज़र दिखता है. इन होटलों में कइयों में एक बूंद पानी तक नहीं है.
पानी की कमी की वजह से झील की फ़ीडर नदियों पर निर्भर रहने वाली खेती की विस्तृत ज़मीन भी बर्बाद हो गई है. अब यहाँ उजड़े हुए बाग, वीरान खेत और खाली मकान दिखेंगे. इन मकानों के मालिक अब किस्मत तलाशने कहीं और निकल गए हैं.
उर्मिया झील कभी पाँच हजार वर्ग किलोमीटर में फैली थी लेकिन 2014-15 तक आते-आते यह इसका दसवां हिस्सा ही रह गई.
अब झील के ज़्यादातर हिस्से को बदसूरत लाल शैवाल ने खा लिया है.
अब एक और बेहद खतरनाक समस्या आ खड़ी हुई है और वो यह कि नमक की पपड़ियाँ अब बड़े इलाके में फैल गई हैं.
बेहद तेज़ हवाएं नमक से भरी इस सतह को धूल भरी आंधी में तब्दील कर देती हैं.
धूल और नमक से भरी यह आंधी लोगों की साँसों के लिए ख़तरा बन सकती है. यह इस बात का सुबूत है कि कैसे कुछ ही वर्षों में पर्यटन का स्वर्ग कही जाने वाली झील अब लोगों के स्वास्थ्य के लिए ख़तरा बन गई है.
पानी के अंधाधुंध दोहन से सिकुड़ गई उर्मिया
उर्मिया के उजड़ने की कहानी लंबी है. साल 1979 की क्रांति में राजशाही को ख़त्म करने के बाद ईरान ने खाद्यान्न में आत्मनिर्भर होने की नीति अपनाई ताकि अपने नए इस्लामी शासन को बाहरी दबाव से बचाया जा सके.
नई नीति के तहत अंगूर के बाग (क्योंकि इससे शराब बनती थी) उजाड़ दिये गए. इसकी जगह ज़्यादा पानी की खपत वाली सेब और चुकंदर की खेती शुरू की गई. खेती के लिए बड़े डैम और सिंचाई योजनाएं शुरू की गईं.
आबादी बढ़ने की वजह से नई नौकरियाँ बढ़ाने की भी ज़रूरत पड़ी और ज़ाहिर है कि रोज़गार के लिए खेती ही सबसे मुफ़ीद हो सकती थी. लिहाज़ा 1980 के दशक से उर्मिया के चारों ओर कृषि भूमि का विस्तार बढ़कर चार गुना हो गया.
इसके साथ ही इस क्षेत्र में बड़ी तादाद में गाँव और शहर भी बस गए.
नीदरलैंड के आईएचई डेल्फ्ट में वॉटर एंड एग्रीकल्चर के पूर्व एसोसिएट प्रोफ़ेसर पूलाद करीमी की गर्मियाँ इस झील के किनारे बीतती थीं.
लेकिन हाल में जब वह यहाँ 15 साल बाद लौटे तो इसका स्वरूप इतना बदल चुका था कि इसे पहचान ही नहीं पाये.
पहले जहाँ बाग हुआ करते थे, वहाँ अब चारों ओर खेत हैं.
साल 1980 में इराक के साथ हुए भयंकर युद्ध और पश्चिमी देशों के साथ तनाव की वजह से पर्यावरण न्यूनतम प्राथमिकता वाला मुद्दा बन गया.
ईरानी पर्यावरणवादियों का कहना है कि हालात इतने ख़राब हो गए कि सरकार पर्यावरण मंत्रालय को ही ख़त्म करने की सोचने लगी.
फिर भी 1995 तक उर्मिया झील कम बारिश के बावजूद टिकी रही. जबकि 1970 के दशक से कम बारिश का सिलसिला शुरू हो गया था.
लेकिन जैसे-जैसे पानी की माँग बढ़ती गई सूखा भी बढ़ता गया. यहाँ से चीज़ें तेज़ी से बिगड़ती चली गईं.
दूसरी ओर फसलों की सिंचाई ज़रूरी थी लिहाज़ा किसानों ने पंप के ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा भूजल दोहन शुरू किया.
बारिश की कमी की वजह से वे ज़मीन के अंदर का पानी निकालकर सिंचाई कर रहे थे.
इससे झील और सिकुड़ती गई और इसकी नमकीन सतह दिखने लगी. सीमांत रेगिस्तानी इलाके में खेती के विस्तार के इस दुश्चक्र ने धूल भरी आंधियाँ बढ़ा दीं.
नमक से भरी यह धूल फिर खेतों में भरने लगी और पैदावार में कमी होती गई.
इस तरह उर्मिया के आसपास की हवा ख़राब होने की वजह से इसके इर्द-गिर्द फैली टूरिज्म इंडस्ट्री भी बरबाद हो गई. हालात बेहद ख़राब हो गए और लोगों को 2011 में ‘उर्मिया मर रही है’ जैसे नारे के साथ सड़कों पर उतरना पड़ा.
उर्मिया को फिर नई जिंदगी देने की कोशिश
उर्मिया की बदहाली ईरान के लिए शर्मिंदगी की वजह बनती जा रही थी.
आख़िरकार 2013 में जब हसन रूहानी राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे थे तो उन्होंने इस झील को उसका पुराना गौरव लौटाने का वादा किया.
उनकी जीत के बाद झील के संरक्षण का काम शुरू किया गया. इसके तहत सबसे ज्यादा ज़ोर स्थानीय खेती को सुधारने का था. यूएनडीपी के मुताबिक़, यह खेती उर्मिया का 85 फ़ीसदी पानी सोख लेती है.
इस योजना के तहत किसानों को ज़्यादा पानी की खपत वाली तरबूज जैसी फ़सलों की जगह कम पानी का इस्तेमाल करने वाली फ़सलों की खेती की ओर प्रोत्साहित किया गया. सिंचाई के तरीकों पर फिर से काम किया गया.
जैसे रात को सिंचाई पर ज़ोर दिया गया, जब पानी के ज़मीन में ज़्यादा गहरे तक जाने की संभावना रहती है. नई योजना के तहत ज़्यादा स्वस्थ और कम पानी पीने वाली फ़सलों को बढ़ावा देने की कोशिश की गई. शुरुआती नतीजे अच्छे रहे.
साल 2000 के आसपास एक डच पायलट प्रोजेक्ट की अगुआई करने वालों में शामिल सरकार के प्लानिंग और बजट संगठन के पूर्व वाटर एक्सपर्ट मेंहदी मिर्जई ने कहा कि खेती के नए तरीके से 30 फ़ीसदी कम पानी का इस्तेमाल करके भी पैदावार 50 फ़ीसदी बढ़ गई थी.
उन्होंने कहा कि किसानों को इन सुधारों की ख़ासियत बताना ज़रूरी है ताकि झील का भविष्य सुरक्षित हो सके.
पूर्व पर्यावरण अधिकारी और अब यूएनडीपी में विश्लेषक सुलेमानी रूज़बहानी और उनके सहयोगियों का कहना है कि उन्हें विश्वास है कि वे पानी की खपत को 40 फ़ीसदी घटाने के लक्ष्य को पा लेंगे.
हालांकि ईरान के पर्यावरण मंत्रालय ने इस पर सवालों का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन टिकाऊ खेती की इस योजना के साथ ही झील के लिए एक और योजना तैयार होने लगी जिसपर हंगामा होने लगा.
इसके लिए 35 किलोमीटर एक सुरंग खोद दी गई जिससे पड़ोस की छोटी ज़ेब बेसिन से झील में पानी लाया जाना था.
आईएचई डेल्फ्ट के करीमी कहते हैं कि इस तरह की योजना सफल नहीं होने वाली. इससे पानी की सप्लाई की मांग और बढ़ती ही जाएगी.
करीमी और दूसरे वैज्ञानिकों का कहना था कि इससे वही पुरानी गलतियाँ दोहराने का ख़तरा पैदा हो जाएगा जिसकी वजह से झील के साथ यह समस्या आई है.
इसके अलावा जिन इलाकों से उर्मिया के लिए पानी लाने की योजना बनाई जा रही थी वहाँ के लोग भी ख़फ़ा हैं.
इसका विरोध कर रहे लोगों का कहना है कि ईरानी अधिकारी उर्मिया की दिक्कतें देश के दूसरे इलाकों के लोगों पर थोप रहे हैं. इससे इराक में भी पानी की कमी और बढ़ जाएगी. इराक पहले से ही पानी की समस्या से जूझ रहा है.
यह समस्या ईरान के कुर्दिश बहुल इलाकों में सरका दी जाएगी, जिनके पास पहले से ही राजनीतिक ताकत कम है.
सुधर रही है झील की सेहत लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी
अब झील 2,800 वर्ग किलोमीटर तक फैल गई है. अपने पुराने आकार के लगभग आधे तक. लेकिन यह पक्का नहीं कि इसमें कितना हाथ झील को संरक्षित करने की कोशिश का है और कितना बारिश के पानी का.
इसकी कोई गारंटी नहीं है कि निकट भविष्य में धूल भरी आंधी कम हो जाएगी या खत्म हो जाएगी. जिस राजनीतिक माहौल में झील का संरक्षण हो रहा है वह भी जटिल है. इस माहौल में झील एक अहम मोड़ पर पहुंच चुकी है.
हालांकि यह अभी भी जरूरी जलस्तर के लक्ष्य से 3 मीटर नीचे है.
अली मिर्जई कहते हैं, “अगर हालात सही रहे तो सैद्धांतिक तौर पर झील को निर्धारित पारिस्थितिकी स्तर तक लाने में तीन साल लगेंगे. और काम साधारण तरीके से चलता रहा तो इसमें 16 साल भी लग सकते हैं.”
सुलेमानी रूजबहानी कहते हैं, “झील को संरक्षित करने का काम चुटकियां बजाते ही नहीं हो सकता. उर्मिया को बदहाली के इस मोड़ पर आने में 20-25 साल लग गए. इसलिए इतनी जल्दी इसके अपने पुराने स्वरूप में लौटना भी संभव नहीं है.”
बहरहाल, झील की स्थिति सुधरते देख स्थानीय लोग खुश तो हैं लेकिन उनकी प्रतिक्रिया सतर्कता भरी है. फिलहाल झील का पानी जहाजों की मरम्मत करने वाली उस पुरानी गोदी तक पहुंचना शुरू हो गया है जिसे कभी रेफरेंस प्वॉइंट की तरह इस्तेमाल किया जाता था.
लोग अब हालात सुधरते देख रहे हैं. यही चीज उनमें उम्मीद जगा रही है.
-BBC
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