आज अमित शाह एक चमकते सितारे हैं लेकिन उन्होंने बुरा वक़्त भी देखा है, वे जेल में रहे और उनके गुजरात जाने पर भी अदालत ने रोक लगा दी थी लेकिन अब वे कांग्रेस के राज में लगे आरोपों से बरी हो चुके हैं.
कांग्रेस राज में भाजपा के अंदर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो शाह से दूर रहना चाहते थे. संसदीय बोर्ड की बैठक में तब सुषमा स्वराज ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की ओर देखते हुए पूछा, “आखिर हम कब तक अमित शाह को ढोएंगे?”
बैठक में मौजूद नरेंद्र मोदी का धैर्य जवाब दे गया. उन्होंने कहा, “क्या बात करते हैं जी. पार्टी के लिए अमित के योगदान को कैसे भुला सकते हैं.”
अरुण जेटली की ओर देखते उन्होंने कहा, “अरुण जी आप जेल जाइए और अमित शाह से मिलिए. उन्हें लगना चाहिए कि पार्टी उनके साथ है.” उसके बाद इस मुद्दे पर बैठक में कोई कुछ नहीं बोला.
अरुण जेटली जेल गए और अमित शाह से मिले. जेल से छूटने के बाद जब अदालत ने उनके गुजरात जाने पर रोक लगा दी तो वे दिल्ली आ गए.
दिल्ली में अमित शाह ज्यादा लोगों को जानते नहीं थे. राजनीति के अलावा उनकी कोई और रुचि भी नहीं है. अरुण जेटली ने पार्टी के सात-आठ युवा नेताओं को ज़िम्मेदारी सौंपी कि रोज़ कम-से-कम दो लोग दिन भर अमित शाह के साथ रहेंगे.
दिल्ली के अनजान राजनीतिक गलियारे
शाह जितने दिन दिल्ली में रहे, दोपहर का भोजन अरुण जेटली के यहां तय था. उस समय राजनाथ की जगह नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बन गए थे.
अमित शाह उनसे मिलने जाते थे तो दो-दो, तीन-तीन घंटे बाहर इंतज़ार करना पड़ता था पर अमित शाह ने कभी किसी से शिकायत नहीं की. दिल्ली में रहने के बावजूद अमित शाह दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में अनजान ही थे.
साल 2013 आते-आते राजनाथ सिंह एक बार फिर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. मोदी के कहने पर राजनाथ सिंह ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री बना दिया.
जब उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभार दिया गया तो पार्टी में सवाल उठे कि ये उत्तर प्रदेश के बारे में जानते क्या हैं, पर उत्तर प्रदेश के भाजपा नेताओं को पहली ही बैठक में समझ में आ गया कि अमित शाह क्या चीज़ हैं.
उत्तर प्रदेश में कामयाबी
बैठक शुरु हुई तो नेताओं ने बताना शुरू किया कि कौन-कौन सी लोकसभा सीट जीत सकते हैं.
अमित शाह ने कहा कि “आप लोगों को कोई सीट जिताने की ज़रूरत नहीं है, ये बताइए कि कौन कितने बूथ जिता सकता है. मुझे बूथ जिताने वाले चाहिए, सीट जिताने वाले नहीं.”
उसके बाद लोकसभा चुनाव के नतीजों ने अमित शाह को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित कर दिया. इस कामयाबी ने उनके पार्टी अध्यक्ष बनने का रास्ता भी साफ कर दिया.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उन्होंने भाजपा की पूरी कार्य संस्कृति ही बदल दी. पार्टी में पदाधिकारियों से ज़्यादा अहमियत बूथ कार्यकर्ता की हो गई.
राज्यों के प्रभारी राष्ट्रीय महामंत्री अमूमन राज्य की राजधानी या कुछ प्रमुख शहरों तक जाते थे. अचानक सबने देखा कि पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बूथ स्तर के कार्यकर्ता से न केवल मिलने लगा बल्कि उसके घर भोजन पर जाने लगा.
हैदराबाद के एक ऐसे दौरे से लौटने के बाद राष्ट्रीय महामंत्री राम माधव ने शिकायत की कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का बूथ स्तर के कार्यकर्ता के यहां जाना क्या उचित है?
अमित शाह का टका-सा जवाब था, क्या पार्टी के संविधान में ऐसा लिखा है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष कार्यकर्ता के घर नहीं जा सकता? ये पदाधिकारियों के लिए संदेश था जो पहुंच गया.
राजनीतिक पंडितों को ग़लत साबित किया
शाह जिस भी राज्य की बैठक में जाते हैं राज्य के पदाधिकारियों के पसीने छूट जाते हैं. वजह यह है कि उन्हें हर चुनाव क्षेत्र, उसके प्रमुख कार्यकर्ताओं और मुद्दों की उनसे ज़्यादा जानकारी होती है.
इसके लिए उन्हें लैपटॉप या नोटबुक देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती. चुनाव के दौरान वे पार्टी के तंत्र से इतर अपना एक अलग तंत्र खड़ा करते हैं. इसमें बूथ का कार्यकर्ता और कॉल सेंटर तक, सब होता है.
इस काम के लिए लोगों के चयन में दो बातों का खास ध्यान रखा जाता है. पहला, ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को जोड़ा जाए और दूसरा, सबकी वैचारिक प्रतिबद्धता संदेह से परे होनी चाहिए.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन हो गया तो सबने मान लिया कि राज्य से भाजपा का सफाया तय है.
पार्टी के अंदर एक वर्ग था जिसका कहना था कि इस गठबंधन को किसी भी हालत में तोड़ने की कोशिश करना चाहिए. लेकिन शाह का कहना था कि लड़ाई और प्रयास का स्तर बढ़ा दो, ज़्यादा नुकसान नहीं होगा. “सीट के बारे में सोचना छोड़ दो, पचास फ़ीसदी वोट का लक्ष्य रखो.”
उन्होंने सारे राजनीतिक पंडितों को गलत साबित कर दिया. लोकसभा चुनाव की कामयाबी ने उन्हें गृह मंत्रालय में स्थापित कर दिया.
आम तौर पर गृह मंत्री सरकार में नंबर दो माना जाता है. सवाल था कि क्या राजनाथ सिंह को इस भूमिका से हटा दिया जाए? मोदी और शाह दोनों ने तय किया कि नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं है.
राजनीतिक उत्तराधिकारी
पांच अगस्त को जब राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को ख़त्म करने और दो केंद्र शासित राज्य बनाने का विधेयक पेश हुआ तो प्रधानमंत्री ने पूरे देश को बता दिया कि उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी कौन है?
यह विधेयक पहले लोकसभा चुनाव से पहले ही लाने की तैयारी हो चुकी थी. विधेयक के मसौदे से लेकर पीडीपी से रिश्ता कब और कैसे तोड़ना है इसकी सारी रणनीतिक व्यूह रचना अरुण जेटली, अमित शाह और मोदी ने तैयार की.
जेटली ने तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह को तीन बार बुलाकर पूरे विधेयक का मसौदा समझाया और यह भी कि उन्हें सदन में क्या बोलना है, पर उसी दौरान पुलवामा का हमला हुआ और सरकार ने बालाकोट एयर स्ट्राइक का फ़ैसला किया इसलिए विधेयक टाल दिया गया.
प्रधानमंत्री ने नागरिकता संशोधन विधेयक की कमान अमित शाह को सौंप दी और खुद नेपथ्य में रहे.
नागरिकता संशोधन विधेयक संसद में पेश हुआ और पास हुआ तो प्रधानमंत्री संसद में ही नहीं आए. अमित शाह परोक्ष रूप से सदन में पार्टी के नेता की भूमिका में थे.
दोनों अवसरों पर अमित शाह ने पार्टी और देश के लोगों को अपने संसदीय कौशल से चौंकाया. संसद के दोनों सदनों में उनके प्रदर्शन से देश का पहली बार परिचय हुआ.
मोदी शाह के संबंध को सामान्य राजनीतिक मुहावरों में समझना कठिन है. एक अर्थ में कह सकते हैं कि शाह मोदी के ऑल्टर इगो हैं.
मोदी का शाह पर भरोसा अटल है तो शाह मोदी का इशारा समझते हैं. राजनीति में ऐसी जोड़ी मिलना कठिन है.
पिछले छह महीने में अमित शाह जिस तरह राष्ट्रीय फलक पर उभरकर आए हैं, उसे देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि मोदी की छाया से इतर उन्होंने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय दिया है.
साभार-प्रदीप सिंह
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