डेविड एवरी अमरीका के सिएटल शहर के एक मनोचिकित्सक हैं. एक दिन उनके पास एक शख़्स आया. जिसकी बीमारी बड़ी अजीब थी.
वो एक इंजीनियर था, जिससे डेविड एवरी 2005 में भी मिले थे. वो अजीबो-ग़रीब ख़यालात का शिकार था. कभी उसे ख़ुदकुशी का ख़याल आता, तो कभी चांद पर जाने का.
उस इंजीनियर की नींद भी उलट-पुलट थी. कभी उसे रात-रात भर नींद नहीं आती थी. और कभी वो दिन के बारह घंटे सोता रहता था.
चूंकि वो व्यक्ति इंजीनियर भी था, तो वो अपनी ज़िंदगी की इस उठा-पटक का बराबर हिसाब भी रखता था.
जब डेविड एवरी ने उस रिकॉर्ड को गौर से देखा तो पता चला कि उस इंजीनियर की नींद और मूड पर समंदर में होने वाली उठा-पटक से सीधा ताल्लुक़ था.
वो ज्वार भाटा से प्रभावित हो रहा था. जब ज्वार आता था, तो उसे रात को नींद नहीं आती थी.
पहले तो डेविड एवरी ने उस शख़्स की बातों को ख़ारिज किया. और उसके रिकॉर्ड को सहेज कर रख दिया.
इंसान की ज़िंदगी पर चांद का असर
12 साल बाद मशहूर मनोचिकित्सक थॉमस वेहर ने ऐसे ही 17 मरीज़ों के बारे में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया.
इन लोगों को ऐसी बीमारी थी, जिसकी वजह से वो नियमित अंतराल पर कभी डिप्रेशन तो कभी अतिरेक के शिकार हो जाते थे.
उनके सामान्य रहने और डिप्रेशन के शिकार होने के चक्र का सीधा ताल्लुक़ चांद के बढ़ने-घटने से पाया गया था. प्राचीन काल से ही इंसान चांद से काफ़ी प्रभावित रहा था.
ऐसे में कुछ इंसानों का बर्ताव अगर इससे प्रभावित हो रहा था, तो ये मनोवैज्ञानिकों के लिए बहुत चौंकाने वाली बात नहीं थी.
अंग्रेज़ी शब्द लुनैसी (Lunacy) का मतलब पागलपन होता है. ये लैटिन भाषा के शब्द लुनैटकस (lunaitcus) से निकला है, जिसका मतलब है जिस पर चांद का दौरा पड़ता हो.
चांद की वजह से
यूनानी दार्शनिक अरस्तू और रोमन प्रकृतिवादी प्लिनी द एल्डर का भी यक़ीन था कि पागलपन और मिर्गी के दौरे चांद की वजह से पड़ते हैं.
ये भी माना जाता था कि गर्भवती महिलाओं को अक्सर पूर्णमासी को बच्चे पैदा होते थे. हालांकि, इस बारे में कोई वैज्ञानिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं हैं.
इस बात पर भी रिसर्च नहीं की गई है कि मनोरोग के शिकार मरीज़ों में पागलपन का दौरान पूर्णमासी को ज़्यादा पड़ता है.
हालांकि एक रिसर्च के मुताबिक़ घरों से बाहर होने वाले अपराधों की तादाद पूर्णमासी को बढ़ जाती है.
इस बात पर काफ़ी रिसर्च की गई है कि नींद पर चांद के घटने-बढ़ने का असर होता है.
पूर्णमासी के आस-पास लोगों को सोने में ज़्यादा वक़्त लगता है और वो सोते भी कम ही हैं.
अमावस की रात
हालांकि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के व्लादिस्लाव व्याज़ोवस्की जैसे नींद के विशेषज्ञ इन आंकड़ों को पुख़्ता नहीं मानते.
उनका मानना है कि इसके लिए लंबी रिसर्च की ज़रूरत होती है. अमरीकी मनोचिकित्सक विलियम वेहर ने इसी बारे में रिसर्च की थी.
और उन्होंने मरीज़ों के बर्ताव पर लंबे समय तक निगाह रखी, तो पाया कि उनके बर्ताव में ऊंच-नीच का ताल्लुक़ चांद के घटने-बढ़ने से है.
चांद का धरती पर कई तरह से असर होता है. सबसे बड़ा असर तो हम चांदनी के तौर पर देखते हैं.
अमावस्या की रात सबसे अंधेरी होती है, जबकि पूर्णमासी को चटख चांदनी होती है. इसके अलावा समुद्र में ज्वार-भाटा भी चंद्रमा के घटने-बढ़ने के अनुसार आते हैं.
पूर्णमासी को ज्वार आते हैं, जबकि अमावस्या को भाटा. वेहर ने भी पाया कि उनके मरीज़ों में चंद्रमा का आकार बढ़ने के साथ ही दौरे पड़ने की तादाद बढ़ जाती है.
चिड़चिड़े मिज़ाज के लोग
मज़े की बात ये है कि इन मरीज़ों के बर्ताव भी 206 दिनों बाद बदल जाते हैं. क्योंकि हर 206 दिन बाद ‘सुपरमून’ होता है.
स्विटज़रलैंड की बेसेल यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग की विशेषज्ञ एन विर्ज़-जस्टिस को इन आंकड़ों पर यक़ीन भी था.
मगर वो इसके पीछे की वजह को समझने में नाकाम रही थीं.
एन विर्ज़-जस्टिस मानती हैं कि चटख चांदनी रात में लोगों को ठीक से नींद नहीं आती और वो चिड़चिड़े मिज़ाज के हो जाते हैं.
हमारे शरीर की जैविक घड़ी पर चंद्रमा के उतार-चढ़ाव का गहरा असर होता है और उसका 24 घंटे का चक्र प्रभावित होता है.
नींद कम आने की वजह से कई लोग डिप्रेशन के भी शिकार हो सकते हैं.
हालांकि वेहर मानते हैं कि आज के दौर में इतनी कृत्रिम रौशनी मौजूद होती है कि चांदनी का बहुत असर होना स्वाभाविक बात नहीं है.
धरती का चुंबकीय क्षेत्र
ऐसे में शायद चांद का गुरुत्वाकर्षण लोगों के बर्ताव पर ज़्यादा असर डालता है.
ऐसा माना जाता है कि चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का असर धरती के चुंबकीय क्षेत्रों पर पड़ता है और कुछ लोग इनके प्रति ज़्यादा ही संवेदनशील होते हैं.
उनका बर्ताव भी चंद्रमा से प्रभावित हो जाता है. लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज के रॉबर्ट विक्स कहते हैं कि समुद्र के पानी में नमक होता है.
इस वजह से विद्युतीय तरंगें उनसे प्रवाहित होती हैं. इनका ताल्लुक़ धरती के चुंबकीय क्षेत्र से होता है.
कुछ रिसर्च ने सूर्य के चाल चक्र का असर दिल के दौरे, मिर्गी के दौरे, डर और ख़ुदकुशी से पाया है. क्योंकि इनसे विद्युतीय तरंगे पैदा होती हैं.
कई बार तो इनसे पावर ग्रिड तक फेल हो जाती हैं. यही वजह है कि कुछ जानकार ये मानते हैं कि इनका हमारे दिल और दिमाग़ पर असर होता है.
क्रिप्टोक्रोम का अहम रोल
हालांकि अभी इस बारे में सीमित रिसर्च ही हुई है. कुछ कीड़ों, परिंदों और मछलियों मे तो चुंबकीय संवेदना होती है. लेकिन, इंसानों में ये गुण नहीं होता.
लेकिन, इस साल हुए एक रिसर्च के मुताबिक़, इंसानों पर चुंबकीय क्षेत्रों का असर होता है.
हालांकि इसकी हमारे जीवन में कितनी अहमियत है, इस बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं है.
लेकिन, ये तय है कि चुंबकीय तरंगों से हमारे दिमाग़ की गतिविधियां प्रभावित होती हैं.
वेहर को भी इस चुंबकीय क्षेत्र के ख़याल से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं. एक मक्खी के अंदर एक प्रोटीन होता है जिसका नाम होता है क्रिप्टोक्रोम.
ये एक चुंबकीय सेंसर का काम करता है. हमारे शरीर की जो जैविक घड़ी होती है, उसमे क्रिप्टोक्रोम का अहम रोल होता है.
चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण
हर कोशिका में मौजूद ये जैविक घड़ी, दिमाग़ की मास्टर क्लॉक से संचालित होती है.
जब ये क्रिप्टोक्रोम प्रोटीन फ्लैविन नाम के तत्व से मिलता है, तो इससे हमारे शरीर की जैविक घड़ी को ये संदेश जाता है कि अभी दिन है.
जब कुछ मक्खियों पर चुंबकीय किरणें डाली गईं, तो उनकी जैविक घड़ी की चाल बदल गई. इससे उनकी नींद भी उलट-पुलट हो गई.
अब अगर इंसानों के साथ ऐसा होता है, तो वेहर और एवरी को अपने मरीज़ों के बर्ताव की तह तक पहुंचने में क़ामयाबी मिल गई है.
लेकिन, इंसानों में क्रिप्टोक्रोम, मक्खियों से अलग व्यवहार करता है.
ऐसे में अब ये तर्क दिया जा सकता है कि वेहर और एवरी के मरीज़ों पर चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का असर होता है. जिससे उनका मूड प्रभावित होता है.
मरीज़ों के दिमाग़ पर असर
अराबडॉप्सिस थैलियाना नाम के एक पौधे पर हुई रिसर्च में पाया गया है कि उसकी जड़ों का विकास चंद्रमा के धरती का चक्कर लगाने के हिसाब से चलता है.
क्योंकि वो पानी में विकसित होता है और पानी की धार पर चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का असर होता देखा गया है.
अब अगर पौधों की कोशिकाओं पर चंद्रमा के चक्र का असर होता है, तो इंसानों की कोशिकाओं पर भी इसका प्रभाव होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.
वेहर मानते हैं कि चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति उनके मरीज़ों के दिमाग़ पर असर डालती है. इस बारे में कोई दो राय नहीं.
हालांकि वो चाहते हैं कि इस बारे में और रिसर्च की जाए.
-BBC
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