ब्रिटिश अर्थशास्त्री रिचर्ड लेयर्ड को खुशियों का शहंशाह कहा जाता है। उन्होंने खुशहाली को लेकर गहन शोध किया है और इस पर आधारित तमाम किताबें लिखी हैं, जिनमें हाल ही में छपी ‘द ओरिजिन्स ऑफ हैपिनेस’ भी शामिल है।
यूके सरकार के उच्च सदन के वह करीबी माने जाते हैं और उन्होंने खुशहाली बढ़ाने वाली नीतियां बनाने में सरकार की मदद भी की है…
खुशहाली के तत्व
खुश रहने के बाहरी और आंतरिक 2 कारण होते हैं। आमदनी- वैसे तो आमदनी खुशियां पाने में मददगार होती है फिर भी यह बहुत अहम नहीं है। ज्यादातर देशों में आमदनी की वजह से परिवारों के बीच खुशहाली के स्तर में 2 फीसदी से भी कम का अंतर पाया गया है।
संबंध- खुशियां पाने में संबंध अहम भूमिका निभाते हैं। फिर चाहे मानवीय संबंध हों, परिवार या फिर निजी संबंध। आपके आसपास कैसे लोग हैं, खुशियों के लिए यह भी मायने रखता है। आपके पास जॉब है और आप अपने काम को लेकर कितने खुश हैं, यह भी खुशहाली पर असर डालता है।
आंतरिक मामलों को देखें तो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य काफी अहमियत रखते हैं। ये पैमाने अमीर और गरीब, दोनों तरह के देशों पर समान रूप से लागू होते हैं।
उम्र, लिंग और सांस्कृतिक प्रभाव
शोध में स्त्री या पुरुष के खुश रहने के तत्वों में खास अंतर नहीं पाया गया है। हालांकि इस पर उम्र का कुछ असर पड़ता है। अमीर देशों में युवा और बुजुर्गों को ज्यादा खुश और संतुष्ट पाया गया। वहीं गरीब देशों में बुजुर्गों को ज्यादा चिंतित पाया गया जिसके लिए ज्यादातर स्वास्थ्य वजह होती है। संस्कृति का भी इस मामले में अहम स्थान है। ऐसे समाज में जहां उच्च स्तर की उदारता और सामाजिक तानाबाना मजबूत है, वहां ज्यादा खुशहाली देखी गई है। ऐसे देशों में जहां लोग एक दूसरे को सहयोग करते हैं, जहां ज्यादा आजादी हो और समाज में भ्रष्टाचार कम हो, वहां के लोग ज्यादा खुशमिजाज होते हैं।
पैसा बनाम खुशहाली
वैश्विक स्तर पर भले ही आमदनी बढ़ी हो लेकिन उस अनुपात में खुशहाली नहीं बढ़ सकी है। उपभोक्तावाद और व्यक्तिवाद मददगार साबित नहीं हो रहे। परिवारों, व्यापक सामाजिक और सामुदायिक जुड़ाव अब ज्यादा मायने रखने लगे हैं। स्कैंडिनेवियन यानी उत्तरी यूरोप के देशों में ज्यादा खुशहाली के लिए समानतावादी चरित्र बड़ी भूमिका निभाता है, जहां लोग एक दूसरे का ख्याल ज्यादा रखते हैं।
आर्थिक प्रगति बनाम खुशहाली
आंतरिक खुशहाली भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि बाहरी। उपभोक्तावाद की जद्दोजहद, यह सोच कि पैसा सारी समस्याएं खत्म कर देगा, खुद में एक समस्या है। खुद की तुलना दूसरों से करने के चलते हम पर अपेक्षाओं के स्तर को बढ़ाने का दबाव बढ़ता है। ऐसी स्थिति में खुशहाली वास्तविकता पर आधारित न होकर, लोगों की तय की गई उम्मीदों के स्तर पर निर्भर होने लगती है। सरकारों को आर्थिक लक्ष्य के साथ-साथ खुशहाली के लक्ष्य पर भी काम करना चाहिए।
-एजेंसी
Discover more from Up18 News
Subscribe to get the latest posts sent to your email.