अरसे बाद नया साल कांग्रेस के लिए नई उम्मीदें लाया है। राहुल की यात्रा ने कांग्रेस में नई जान डाल दी है।
राहुल लाओ, राहुल लाओ कांग्रेसियों का पुराना शोर रहा है। 2004 में जब वे राजनीति में आए तब से ही बड़ी जिम्मेदारी देने की मांग कांग्रेस में होती रही है। 2007 में वे बहुत मुश्किल से कांग्रेस के महासिचव होने के लिए माने थे। उसके बाद छह साल तक लगातार मांग होती रही कि वे कांग्रेस अध्यक्ष बनें, यूपीए सरकार में मंत्री पद संभाले। खुद उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनसे कहा। मगर वे नहीं माने। अन्तत: 2013 में वे कांग्रेस उपाध्यक्ष के लिए सहमत हुए। और फिर लंबा समय लेकर 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए।
इसे आप कह सकते हैं कि जैसे किसी एमेच्योर ( शौकिया) खिलाड़ी के प्रोफेशनल बनने की कहानी हो। लेकिन इसके बाद भी राहुल की मन:स्थिति में उतार चढ़ाव कम नहीं आए। 2019 में उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ दिया। और फिर बनने को तैयार नहीं हुए। पिछले साल 2022 में उन्होंने अपनी बात के मुताबिक गैर गांधी नेहरू परिवार का अध्यक्ष बनवा दिया। जिस बात पर किसी को यकीन नहीं था कि ऐसा होगा वह राहुल ने कर दिखाया। मगर पिछले साल का उससे भी बड़ा धमाका उनकी यात्रा रही। जिसकी गूंज अब मीडिया में भी सुनाई देने देने लगी है।
राहुल अब काफी हद तक राजनीतिक दिखाई देने लगे हैं। हालांकि अपनी राजनीतिक छवि को तोड़ने की वे अभी भी खुद कोशिश करते हैं। मगर कई बार छवि व्यक्ति पर वास्तविकता से भारी पड़ जाती है। और खुद व्यक्ति के मिटाए भी नहीं मिटती। यह कई बार अच्छा भी होता है। राहुल के लिए और उनसे ज्यादा कांग्रेस के लिए यह अच्छा है कि उनकी राजनीतिक छवि बने और दार्शनिक रंग कमजोर पड़े।
राहुल ने शनिवार को साल के आखिरी दिन दिल्ली में जो प्रेस कान्फ्रेंस की उसमें उन्होंने जिस तरह विपक्षी एकता की बात कही उसे कांग्रेस के बड़े नेताओं को खासतौर पर पार्टी अध्यक्ष खरगे जी को कांग्रेस के नए साल के संदेश के रूप में आगे ले जाना चाहिए। राहुल ने बहुत बड़ी बात कही और पहली बार कही कि देश में भाजपा के खिलाफ अंडर करंट है। यह यात्रा से प्राप्त राजनीतिक समझ थी। पहले बड़े नेता जिस भी किसी क्षेत्र का दौरा करके आते थे बता देते थे कि जीत रहे हैं या हालत टाइट है। ऐसे ही चुनावों से पहले ही उन्हें अंदाजा हो जाता था। यह राजनीतिक समझ है जो अनुभव से आती है। अटल बिहारी वाजपेयी, इन्दिरा गांधी और बाद के नेताओं में अर्जुन सिंह, मुफ्ती मोहम्मद सईद, अरुण जेटली इशारा कर देते थे कि स्थिति क्या है। जनता बोलती नहीं है। मगर उसकी आंखें, हाव भाव, कभी मौन, कभी मुखरता बता देती है कि कहानी क्या बन रही है।
हम पत्रकारों को भी जब जनता में ज्यादा घूमते हैं। बोलते कम सुनते ज्यादा हैं तो मालूम पड़ जाता है कि जमीन के नीचे क्या चल रहा है। पत्रकार अधिकाशत: सड़क के किनारे गांवों में ही जाते हैं। वहां भी चौराहे पर ही बात करते हैं। और ऐसे सवाल पूछते हैं जिससे मालूम पड़ जाता है कि वे क्या उत्तर चाह रहे हैं। सामने वाला वही उत्तर देकर अपनी जान बचा लेता है।
2009 के लोकसभा चुनाव में हम बहुत घूमे थे। और मतगणना से पहले लिखा कि कांग्रेस की 200 से उपर सीटें आ रही हैं। और यूपी में जहां हम बहुत ज्यादा घूमे थे 22 या 23 सीटें आ रही हैं। उस स्टोरी में हमने राज्यवार आंकड़ा दिया था। ऐसा रिस्क बहुत कम पत्रकार और अख़बार लेते हैं। लेकिन अगर आप आंख, कान खुले रखके और मुंह बंद करके सड़क से अंदर दस बीस किलोमीटर जाएं तो वहां के गावों से आपको हवा का अंदाजा हो जाता है।
राहुल की यात्रा में आज ऐसे ही दूर दराज के गांवों के लोग आ रहे हैं। समाज के हर वर्ग के। और राहुल ने जैसा उन्होंने इस प्रेस कान्प्रेंस में भी कहा कि वे लगातार सीखते हैं। और हर खुले दिमाग का आदमी सीखता है तो राहुल ने सुनना सीखा है। हम राहुल को 2004 से लगातार कवर कर रहे हैं। पत्रकारों के छोटे समूहों के अलावा और प्रोफेशनलों के कई समूहों के साथ उनकी बातचीत में रहे। तब वे सुनते तो थे। मगर अपनी राय भी व्यक्त करते थे। लेकिन अब राजीव गांधी की तरह वे ज्यादा सुनने में विश्वास करने लगे हैं। राजीव गांधी ग्रेट लिसनर ( बात सुनने वाले) थे। हमने उन्हें भी कवर किया है। वे दिन दिन भर गांव वालों के बीच बैठकर उनकी बात सुनते थे। राहुल में अब पिता का यह गुण आ रहा है।
राजीव को विपक्ष की राजनीति नहीं करना पड़ी। लेकिन सत्ता में भी अपनी स्वीकृति बनाना आसान नहीं होता। राजीव ने जब कंप्यूटर क्रान्ति की तब ही वे युवाओं के आदर्श बन सके। उन्हें बहुत कम समय मिला और विश्वासघात भी बड़ा हुआ। लेकिन फिर भी नेहरू के बाद अगर किसी ने देश के विकास का अजेंडा बदला तो वे राजीव गांधी ही थे। कंप्यूटर और संचार क्रान्ति के साथ 18 साल के युवा को मताधिकार ने देश में नई उर्जा और गति भर दी थी। उन्होंने कहा था भारत एक प्राचीन देश मगर युवा राष्ट्र है। मेरा भारत महान। देश की कंप्यूटर और संचार क्रान्ति के लिए यह उद्बोधन प्रेरणा बन गया था।
ऐसे ही राहुल का यह कथन कि मैंने नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोल ली है बहुत बड़ा परिवर्तन कर सकता है। कांग्रेस को इसे आगे ले जाना चाहिए।
दरअसल हर नेता की तरह राहुल के अंदर भी आदर्शवाद और व्यवहारिकता दोनों के अंश हैं। यह उनके साथ वालों पर निर्भर करता है कि वे इनका कैसे उपयोग करते हैं। कोई भी नेता ऐसा नहीं है जिसे मांजना नहीं पड़ा हो। नेहरू को गांधी ने मांजा था। इसीलए उनमें आदर्शवाद बहुत था। मगर समय से उन्होंने बहुत सीखा था। इसलिए यथार्थ के धरातल पर भारत का नव निर्माण कर सके। राहुल में आदर्शवाद तो वंशानुगत आया है। राजीव भी बहुत आदर्शवादी थे। कहते भी थे वे यह। मगर उन्होंने भी अनुभवों से सीखा। मगर इसी परिवार में इन्दिरा गांधी भी हुईं। एक आदर्शवादी नेहरू की बेटी और दूसरे आदर्शवादी राजीव की मां। मगर बेहद व्यवहारिक राजनीति करने वालीं।
तो राहुल का सबसे सीखने का दौर है। और सबसे ज्यादा अपने अनुभवों से। यह यात्रा जैसा कि वे खुद भी कहते हैं उनके जीवन का टर्निंग पांइट है से सबसे ज्यादा।
उन्होंने कहा कि 2024 में मोदी को हराया जा सकता है। कहा कि विपक्षी एकता हो सकती है। तो फिर उस दिशा में काम करना 2023 के पहले दिन से ही शुरू कर देना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी का जो ग्राफ 2014 से चढ़ना शुरू हुआ था। वह रुक गया है। और इसमें सबसे ज्यादा डेंट राहुल ने ही मारे हैं। आगे भी बड़ी जिम्मेदारी उनकी ही है। वे खुद कह चुके हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर केवल कांग्रेस ही भाजपा के लिए चुनौती है।
तो उन्हें अब अपनी ही कही बातों पर अमल करना होगा। जैसा साफ मध्य प्रदेश के बारे में बोला। कान्फिडेंस से वैसा ही देश के बारे में बोलना और उस पर व्यवहारिक काम करना शुरू करना होगा। दार्शनिक पक्ष को कुछ दिनों के लिए उठा कर रख देना होगा। और विपक्ष की एकता जो सबसे जरूरी है उस पर काम शुरू करना होगा।
नीतीश कुमार की तारीफ उन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले की थी। अब नीतीश उनकी कर रहे हैं। इसका राजनीतिक लाभ उठाकर उन्हें नीतीश को विपक्षी एकता के लिए आगे करने का काम शुरू करना चाहिए।
साभार – शकील अख्तर (लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)
Discover more from Up18 News
Subscribe to get the latest posts sent to your email.