विश्व पर्यावरण दिवस: क्या आपने आज साँस ली?

Cover Story

“क्या आपने आज साँस ली?” शायद हाँ। तो शुक्र मनाइए, लेकिन डॉक्टर का नहीं, सरकार का नहीं, उस प्रकृति का, जिसने बिना बिल भेजे, बिना पहचान माँगे, एक और दिन जीने का मौका दिया।

लेकिन अब ज़रा सोचिए, अगर कल सुबह से ऑक्सीजन मीटर लग जाए, और हर लीटर पर शुल्क तय हो जाए, तो क्या आप अपनी ओर अपने परिवार की साँसें ‘रिचार्ज’ कर पाएंगे?

प्रकृति ने हमें जो मुफ्त दिया, उसका हमने क्या किया?
शहरों को कंक्रीट से ढँक दिया, जंगलों को मॉल बना दिया, और पेड़ों को केवल फर्नीचर की तरह देखा।
आज विश्व पर्यावरण दिवस है मगर क्या हम अब भी उस पर्यावरण के कर्जदार नहीं हैं, जो हमें हर पल ज़िंदा रखे हुए है?

हर साल जब 5 जून आता है, दुनिया में हज़ारों पोस्टर, भाषण और रैली निकलती हैं पर्यावरण बचाने को लेकर। लेकिन क्या हमने कभी ठहरकर यह सोचा है कि हम वास्तव में क्या बचा रहे हैं? क्या हमें इसका अंदाज़ा भी है कि एक औसत व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितने पेड़ों की हत्या करता है, और कितने पेड़ों पर उसकी साँसें टिकी होती हैं?वही सांसे जो अस्पताल में सामान्यतःदो सौ रुपये से गहन चिकित्सा इकाई में पंद्रह सौ रुपये प्रति घण्टे तक मिलती है।

विज्ञान कहता है कि एक पूर्ण विकसित पेड़ सालभर में औसतन 100 से 120 किलो ऑक्सीजन उत्पन्न करता है। वहीं एक व्यक्ति को सालभर जीने के लिए करीब 730 किलो ऑक्सीजन चाहिए होती है। यानी केवल एक व्यक्ति की साँसें चलती रहें, इसके लिए कम से कम 6 से 7 पेड़ों की जरूरत होती है। अब ज़रा सोचिए ,भारत की जनसंख्या 140 करोड़ से अधिक है। इसका अर्थ है कि सिर्फ साँस लेने के लिए ही 98 से 100 अरब पेड़ों की जरूरत है, जबकि देश में वर्तमान में लगभग 28–30 अरब पेड़ बचे हैं। यह अंतर खतरनाक नहीं, बल्कि विनाश का संकेत है।

पर्यावरण केवल ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं करता, वह जीवन की रीढ़ है। फिर भी एक औसत मानव अपने जीवनकाल में फर्नीचर, किताबें, कागज़, घर, ईंधन, पैकिंग सामग्री और रोज़मर्रा की उपभोक्ता वस्तुओं में मिलाकर लगभग 60 पेड़ों के बराबर लकड़ी या कागज़ की सामग्री का उपयोग करता है। अगर फैशन और फर्नीचर के बढ़ते ट्रेंड को देखें तो यह आंकड़ा 100 तक पहुँचता है। यानी एक व्यक्ति, जिसे ज़िंदा रहने के लिए सात पेड़ चाहिए, वह अपने जीवनकाल में दस गुना अधिक पेड़ नष्ट कर देता है।

यानी हम सिर्फ प्रकृति से उधार नहीं ले रहे, हम उसे कर्ज में डुबो रहे हैं,और वो भी बिना लौटाने के इरादे के। पेड़, जो बिना मूल्य के हमें छांव, हवा, फल, पानी का संरक्षण और जीवन देते हैं उनके बदले हम उन्हें कुल्हाड़ी, कंक्रीट और उपेक्षा देते हैं।

विकास के नाम पर हर दिन भारत में औसतन 1350 हेक्टेयर जंगल काटे जा रहे हैं, जबकि वनीकरण की दर उससे कहीं कम है। शहरीकरण, सड़क निर्माण, औद्योगिकीकरण और खनन के कारण देश ने पिछले 30 वर्षों में लगभग 15% प्राकृतिक वन क्षेत्र खो दिया है। यह नुकसान केवल पेड़ों का नहीं, बल्कि उस पारिस्थितिकी तंत्र का है जिसमें लाखों प्रजातियाँ बसती थीं ,पक्षी, कीट, जानवर और हम जैसे इंसान भी।

लेकिन सवाल उठता है ,क्या हम इस सच्चाई को समझते हैं? शायद नहीं। क्योंकि अगर हम सचमुच समझते, तो हर घर में पौधारोपण एक अनिवार्यता होता, हर निर्माण से पहले हरियाली की योजना बनती, और हर स्कूल में “पेड़ लगाना” शिक्षा का हिस्सा होता,सिर्फ “प्रोजेक्ट” नहीं..!

हमारे शहरों में तापमान लगातार बढ़ रहा है, जल संकट गहराता जा रहा है, हवा में ज़हर भरता जा रहा है। दिल्ली, मुंबई, भोपाल, लखनऊ जैसे शहरों की AQI (Air Quality Index) कभी भी ‘सुरक्षित’ स्तर पर नहीं रहती। यह सब सिर्फ प्रदूषण नहीं, पेड़ों की कमी का भी परिणाम है। क्योंकि पेड़ केवल ऑक्सीजन नहीं देते, वे ज़हर को छानते भी हैं।

आज जब हम विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं, तो केवल भाषणों से नहीं, कर्मों से साबित करना होगा कि हमें पर्यावरण की चिंता है। हर नागरिक को यह समझना होगा कि पर्यावरण मंत्रालय, वन विभाग, या NGO अकेले इस युद्ध को नहीं जीत सकते। अगर आपको सांस लेना मुफ्त पसंद है, तो पेड़ लगाना, पेड़ बचाना, और पेड़ों को सम्मान देना आपकी जिम्मेदारी है।

यह कोई ‘ग्रीन एक्टिविज़्म’ नहीं, यह जीवन रक्षा का मूल मंत्र है। एक पौधा लगाकर आप किसी की सांसों को स्थायी सुरक्षा देते हैं। हर कटे पेड़ के लिए आप जब तक दस नहीं लगाएँगे, तब तक यह संतुलन बहाल नहीं होगा। क्योंकि प्रकृति बहुत कुछ सहती है, पर जब उसका हिसाब आता है तो वह महज़ रिपोर्ट कार्ड नहीं, जीवन की सजा बनकर सामने आती है।कोरोना काल भी उस भयावहता की नजीर ही रहा जहाँ हम धन की पोटली से सांसे खरीदते नजर आये।

इस विश्व पर्यावरण दिवस पर सिर्फ नारे मत लगाइए। अपने हिस्से के पेड़ लगाइए। और जो पहले काटे, उनकी भरपाई कीजिए। क्योंकि यह लड़ाई आपकी अगली पीढ़ी की साँसों की है।

बृजेश सिंह तोमर
(वरिष्ठ पत्रकार एवं आध्यात्मिक चिंतक)