आगरा, गगनकी गांव, नाम तो बड़ा गगनचुंबी है, लेकिन ज़मीनी हकीकत? वहां तक पहुंचने का रास्ता भी कीचड़ और मिट्टी से सना है, विकास की बातें तो खैर आसमान में ही रह गईं। और उसी गगनकी के पोखरा गांव में गुरुवार शाम करीब चार बजे शिक्षा के नाम पर एक और बदनुमा दाग लग गया। एक दस साल की बच्ची, चांदनी, जिसकी आंखों में शायद बड़े-बड़े सपने पल रहे थे, प्राथमिक विद्यालय की उसी जर्जर बाउंड्री वॉल और गेट के नीचे दबकर मर गई, जिसे कागज़ों पर ‘जर्जर’ घोषित कर दिया गया था। क्या खूब विकास है!
गुरुवार का दिन था, शाम के चार बज रहे थे। बारिश की सीलन ने उस ‘जर्जर’ बाउंड्री वॉल और ‘जर्जर’ गेट को और कमज़ोर कर दिया था। लगभग तीस मीटर लंबी दीवार और तीन मीटर का गेट, जिसे कब का गिरा देना चाहिए था, वो आज गिरा। और क्यों गिरा? क्योंकि हमारे सिस्टम को तो किसी की जान जाने का इंतज़ार रहता है! बच्चे स्कूल के बाहर खेल रहे थे, क्या करें? स्कूल अंदर से जर्जर है, तो बाहर ही खेलेंगे न! और तभी, मलबा गिरा, सीधे कक्षा पांच की छात्रा चांदनी पर। ग्रामीण दौड़े, चीखे, चिल्लाए, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चांदनी मौत के साये में हमेशा के लिए सो चुकी थी।
सवाल सिस्टम पर, जिसका जवाब खामोश है!
क्या किसी ने सोचा था कि जिस स्कूल को इसी साल जुलाई में ‘जर्जर’ घोषित किया गया था, वहां पढ़ाई जारी रहेगी? ज़ाहिर है, नहीं। सरकारी कागज़ों में तो सब कुछ दुरुस्त होता है, फाइलें आगे बढ़ती हैं, कमीशन तय होते हैं, लेकिन ज़मीन पर? बच्चे मौत के मुहाने पर खड़े होकर क, ख, ग सीखते हैं! पिछले दो दिनों से कोई शिक्षक स्कूल आया ही नहीं था, तो फिर यह कैसा स्कूल था? क्या यह बच्चों की सुरक्षा के प्रति हमारे शिक्षकों और शिक्षा विभाग की उदासीनता नहीं दर्शाता? या शायद उन्हें भी पता था कि यह दीवार कभी भी गिर सकती है और उन्होंने अपने ‘ज्ञान’ को सुरक्षित रखना ज़्यादा ज़रूरी समझा?
चांदनी के पिता केशव मुंबई में मज़दूरी करते हैं। पेट पालने के लिए अपने बच्चों से दूर रहना उनकी मजबूरी है। लेकिन क्या यह मजबूरी सिस्टम की लापरवाही का बहाना बन सकती है? चांदनी की मां जमुना देवी, दादी फूलों देवी और दादा बदन सिंह का रो-रोकर बुरा हाल है। कौन उन्हें जवाब देगा? कौन उनकी चांदनी लौटाएगा?
राजस्व टीम में कानूनगो रामनिवास, लेखपाल राघवेंद्र गौतम और प्रधान राजेश भी मौके पर पहुंचे। क्या उनका आना सिर्फ औपचारिकता पूरी करने के लिए था? क्या अब कुछ कागज़ फिर से काले किए जाएंगे, कुछ रिपोर्टें बनाई जाएंगी और फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा?
विकास के खोखले वादे और एक बच्ची का बलिदान
गगनकी गांव तक पहुंचने का कोई पक्का रास्ता नहीं है। चांदनी के शव को पोस्टमार्टम के लिए ले जाने के लिए यमुना के किनारे ट्रैक्टर से रास्ता बनाया गया। यह है हमारे ‘न्यू इंडिया’ की तस्वीर! जहां तक सड़क नहीं पहुंचती, वहां तक शिक्षा की रोशनी क्या ख़ाक पहुंचेगी?
यह सिर्फ एक हादसा नहीं है, यह एक गहरी चोट है हमारे शिक्षा तंत्र पर, हमारे प्रशासनिक ढांचे पर। यह उस व्यवस्था पर सवाल है जो सिर्फ कागज़ी कार्रवाई और खोखले वादों में उलझी रहती है। चांदनी की मौत ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि गरीबों के बच्चों की जान की कीमत सिर्फ उतनी ही है, जितनी एक जर्जर दीवार की। अब इंतज़ार है, क्या इस बार भी जांच के नाम पर लीपापोती होगी, या कोई ज़िम्मेदार अपनी कुर्सी से हिलेगा? या फिर, अगली बार, किसी और चांदनी के मरने का इंतज़ार होगा? जवाब का इंतज़ार है… पर शायद जवाब देने वाला कोई नहीं है।
-मोहम्मद शाहिद की कलम से