इस व्रत की असीम महिमा है। इस वृतांत में सतीत्व के प्रताप से कालपुरुष को भी बेबस होते देख सकते हैं ,तो वहीं इसके साथ – साथ पर्यावरण की सुरक्षा और दैवीय शक्ति का प्रमाण भी मिलता है। आज इस प्रदूषित वातावरण में स्वांस लेती दुनिया को जितनी आवश्यकता स्वच्छ वायु और स्वस्थ पर्यावरण की है, उतनी और किसी चीज की नहीं है। इसका संदेश पौराणिक काल से चली आ रही इस सतीसावित्री की वटपूजा से हमें मिलता है। पुरुष प्रभुत्व समाज में स्त्री को अबला बना दिया गया, ऐसी भ्रांतियों पर भी वज्राघात करता, इस पूजा का इतिहास हमें बताता है, कि स्त्री की शक्ति प्रचण्ड है। जिसके वेग से काल चक्र भी अपनी गति भूल जाते हैं।
वट सावित्री पूजा का प्रारंभ सावित्री नामक महान सती नारी के सतीत्व की कसौटी पर आधारित है। सती सावित्री का पति के प्रति सच्ची निष्ठा, अद्भुत प्रेम और पति परायणता का अन्य दूसरा मिसाल अन्यत्र और कहीं नहीं मिलेगा। सावित्री की सत्यनिष्ठा मृत्यु को और मृत्यु के साक्षात देवता यमराज को भी जीत लेती है। सावित्री जैसी महान स्त्री ने (पुरुष) पति से बढ़कर संसार में और कोई वर नहीं! ऐसे हिंदू और पति प्रणेता की अप्रतिम मिसाल रखी है। ऐसी स्त्री जाति की महानतम त्याग समर्पण और प्रेम की परंपरा डालने वाली सती सावित्री एक स्त्री ही तो थी, जिसने पुरुष के अहं को हमेशा सहा और कभी उसके खिलाफ उफ तक नहीं किया। पर उसी (पुरुष) पति के जीवन बचाने के लिये वह साक्षात रणचंडी का रूप धारण कर सकती है। और मृत्यु (यमराज) को भी अपना निर्णय बदलने पर विवश कर सकने वाली अमोध शक्ति का उदाहरण बनकर दिखा सकती है। स्त्री की उसी त्याग शक्ति और पतिव्रता की परंपरा को बनाये रखने के लिये आज भी हिन्दू स्त्रियाँ अपने पति की लंबी उम्र और कुशलता के लिये वट सावित्री की पूजा ,पूरे मन वचन कर्म से करती हैं।
वट वृक्ष जिसमें ब्रम्हाजी का वास माना जाता है। उसे ही पति का प्रतीक मानकर इस व्रत में पूजा जाता है। वट वृक्ष की पूजा करने का एक और कारण यह भी है कि सती सावित्री ब्रम्हाजी से वरदान पाकर ही अपने पति सत्यवान को जीवनदान दिला पाती है। सावित्री व्रत पूजा के दिन प्रातः सूर्योदय के समय ही हर सुहागन स्त्री नित्यकर्म से होकर एवं निराहार रहकर वह व्रत रखती हैं। इसकी पूजा पूरे दिन की जा सकती है, पर दोपहर की संधि बेला सबसे अत्युत्तम मानी गई हैं। नववधु पूर्ण श्रृंगार का पूजा करती है।
वट सावित्री पूजा की सामग्री में कच्चा धागा, कच्चे धागे का ही बनाया हुआ माला, बांस निर्मित पंखा चंदन सुहाग की पूरी सामग्री, फेरे लगाने (वृक्ष) की बड़ी, फल, चना भीगा हुआ, नारियल, पूड़ी और मीठे आटे का बरगद फल भी बनाकर रखी जाती है।
पूजा विधि: सबसे पहले वट वृक्ष में जल चढ़ाते हैं। फिर चंदन व प्रसाद, फल आदि चढ़ाकर वट वृक्ष की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा अपनी श्रद्धा और शक्ति अनुसार ग्यारह, इक्कीस, इंक्यावन या एक सौ एक बार की जा सकती है। परिक्रमा के दौरान चना, मूँगफली, इलायची आदि अपनी इच्छानुसार कच्चे धागे को भी लपेटकर अर्पित किया जाता है। इसके बाद कच्चा पीला धागा वटवृक्ष में अर्पित कर उसे बदलकर धारण किया जाता है। ग्यारह माला बनाकर अन्यों को भी प्रसाद रूप में इसे वितरित किया जाता है। सबसे अंत में सृष्टि के नियामक ब्रम्हा से अपने पति की लंबी आयु की प्रार्थना करते हुये हर स्त्री पति के लंबी आयु की कामना करती है। और अपने पतिव्रत धर्म का संकल्प दोहराती हैं।
पूजा संपन्न हो जाने के बाद ही ग्यारह कच्चे चने के साथ बरगद का फल (ग्यारह) खाकर प्रसाद, ग्रहण करने का प्रावधान है। वट सावित्री पूजा में सोमावती अमावस्या पड़ने के कारण पीपल वृक्ष की भी पूजा की जाती है। वैसे भी शास्त्रों में यह कहा भी गया है कि पीपल वृक्ष में तैतीस करोड़ देवताओं का वास होता है। अतः इस वृक्ष की अर्चना से करोड़ों देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
वट सावित्री पूजा का इतिहास निम्न प्रकार से है।
मद्र देश की अत्यंत रूपवती राजकुमारी सावित्री थी। भरा पूरा सम्पन्न राज्य था जहाँ की राजकुमारी सावित्री अनिंद्य सुंदरी स्त्री थी। विवाह का समय आने पर उसने (लोक कल्याण हेतु) यह घोषणा की कि कल प्रातः जो भी व्यक्ति उसे सर्वप्रथम महल के सामने से जाता दिखाई पड़ेगा वही उसका पति होगा। दूसरे दिन प्रातः सावित्री को एक गरीब लकड़हारा सत्यवान सबसे पहले दिखाई देता है। सो वह उसे ही अपना पति मानकर उसका वरण कर लेती है। इस पर उनका भारी विरोध होता है। उनके पिता महाराज भी उन्हें खूब समझाते हैं कि एक से एक वीर राजकुमार हैं जिनसे तुम्हारा विवाह कर दिया जायेगा। क्योंकि एक गरीब लकड़हारे को वे अपना दामाद स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। पर अपनी पुत्री सावित्री के हठ पर उन्हें क्रोध आ जाता है और दोनों को ही वे राजमहल से निकाल देते हैं। और कहते हैं देखता हूँ तू इस लकड़हारे के साथ कैसे सुखी रहती है। पर ऐशो आराम वैभव में पली हुई सुकुमार राजकुमारी सावित्री ने भी अपने दीनहीन अवस्था के समय पूरी निष्ठा से पतिव्रत धर्म का पालन करते हुये कभी भी ऐश्वर्य के अभाव का बोध नहीं किया।
ऐसे ही प्रेम से दोनों पति पत्नी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। इसी दौरान लकड़ी काटते समय एक दिन भयंकर विषधर सांप ने सत्यवान को डंस लिया। जिससे उसके प्राणों पर बन आती है। यह बात जब सती सावित्री को ज्ञात होता है कि पति को भयंकर युद्ध सांप ने डस लिया है और पति सत्यवान की मृत्यु करीब है, तो वह पति के जीवन रक्षा के लिये उपक्रम में जुट जाती है। सावित्री को उसके सतीत्व के कारण ही – दिव्य दृष्टि का वरदान प्राप्त था कि वह मृत्यु के देवता यमराज को साक्षात देख सकती है । बस! वह जब उसके पति सत्यवान के प्राण लेने के लिये आते हैं तो सती सावित्री उन्हें अपने पति के प्राण ले जाने नहीं देती। वह उनसे प्रार्थना करती है कि मेरे पति के प्राण आप न लें। यमराज उन्हें अपनी विवशता बताते हैं कि विधि के विधान पर मैं कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। उसकी निष्ठा और तेज देखकर यमराज भी अपने कार्य में कठिनाई का अनुभव करते हैं। तब वे विवश होकर सती को सृष्टिकर्ता ब्रम्हाजी के पास जाने को कहते हैं। और कहते हैं कि तुम्हारे पति सत्यवान को वही जीवनदान दे सकते हैं। सावित्री ब्रम्हलोक पहुँच जाती हैं। जहाँ वह अपने पति का जीवन माँगती हैं। तब ब्रम्हाजी कहते हैं कि पति का जीवन छोड़कर तू कुछ भी मॉग ले । तब सती सावित्री उनसे सौ पुत्रों का वरदान माँगती हैं।
ब्रम्हा द्वारा “तथास्तु”, कहकर उसे वर देने के बाद सती उनसे प्रश्न करती हैं – हे परमपिता ब्रम्हा जब’ मेरे पति ही नहीं रहेंगे, तो मेरे सौ पुत्र कैसे होंगे। ब्रम्हाजी यह सुनकर समझ जाते हैं कि वे वर देकर अपने ही वचन में फँस चुके हैं। और तब विधाता (ब्रम्हा) को अपना निधि नियम बदलना पड़ता है। यह वह नियम है जो कभी भी किसी भी हालत में नहीं बदला जा सकता है। पर विधि का विधान भी एक सती के सतीत्व के प्रताप और तेज के सामने उन्हें बदलना पड़ा। एक सती का तेज स्वयं ब्रम्हा को भी डिगाकर सृष्टि के नियम को छिन्न भिन्न कर सकता है। ऐसी आद्यशक्ति का प्रचुर भण्डार सती के तेज में होता है।
अंततः ब्रम्हाजी सावित्री को अनेकों वर प्रदान कर ब्रम्हलोक से विदा करते हैं। यमराज भी जो सत्यवान के प्राण लेने उद्यत खड़े थे, उन्हें भी अपना पाशबंधन खाली समेटकर रखना पड़ता है, और सती सावित्री एवं सत्यवान को आर्शिवाद प्रदान कर वे भी चले जाते हैं। सती सावित्री और सत्यवान इसके बाद सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं ।
– सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”