आखिर कब तक मिलती रहेगी तारीख पर तारीख…

अन्तर्द्वन्द

इस बात पर सभी सहमत है कि भारत को न्यायिक सुधारों की जरूरत है। इस पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना कि दूसरी चीजों पर दिया जाता है। हमारे पास बुनियादी ढांचे के बड़े बड़े प्रोजेक्ट्स हैं। हमने जीएसटी में सुधार किए हैं, हमने हर नागरिक को प्रभावित करने वाले आधार कार्ड बनाएं, बहुत सारी शासकीय सेवाओं का डिजिटलीकरण कर दिया है। लेकिन न्यायिक सुधारों के सवालों पर आकर हमारी सुई अटक जाती है।

आज कितने मुकदमे लंबित पड़े हैं। उनके डराने वाले आंकड़ों में जाने की जरूरत नहीं है। ऐसी कहानियों की भी कोई आवश्यकता नहीं जो बताती है कि कैसे कुछ लोगों को न्याय के लिए दशकों तक इंतजार करना पड़ा है। हम सब को यह सब अच्छी तरह से पता है। एक विकसित देश की पहचान उसके त्वरित और न्यायपूर्ण सिस्टम से होती है। हम उम्मीद करते हैं कि एक दिन हम भी उन्हीं देशों में शुमार हो सकेंगे। लेकिन न्यायिक तंत्र को तेज तर्रार बनाना इतना सरल भी नहीं है। जैसे सड़कों, रेलगाड़ियों और बंदरगाहों के लिए पैसा दिया है। उसी तरह न्यायपालिका के लिए भी बजटीय आवंटन बढ़ाने की जरूरत है। विदेशी निवेशक भारत को पसंद करते हैं। लेकिन उन्हें अनुबंध संबंधी विवाद की स्थिति में पड़ने पर अदालतों की धीमी गति चिंतित करती है।

दूसरा अधिक अदालत भवन बनाना और वर्चुअल कोर्ट की व्यवस्था करना हमारे पास पर्याप्त अदालतें या कार्यालय नहीं है। न्यायमूर्ति एन वी रमण ने न्याय तक पहुंच को सामाजिक उद्धार का उपकरण बताते हुए कहा था कि जनसंख्या का बहुत कम हिस्सा ही अदालतों में पहुंच पाता है। अधिकतर लोग जागरूकता एवं आवश्यक माध्यमों के अभाव में मौन रहकर पीड़ा सहते रहते हैं। उन्होंने न्यायपालिका से न्याय देने की गति बढ़ाने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी उपकरण अपनाने का आग्रह भी किया था। न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक) न्याय की इसी सोच का वादा हमारी संविधान की प्रस्तावना प्रत्येक भारतीय से करती है। वास्तविकता यह है कि आज हमारी आबादी का केवल एक छोटा प्रतिशत ही न्याय देने वाली प्रणाली से जरूरत पड़ने पर संपर्क करता है।

आधुनिक भारत का निर्माण समाज में असमानता को दूर करने के लक्ष्य के साथ किया गया था। लोकतंत्र का मतलब सभी की भागीदारी के लिए स्थान मुहैया कराना है। सामाजिक उद्धार के बिना यह भागीदारी संभव नहीं होगी। न्याय तक पहुंच सामाजिक उद्धार का एक साधन है। विचारधीन कैदियों को कानूनी सहायता देने और उनकी रिहाई सुनिश्चित करने पर देश में कानूनी सेवा अधिकारियों के हस्तक्षेप और सक्रिय रूप से विचार किए जाने की आवश्यकता है। पूर्व में देश के प्रधानमंत्री भी कह चुके हैं कि न्याय मिलने में देरी देश के लोगों के सामने बड़ी चुनौतियों में से एक है।

यदि भारतीय न्यायिक व्यवस्था का चिंतन करें तो हम पाते हैं कि न्यायाधीशों की कमी न्याय व्यवस्था की खामियां और लचर बुनियादी ढांचा जैसे कई कारणों से न्यायालय में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। दूसरी ओर न्यायाधीशों व न्यायिक कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। न्याय में देरी अन्याय कहलाती है। लेकिन देश की न्यायिक व्यवस्था को यह विडंबना तेजी से घेरती जा रही है।

भारत के सभी न्यायालय में लगभग 3.5 करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें से कई मामले लंबे समय से लंबित है। मामलों का लंबित होना पीड़ितों और ऐसे लोगों को जो किसी मामले के चलते जेल में कैद किंतु उन को दोषी करार नहीं दिया गया है। दोनों दृष्टिकोण से अन्याय को जन्म देता है। कुछ मामले ऐसे भी हैं जब आरोपी को दोषी ठहराए जाने में 30 वर्ष तक का समय लगा हालांकि तब तक आरोपी की मृत्यु हो चुकी थी। दूसरी ओर भारत की जेलों में बड़ी संख्या में ऐसे विचारधीन कैदी बंद हैं जिनके मामले में अब तक निर्णय नहीं लिया जा सका है। कई बार ऐसी स्थिति भी आती है जब कैदी अपने आरोपों के दंड से अधिक समय कैद में बिता देते हैं। कुछ को तो अनेक वर्षों तक जेलों में रहने के पश्चात न्यायालय द्वारा आरोप मुक्त कर दिया जाता है। पुलिस द्वारा ऐसे आरोप भी लगा कर युवाओं पर मुकदमे दर्ज किए जाते हैं जिनमें वह बाद में बरी हो जाते हैं परंतु उनका भविष्य खराब हो जाता है। ऐसी स्थिति में सुधार की आवश्यकता है।

लेखक- रियाज अहमद सहारनपुर यूपी


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