‘गांव घर फाउंडेशन’ ने पर्यटन और किताबों का अद्भुत मेल करने की ठानी और मणिगुह को पुस्तकालय गांव बना दिया। उनके द्वारा किताबों को मंदिर से जोड़ दिया गया है ताकि लोग किताबों को धर्म से जोड़ने लगे।
उत्तराखंड की सुंदर और शांत पहाड़ियों को यदि इस तरह कला, पुस्तकालय से जोड़ दिया जाए तो प्रदेश का पर्यटन दोगुनी रफ्तार पकड़ लेगा। इसका उदाहरण लेते हुए प्रकृति और किताबों का यह मेल हमारे देश की तस्वीर भी बदल सकता है।
‘गांव घर फाउंडेशन’ चार लोगों का फाउंडेशन है। जिसमें रेख़्ता फाउंडेशन की पहल सूफ़ीनामा से जुड़े सुमन मिश्रा, उनकी पत्नी बीना नेगी, आलोक सोनी और राहुल रावत शामिल हैं। बीना नेगी और राहुल रावत उन करोड़ों उत्तराखण्डियों में से हैं, जिनके पिता मूलभूत सुविधाओं के आभाव में गाँव से पलायन कर दिल्ली में बस गए। आलोक सोनी मीडिया जगत में जाना माना नाम हैं, वह हिंदुस्तान टाइम्स से लंबे समय तक जुड़े रहे।
कैसे पड़ी पुस्तकालय गांव की नींव।
पिछले साल 2022 में इन चारों ने सोचा कि उत्तराखण्ड के मणिगुह गांव में पहाड़ के लोगों के लिए क्या काम किया जा सकता है और इस पर उन्होंने रिसर्च शुरू किया।
सुमन मिश्रा उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले के मणिगुह गांव को ही अपने काम के लिए चुने जाने के सवाल पर बताते है कि उनकी पत्नी भी इसी क्षेत्र से आती हैं और वह इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति से अच्छी तरह से वाकिफ है।
पहाड़ में कोई काम शुरू करना हो तो पर्यटन से जुड़ा कोई भी कार्य सबसे बेहतर होता है। पर्यटकों को मणिगुह की तरफ आकर्षित करने के लिए गांव घर फाउंडेशन ने महाराष्ट्र के महाबलेश्वर से सत्रह किलोमीटर दूर स्थित भिलार गांव का उदाहरण लिया। भिलार गांव देश के पहले ‘पुस्तक गांव’ के रूप में प्रसिद्ध है और सुमन मिश्रा की टीम ने मणिगुह को भी भिलार की तरह किसी विशेष थीम पर विकसित करने का विचार किया। विकल्प के रूप में उनके सामने लोकतांत्रिक गांव, कला गांव, पुस्तकालय गांव उपलब्ध थे।
पुस्तकालय गांव बनाने में यह समस्या थी कि आजकल लोग मोबाइल में इतना डूब गए हैं कि किताब नही पढ़ते तो वह पुस्तकालय क्यों आएंगे, तब उन्होंने सोचा कि पुस्तकालय को गांव की पहचान से जोड़ दिया जाए तो लोग अपनी पहचान बचाने जरूर आगे आएंगे। इस तरह उन्होंने मणिगुह में एक पुस्तकालय शुरू किया।
कहां है मणिगुह
दिल्ली से अगर आपको मणिगुह आना है तो दिल्ली -हरिद्वार- देवप्रयाग-रुद्रप्रयाग-अगस्त्यमुनि होते हुए मणिगुह पहुंचा जा सकता है। अगस्त्यमुनि तक आप को चौड़ी सड़क मिलती है और अगस्त्यमुनि के बाद बारह किलोमीटर के एक पहाड़ी रास्ते पर आप को ऊपर मणिगुह आना होगा। अगस्त्यमुनि से मणिगुह आने के लिए टैक्सी मिलती है ,जो प्रति यात्री 80 रुपए में आप को मणिगुह पहुंचाती है। अगस्त्यमुनि से मणिगुह तक का सफ़र आधे घंटे का है। गांव-घर फाउंडेशन गूगल मैप पर भी है, जिसकी मदद से भी पुस्तकालय गांव पहुंचा जा सकता है।
पुस्तकालय गांव के शुरुआती परिणाम
सुमन मिश्रा कहते हैं कि एक साल पहले जब उन्होंने पुस्तकालय गांव की परिकल्पना की थी तब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर उन्होंने गांव के पुस्तकालय में किताब पढ़ती महिलाओं की तस्वीर बनाई थी।
आज वह कल्पना यथार्थ में बदल गई है, पुस्तकालय में पढ़ती मातृशक्ति की तस्वीर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा बनाई गई तस्वीरों से कहीं ज्यादा खूबसूरत है।
पुस्तकालय गांव में विभिन्न विषयों पर दस हजार से ज्यादा किताबें उपलब्ध हैं और साथ ही प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के लिए भी सैकड़ों किताबें रखी गई हैं। इन किताबों में कई लेखकों, कवियों का निजी संग्रह भी शामिल है जो और कहीं नही मिलता। इनमें ललित मोहन थपलियाल, शशि भूषण द्विवेदी, भगवान सिंह और अविनाश मिश्र शामिल हैं। उर्दू साहित्य का भी एक बढ़ा संग्रह यहां देवनागरी में उपलब्ध है।
गांव के बच्चों को कंप्यूटर सीखने के लिए पहले अगस्त्यमुनि जाना पड़ता था लेकिन अब फाउंडेशन ने गांव में ही कंप्यूटर उपलब्ध करवा दिए हैं। ऑनलाइन अंग्रेजी क्लास और साथ में प्रोजेक्टर पर स्मार्ट क्लास की सुविधा भी पुस्तकालय में उपलब्ध है, पुस्तकालय में बच्चों, बड़ों की भीड़ रहने लगी है।
जिनकी पहुंच से दूर पुस्तकालय, उनके लिए पुस्तकालय मंदिर
सुमन मिश्रा कहते हैं कि सिर्फ एक पुस्तकालय से किसी गांव को पुस्तकालय गांव नही कहा जा सकता है, पहाड़ के गांवों में लोग जंगली जानवरों के डर से जल्दी ही अपने घरों में कैद हो जाते हैं या घर से ज्यादा दूर नही जाते। इस वजह से उन्होंने मणिगुह के आसपास के क्षेत्रों में पुस्तकालय मंदिर बनाए, यह पुस्तकालय मंदिर अस्पताल, स्कूल, मंदिर जैसी जगहों के आसपास रखे गए हैं। इनकी छत फाइबर से बनी है और इनमें कुछ किताबें रख दी गई हैं, इन पुस्तकालय मंदिरों की चाबी लड़कियों के हाथ में दी गई हैं। पुस्तकालय को मंदिर से जोड़ने की वजह से लोग अब किताबों को धर्म से जोड़कर देखने लगे हैं और उनका झुकाव किताबों की तरफ बढ़ गया है।
पुस्तकालय गांव बनने में आई मुश्किलों का बाद अब मिलने लगी सफलता
गांव में पुस्तकालय खोलने और उसके आधार पर गांव का विकास करने में जातिवाद से जुड़ी समस्या सामने आई। आज भी भारत के गांव जाति के आधार पर बंटे होते हैं और मणिगुह भी इससे अलग नही है। फाउंडेशन को इस समस्या से दो चार होना पड़ा। गांव के सभी लोगों को पुस्तकालय से जुड़े कामों में एक साथ जोड़ना मुश्किल होने लगा।
सुमन मिश्रा कहते हैं कि उन्होंने देखा कि लोग गांव से बाहर निकल जब अगस्तमुनि जाते हैं तो किसी की जाति नही पूछते। यही लोग जब बड़े शहरों में बाहर निकलते हैं तो इन्हें किसी की जाति से मतलब नही रहता।
इसका अर्थ यह है कि सुविधा और विकास, जातिवाद या अन्य सामाजिक मतभेद खत्म कर देता है। जैसे
दिल्ली में पहले लिविंग रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों को घर नही मिलते थे पर जब एक नही तो कोई और उन्हें घर देने लगा तो सब देने लगे, लोगों को समझ आने लगा कि आप सुविधा नही देंगे तो दूसरा आपसे आगे निकल जाएगा।
इसी अनुभव से उन्होंने एक प्रयोग किया, पर्यटन के साथ किताब और गांव में सबका विकास। सुमन मिश्रा ने गांव वालों को अपने आसपास की सुंदर पहाड़ियों में घूमने आए लोगों के लिए होम स्टे खोलने के लिए प्रेरित किया, इन पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए ही इस जगह को पुस्तकालय गांव के तौर पर विकसित करने का सुझाव दिया। गांव के ही कुछ लोगों की समिति इस होम स्टे का संचालन करती है, गांव वालों को यह न लगे कि पुस्तकालय सिर्फ ‘गांव घर फाउंडेशन’ का है। इसके लिए उनसे कहा गया कि होम स्टे से मिलने वाले किराए का कुछ हिस्सा पुस्तकालय के लिए भी दिया जाए ताकि वह गांव वालों का पुस्तकालय भी रहे।
इस तरह गांव के लोग अब इतने जागरूक हो चुके हैं कि उनके आर्थिक विकास की परिभाषा में पुस्तकालय का विकास भी शामिल है।
सुमन मिश्रा कहते हैं कि हाल ही में इन होम स्टे में रहने कुछ अतिथि पुस्तकालय गांव पहुंचे। स्थानीय घरों में रह कर पहाड़ी व्यंजनों का आनन्द लेते हुए गांव के बच्चों से संवाद और प्रकृति की गोद में हजारों किताबों का सानिध्य यह पुस्तकालय गांव में ही संभव है।
पढ़ने-पढ़ाने की एक अनोखी संस्कृति विकसित हो रही है, जिससे गांव के लोगों का आर्थिक और बौद्धिक विकास हो रहा है।
अन्य गांवों के लोग भी पुस्तकालय गांव खोलने में दिखा रहे हैं रुचि
सुमन मिश्रा कहते हैं कि कुछ दिनों में देश भर से कई लोगों ने हमसे संपर्क किया है और इनमें से अधिकतर दिल्ली या दूसरे बड़े शहरों में रहने वाले उत्तराखण्ड के निवासी हैं। यह सब लोग चाहते हैं कि वह अपने पैतृक गांव में भी ऐसी ही लाइब्रेरी शुरू करें।
लाइब्रेरी शुरू करना मुश्किल नही है, उसे सुचारू रूप से चला पाना असल चुनौती है। कई पुस्तकालय इस वजह से बंद हो जाते हैं कि वहां लाइब्रेरियन की व्यवस्था नही है। स्थानीय लोगों को साथ लेकर और उनकी समस्याओं का हल निकालकर कोई पुस्तकालय बनाया जाए तो स्थानीय लोगों की रुचि उस तरफ बढ़ती है।
इंस्टाग्राम, फेसबुक रील्स के इस दौर में किताबें तो रखी जा सकती हैं लेकिन पाठक तैयार करना असल चुनौती है, भारतीय गांवों की चुनौतियां वैसे ही कम नहीं होती हैं। कई ग्रामीण इलाक़ों तक तो सड़क भी नहीं पहुंची होती है।
यह तय है कि भविष्य में प्रकृति और किताबों का यह मेल देश के गांवों की तस्वीर जरूर बदल देगा।