पद्मश्री की वेदना: ब्रज साहित्य व संस्कृति के प्रति कृतघ्नता की पराकाष्‍ठा

विविध

इतिहास, साहित्य तथा संस्कृति आदि विशिष्‍टताओं के कारण ब्रज की संस्कृति इतनी समृद्ध रही है कि वह भारतीय संस्कृति का पर्याय बन चुकी है। राधा-कृष्‍ण की जन्मभूमि, ब्रजभाषा जैसी माधुर्यमयी समृद्ध भाषा, वात्सल्य और भक्ति रस के महान कवि सूरदास, सन्त-संगीतज्ञ स्वामी हरिदास आदि के अप्रतिम योगदान से ब्रज का महत्त्वपूर्ण स्थान होने पर भी आज ब्रजभूमि, ब्रज – साहित्य और ब्रज संस्कृति तथा उनके आराधकों के प्रति शासन के कर्णधार तथा जन-प्रतिनिधि ही नहीं ब्रजवासी भी कृतघ्नता की पराकाष्‍ठा में हैं।

पद्मश्री मोहन स्वरूप भाटिया ने वेदना के साथ कहा है कि ब्रज के ग्रामीण अंचल में बिखरी लोकगीत-लोक कथाओं की पारम्परिक निधि संरक्षण के अभाव में समाप्ति की ओर है। महाकवि सूरदास ने जहाँ 73 वर्ष रहकर साधना की, सवा लाख पदों की रचना की, ब्रज के मन्दिरों में मंगला से शयन तक जिनके पदों का गायन होता है। उन महाकवि सूरदास की 8 ×10 फुट में सिमटी कुटिया हमारी कृतघ्नता को दिखा रही है।

कवि शिरोमणि जगन्नाथ दास रत्नाकर के गुरु नवनीत चतुर्वेदी, ‘अमृत ध्वनि’ छन्द के प्रस्तोता, विद्वान साहित्यकार डा. सत्येन्द्र, प्रभुदयाल मीतल, संगीतज्ञ चन्दन जी चौबे आदि को भी हम भुला चुके हैं।

ब्रज-साहित्य व संस्कृति के प्रति उपेक्षा का एक कारण यह भी है कि संस्कृति मंत्री और संस्कृति विभाग के अधिकारियों ने समृद्धतम ब्रज – संस्कृति के प्रति घोर उपेक्षा की है। इसका प्रमाण यह है कि उत्तर प्रदेश में उर्दू अकादमी है, सिन्धी अकादमी है, पंजाबी अकादमी है किन्तु सबसे समृद्ध, सबसे अधिक बोली जाने वाली तथा सबसे मिठलौनी भाषा ब्रजभाषा की अकादमी नहीं है।

इस संबंध में स्‍वयं को राधा की भक्त बताने वाली सांसद हेमामालिनी और लोक संस्कृति स्थलों में जन्मे- पले यहां के विधायकों के प्रयास भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे, अत: ब्रज अवहेलना से यहां मौजूद थातियां या तो नष्‍ट हो चुकी हैं या फिर जोबची हैं वे अपने अंतिम दौर में हैं।

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