लापता लेडीज और मेरी नानी की कहानी: बहुत मज़े से लेकिन बहुत गहरी बातें कह गई फिल्म

अन्तर्द्वन्द

अभी दो दिन पहले नेटफ्लिक्स पर ” लापता लेडीज” देखी। फिल्म कमाल की है। एक बार देखना शुरू करो तो बस समाप्त होने पर ही उठ पाओ ऐसी। और फिल्म खत्म होने के बाद भी उसके बारे में ही सोचते रहो । बहुत मज़े से लेकिन बहुत गहरी बातें कही गई हैं फिल्म में। कई लोग फिल्म के बारे में लिखेंगे और लिख रहे हैं इसलिए यहां फिल्म की अधिक चर्चा नही। सिर्फ इतना ही कि ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए।

फिल्म में एक किरदार सहृदय स्टेशन मास्टर का भी है जो हमारे मित्र विवेक सावरीकर ने निभाया है। विवेक अच्छे अभिनेता हैं और उन्होंने इस छोटे से किरदार को भी प्रभावी बना दिया है। अपने मित्र को बड़े पर्दे की फिल्म में देखना सुखद था। फिल्म कुछ मित्रो के साथ देख रहे थे तो उनमें से एक ने कहा ” ये आपके मित्र हैं वो तो अच्छा है । लेकिन ऐसे सहृदय लोग रेलवे में कहां मिलते हैं।” आम तौर पर धारणा यही बनती है , लेकिन अभी हाल का हमारा अनुभव कुछ ऐसा था कि इस बात पर भी विश्वास हो गया कि ऐसे लोग भी होते है। बल्कि यूं कहें ऐसे लोगों के कारण ही इन तमाम संस्थाओं पर विश्वास बना रहता है।

हुआ यूं कि हमारे छोटे बेटे की शादी के लिए उसकी नानी ग्वालियर से आने वाली थी। तय कार्यक्रम के अनुसार वे वंदे भारत ट्रेन में सुबह नौ पैंतालीस पर ग्वालियर से बैठती और निजामुद्दीन एक बजे पहुंच जाती। सुबह साढ़े नौ बजे उनका फोन भी आ गया कि वे प्लेटफार्म पर पहुंच गई हैं और ट्रेन आने वाली है।

हम लोग शादी के और कामों में व्यस्त थे तभी साढ़े दस बजे नानी का फोन आया। उन्होंने जो बताया उसमे हमारी चिंता बढ़ा दी। हुआ यूं कि वे ट्रेन में चढ़ीं। लेकिन उन्हें ऐसा लगा कि उनका सामान नहीं चढ़ पाया। सामान देखने वे एक दरवाजे से उतरी और दूसरे दरवाजे से किसी भले सहयात्री ने उनका सामान डिब्बे में चढ़ा दिया। जब तक उन्हे ये पता चलता ट्रेन के दरवाजे बंद हो गए। अब दरवाजे बंद होने के बाद वे खुलते नहीं। सो नानी रह गई प्लेटफार्म पर और उनका सामान वंदे भारत की यात्रा में निकल गया। जिन लोगो को ग्वालियर से ट्रेन में चढ़ने का अनुभव है उन्हे ये पता होगा कि ग्वालियर में ट्रेन में चढ़ना किसी जंग जीतने से कम नहीं होता फिर वो चाहे वंदे भारत ही क्यों न हो। ऐसा लगता कि यह आपके पराक्रम और पुरुषार्थ की परीक्षा है और आपको हर हालत में ये जंग जीतना ही है।

बहरहाल नानी थोड़ी देर तो हक्का बक्का रही फिर उन्होंने अपने आप को सम्हाला और पूछताछ शुरू की। ग्वालियर स्टेशन के स्टाफ और जी आर पी स्टाफ ने उनकी सहायता की और सबसे पहले ट्रेन में खबर करके उनका सामान आगरा कैंट उतरवाने की व्यवस्था की। उसके बाद अगली ट्रेन यानी केरल एक्सप्रेस में उनके बैठने की व्यवस्था कर उन्हे ए सी थ्री टायर में बैठाया। नानी का साढ़े दस बजे फोन केरल एक्सप्रेस से ही आया था।

उनका फोन आने के बाद से हम चिंता में थे कि इतनी सारी परेशानी नानी अकेले कैसे हैंडल करेंगी। तभी बारह बजे एक अनजान नंबर से फोन आया । ” नमस्कार , मैं दुबे T T E बोल रहा हूं। आपकी माताजी मेरे कोच में हैं। आप चिंता न करें वे ठीक है। उनका सामान आगरा में उतर गया है। मैं इन आगरा सुरक्षित उतार कर GRP के सुपुर्द कर दूंगा। ” बाद में नानी ने बताया कि उन TTE महाशय ने नानी को आग्रह पूर्वक चाय नाश्ता भी करवाया।

TTE महाशय के फोन से हमें थोड़ी आश्वस्ति हुई। फिर मन में विचार आया कि आगरा से किसी कार की व्यवस्था कर दें।।लेकिन उसमे भी समय तो लगना ही था।

दोपहर दो बजे नानी का फोन आया। उन्होंने बताया कि आगरा में उन्हे सकुशल उतारा गया । वहीं GRP की एक सब इंस्पेक्टर महिला का उन्हे फोन आया जिसमे उसने इन्हे कहां पहुंचना है इसके निर्देश दिए और कहा कि कोई भी परेशानी हो तो मुझे बताइएगा। वे GRP थाना पहुंची। वहां उन्होंने अपने सामान की शिनाख्त की। वहां के कांस्टेबल ने कहा माता जी ठीक से देख लीजिए सामान पूरा है कि नही। नानी शादी के लिए आ रही थी। तो कुछ जेवर और नकदी तो थी ही। लेकिन इनका पूरा सामान सही सलामत था। फिर नानी ने बताया कि अब उन्हें उनके सामान के साथ झेलम एक्सप्रेस में साढ़े पांच बजे बैठाया जाएगा । जिससे वे रात नौ बजे तक दिल्ली पहुंच जाएंगी।

हम लोग बीच बीच में नानी से पूछताछ कर रहे थे और चिंतित हो रहे थे। लेकिन नानी निश्चिंत थी और आराम से थी। उन्होंने बताया कि GRP के जवानों ने उन्हें खाना भी खिलाया और चाय भी पिलाई।

नानी साढ़े पांच बजे बैठी और साढ़े नौ निजामुद्दीन पहुंची। वे घर आ गई तब हमारी जान में जान आई। घर पहुंच कर उन्होंने सबकी सदाशयता का जो किस्सा सुनाया तो हम सब सुनकर दंग थे। उन्होंने बताया कि GRP स्टाफ उन्हे ट्रेन तक छोड़ने आया और उन्हे AC थ्री टायर में बैठाया। TTE ने बहुत सम्मान से उन्हे सीट दी और इस यात्रा का उनसे कोई किराया नहीं लिया गया। निजामुद्दीन पर भी उन्हे तभी जाने दिया जब वे आश्वस्त हो गए कि घर से उन्हे कोई लेने आ गया है। सफर की सारी अनिश्चितता और तनाव के कारण नानी थकी तो थी लेकिन वे उत्साह और ऊर्जा से भरी हुई थी। कुछ बहुत अच्छे लोगों की सदाशयता ने ही उनमें इतने तनाव के बावजूद इस उत्साह का संचार किया था। अस्सी के करीब पहुंची नानी के आत्मविश्वास की भी दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने अपना साहस और धैर्य नहीं खोया।

रेल के , फ्लाइट के ऐसे तमाम किस्से हमारे पास होते हैं जिनमे कर्मचारियों की उदासीनता और अकर्मण्यता के दर्शन होते हैं। लेकिन ऐसा जैसा नानी के साथ हुआ , कभी कभी ही होता है। तो जब ऐसा होता है तो उसे गर्व से साझा भी किया जाना चाहिए। है ना!!!

साभार- अनजान लेखक

( चित्र इंटरनेट से लिए हैं सिर्फ वातावरण निर्मित के लिए।)


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