तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम DMK ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि आर्थिक आधार पर ऊंची जातियों को आरक्षण देने का प्रावधान संवैधानिक नजरिए से की गई आरक्षण की व्यवस्था का मजाक है। डीएमके सवर्ण विरोध की राजनीति के लिए जानी जाती है। उसने देश की शीर्ष अदालत में कहा कि 103वें संविधान संशोधन के जरिए सवर्ण गरीबों के लिए की गई 10% आरक्षण (EWS) की व्यवस्था, आरक्षण की मूल भावना का ही मजाक बनाती है।
उसने कहा कि संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर किया गया है। इसका मकसद शोषित वर्ग का सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करना है। आर्थिक स्थिति के आधार पर ऊंची जातियों को भी इस दायरे में ले आना आरक्षण का मजाक है।
डीएमके के संगठन सचिव आरएस भारती की तरफ से पार्टी का लिखित बयान सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिया गया है। इसमें कहा गया है कि संविधान की नजर में आरक्षण तभी वैध है जब उसका उद्देश्य सामाजिक समानता लाना हो, आर्थिक आधार पर इसका प्रावधान संवैधानिक रूप से वैध नहीं हो सकता।
पार्टी ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ इस आधार पर ही आरक्षणों को वैध ठहराया कि सदियों से शोषण और सामाजिक उपेक्षा को धता बताया जा सके। आरक्षण दरअसल सामाजिक भेदभाव को कम करने की दिशा में बढ़ाया गया साकारात्मक कदम है। कथित उच्च जातियों को उनकी मौजूदा आर्थिक स्थिति से इतर आरक्षण देना इसकी मूल भावना के खिलाफ है।’
पार्टी ने आगे कहा कि शीर्ष अदालत ने इंदिरा साहनी केस में कहा था कि पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का मकसद नौकरियों में भागीदारी के जरिए सामाजिक मकसद को पूरा करना है। अभी नौकरियों में अगड़ी जातियों का दबदबा है।
सुप्रीम कोर्ट में ईडब्ल्यूएस कोटा के खिलाफ कई याचिकाएं दी गई हैं जिन पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस यूयू ललित की अगुवाई में पांच जजों की बेंच गठित की गई है। यह पीठ 13 सितंबर से याचिकाओं की सुनवाई करेगी। तमिलनाडु देश का पहला ऐसा राज्य है जहां आरक्षण का दायरा 50% के पार कर गया है जो सुप्रीम कोर्ट की तरफ से तय सीमा से ज्यादा है।
डीएमके का कहना है कि नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं हो सकता। उसने कहा कि पूर्व में किए गए भेदभाव और अन्याय के मुआवजे के तौर पर आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह ऐतिहासिक भेदभाव के दुष्प्रभावों को दूर करने का साधन है।
-एजेंसी
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