पीछे नहीं, बराबरी में: केरल के स्कूलों की नई बैठने की व्यवस्था एक क्रांतिकारी कदम

भारत के शिक्षा तंत्र में दशकों से एक अदृश्य रेखा बनी रही है — आगे की बेंच और पीछे की बेंच। जहाँ आगे की बेंच पर बैठने वाले छात्र अक्सर “मेधावी” माने जाते हैं, वहीं पीछे की बेंच को उपेक्षा और उपहास का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन केरल के सरकारी स्कूलों में हाल ही […]

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“डेटा की दलाली और ऋण की रेलमपेल : निजी बैंकों का नया लोकतंत्र”

“नमस्ते महोदय/महोदया, क्या आप व्यक्तिगत ऋण लेना चाहेंगे?” कभी दोपहर की झपकी के बीच, कभी सभा के समय, कभी मंदिर के बाहर, तो कभी वाहन चलाते समय — यह स्वर अब हमारे जीवन की अनिवार्य पृष्ठभूमि बन चुका है। यह मात्र एक स्वर नहीं, बल्कि एक कृत्रिम उत्पीड़न है — जो यह उद्घोष करता है […]

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“स्क्रॉल संस्कृति और अंधविश्वास: तकनीक के युग में मानसिक गुलामी”

आज का युग तकनीक और सूचना का है। हर हाथ में मोबाइल है, हर जेब में इंटरनेट। लेकिन क्या वास्तव में हम ज़्यादा जागरूक हुए हैं, या बस स्क्रीन पर फिसलती उंगलियों के गुलाम बन गए हैं? विज्ञापन, वीडियो, मीम्स, रील्स और टोटकों की अंतहीन दुनिया में लोग उलझे हुए हैं। “स्क्रॉल संस्कृति” ने हमारे […]

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जब शिक्षा डर बन जाए: डिग्रियों की दौड़ में दम तोड़ते सपने, संभावनाओं की कब्रगाह बनते संस्थान

संस्थाएं डिग्रियां नहीं, ज़िंदगियां दें — तभी शिक्षा का अर्थ है भारत में शिक्षा संस्थान अब केवल डिग्रियों की फैक्ट्री बनते जा रहे हैं, जहां बच्चों की संभावनाएं और संवेदनाएं दोनों दम तोड़ रही हैं। कोटा, हैदराबाद, दिल्ली जैसे शहर आत्महत्या के आंकड़ों से दहल रहे हैं। यह संकट केवल परीक्षा का नहीं, हमारी सोच […]

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साध्वी बनने का नया ट्रेंड: त्याग की ओट में सुख का ब्रांड?

बचपन में हम सुनते थे कि साध्वी वह होती है जो मोह, माया, श्रृंगार, आकर्षण और सांसारिक जिम्मेदारियों से ऊपर उठ गई हो। वह जो खुद को समर्पित कर दे — ध्यान, साधना और आत्मा के शुद्धिकरण के लिए। आज की दुनिया में जब हम ‘साध्वी’ शब्द सुनते हैं, तो कल्पना में कोई ध्यानमग्न स्त्री […]

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अख़बारों में साहित्य की हत्या और शब्दकर्मियों की बेइज़्ज़ती

आज के अधिकांश अख़बारों से साहित्यिक पन्ने या तो पूरी तरह गायब हो चुके हैं या केवल खानापूरी तक सीमित हैं। लेखकों को छापकर उन्हें ‘कृपा’ का अनुभव कराया जाता है, परंतु सम्मानजनक मानदेय नहीं दिया जाता। अब कुछ मालिकान पुरस्कार योजनाएं बनाकर लेखक-सम्मान का दिखावा कर रहे हैं, जबकि बुनियादी ज़रूरत है — श्रम […]

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कांवड़ या हुड़दंग? आस्था की राह में अनुशासन की दरकार

कांवड़ यात्रा का स्वरूप अब आस्था से हटकर प्रदर्शन और उन्माद की ओर बढ़ गया है। तेज़ डीजे, बाइक स्टंट, ट्रैफिक जाम और हिंसा ने इसे बदनाम कर दिया है। इसके विपरीत रामदेवरा जैसी यात्राएं आज भी शांत, अनुशासित और समर्पित होती हैं। इसका कारण है भक्ति में विनम्रता, प्रशासनिक अनुशासन और राजनीतिक हस्तक्षेप की […]

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जब छात्र हत्यारे बन जाएं: संवाद का अभाव, संस्कारों की हार, स्कूलों में हिंसा समाज की चुप्पी का फल

हिसार में शिक्षक जसवीर पातू की हत्या केवल एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि हमारे समाज की संवादहीनता, विफल शिक्षा व्यवस्था और गिरते नैतिक मूल्यों का कठोर प्रमाण है। आज का किशोर मोबाइल की आभासी दुनिया में जी रहा है, जबकि घर और विद्यालय दोनों में उपेक्षित है। मानसिक तनाव, संवाद की कमी और नैतिक शिक्षा […]

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गुरु दक्ष प्रजापति: सृष्टि के अनुशासन और संस्कारों के प्रतीक

सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पुत्र गुरु दक्ष प्रजापति वेदों, यज्ञों और परिवार प्रणाली के आधार स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने अनुशासन और मर्यादा को समाज में स्थापित किया, किन्तु शिव-सती प्रसंग के माध्यम से यह भी दिखाया कि कठोरता से प्रेम मर जाता है। आज की पीढ़ी के लिए उनका जीवन-संदेश यह है—“कर्तव्य, सहिष्णुता और संतुलन […]

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बचपन में दिल का दर्द: क्या हमारी जीवनशैली मासूम धड़कनों की दुश्मन बन गई है?

भारत में बच्चों में हार्ट अटैक की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इसका संबंध बच्चों की बदलती जीवनशैली, खान-पान, मानसिक तनाव और स्क्रीन टाइम से है। स्कूलों में नियमित हेल्थ जांच, योग, पोषण शिक्षा और अभिभावकों की जागरूकता से ही इस खतरे को रोका जा सकता है। यह केवल स्वास्थ्य नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय […]

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