महिला आरक्षण की दहलीज़ पर लोकतंत्र: अब दलों को जिम्मेदारी उठानी होगी

2023 में पारित नारी शक्ति वंदन अधिनियम भारत में राजनीति के स्वरूप को बदलने का ऐतिहासिक अवसर है। हालांकि इसका क्रियान्वयन 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले संभव है, लेकिन यह तभी सफल होगा जब राजनीतिक दल अभी से महिलाओं के लिए अनुकूल वातावरण बनाएँ। केवल आरक्षित सीटें देना पर्याप्त नहीं; दलों को आंतरिक कोटा, […]

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साहित्य का मंच या शिकार की मंडी? : नई लेखिका आई है — और मंडी के गिद्ध जाग उठे हैं

नई लेखिकाओं के उभार के साथ-साथ जिस तरह साहित्यिक मंडियों में उनकी रचनात्मकता की बजाय उनकी देह, उम्र और मुस्कान का सौदा होता है — यह एक गहरी और शर्मनाक सच्चाई है। मंच, आलोचना, भूमिका, सम्मान – सब कुछ एक जाल बन जाता है। यह संपादकीय स्त्री लेखन के नाम पर चल रही पाखंडी व्यवस्था […]

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समीक्षा: “चूल्हे से चाँद तक” — चूल्हे की आँच से चाँद की कविता तक की यात्रा

समीक्षक: सोनल शर्मा, देहरादून प्रियंका सौरभ का यह काव्य संग्रह ‘चूल्हे से चाँद तक’ केवल कविता नहीं, स्त्री आत्मा की यात्रा है। यह वह आवाज़ है, जिसे सदियों से दबाया गया, पर वह फिर भी जलती रही – रोटियों के साथ, परातों के बीच, और आँसुओं में घुली स्याही के माध्यम से। इस संग्रह की […]

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अंतरिक्ष की नई उड़ान: एक्सिओम-4 और भारत की वैश्विक पहचान

एक्सिओम-4 मिशन भारत के अंतरिक्ष इतिहास में एक ऐतिहासिक क्षण है। वायुसेना के ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ल की सहभागिता से यह मिशन सिर्फ तकनीकी उपलब्धि नहीं बल्कि वैश्विक मंच पर भारत की उपस्थिति का प्रतीक बन गया है। अमेरिका की एक्सिओम-4 स्पेस और नासा के सहयोग से हुआ यह अभियान भारत को मानव अंतरिक्ष यात्रा […]

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“कॉलर ट्यून की विदाई: जनता की सुनवाई या थकान की जीत?”

6 दिन पहले प्रकाशित हुआ मेरा लेख — “कॉलर ट्यून या कलेजे पर हथौड़ा: हर बार अमिताभ क्यों? जब चेतावनी बन गई चिढ़” अमिताभ बच्चन की कोविड कॉलर ट्यून ने देश को जागरूक किया, पर समय के साथ वह झुंझलाहट में बदल गई। जनभावनाओं की अनदेखी नीतियों के विरुद्ध यह लेख देशभर में पढ़ा गया […]

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लैंगिक समानता की राह में भारत की गिरावट: एक चिंताजनक संकेत

विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम) की वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट 2024 में भारत को 148 देशों में 131वाँ स्थान प्राप्त हुआ है। यह न केवल दो पायदान की गिरावट है, बल्कि भारत की विकास यात्रा में छुपी उस असमानता का पर्दाफाश भी करती है जिसे हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। जब पूरी दुनिया […]

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नया लोकतंत्र?…जब कलम चुप हो जाए: लोकतंत्र का शोकगीत

आपातकाल के दौरान अख़बारों ने विरोध में अपना संपादकीय कॉलम ख़ाली छोड़ा था। आज औपचारिक सेंसरशिप नहीं है, लेकिन आत्म-सेन्सरशिप, भय और ‘राष्ट्रभक्ति’ के नाम पर विचारों का गला घोंटा जा रहा है। सवाल पूछना देशद्रोह बन गया है, और संपादकीय अब सत्ता के प्रवक्ता हो गए हैं। ऐसे समय में जब हर शब्द जोखिम […]

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मिलावट: शरीर ही नहीं, आत्मा को भी कर रहा है बीमार

मिलावट अब केवल खाने-पीने तक सीमित नहीं रही, यह हमारे सोच, संबंध, और व्यवस्था तक में घुल चुकी है। मूँगफली में पत्थर हो या दूध में डिटर्जेंट, यह मुनाफाखोरी की संस्कृति का विस्तार है। उपभोक्ता की चुप्पी, सरकार की ढील और समाज की “चलता है” मानसिकता ने इसे स्वीकार्य बना दिया है। मिलावट एक नैतिक […]

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दुर्घटना पीड़ितों के लिए “कैशलेस” उपचार : नीयत नेक, व्यवस्था बेकार

इस देश में जब कोई सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त होता है, तो सबसे पहले यह नहीं पूछा जाता कि ज़ख्म कितना गहरा है — पहले यह पूछा जाता है कि “पहचान पत्र है?”, “बीमा है?”, “अस्पताल पंजीकृत है?” और फिर अंत में — “बचा पाएँगे या नहीं?”। मानो पीड़ित की जान से पहले कागज़ ज़रूरी हो। […]

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आधी आबादी, अधूरी भागीदारी: ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में भारत की गिरती साख

21वीं सदी की सबसे बड़ी क्रांतियों में एक है—महिलाओं की भागीदारी का बढ़ना। फिर भी, जब वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम ने ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2025 जारी किया, तो भारत का 131वां स्थान यह संकेत देता है कि विकास के तमाम दावों के बावजूद महिला सशक्तिकरण केवल नारों में सिमट कर रह गया है। शिक्षा और […]

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