पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने 45 साल बाद आखिरकार मान लिया है कि पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी की सजा देने के दौरान निष्पक्ष सुनवाई नहीं हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपनी सुनवाई के दौरान माना कि साल 1979 में सात जजों की पीठ ने अपनी सुनवाई के दौरान सही प्रक्रिया का पालन भी नहीं किया था। इससे पहले साल 1977 में सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने भुट्टो की सरकार को हटाकर पाकिस्तान पर कब्जा कर लिया था और उसी के राज में पूर्व प्रधानमंत्री भुट्टो को फांसी की सजा दे दी गई थी। माना जाता है कि तानाशाह जिया उल हक के दबाव में पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी की सजा सुनाई थी।
पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी पूर्व प्रधानमंत्री को फांसी की सजा दी गई थी। पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय का यह अवलोकन पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान आया, जिसमें भुट्टो की मौत की सजा की समीक्षा की मांग की गई थी।
पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश काजी फैज ईसा की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से देखा कि भुट्टो के मामले में निष्पक्ष सुनवाई के लिए शर्तें पूरी नहीं हुईं। अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि लाहौर उच्च न्यायालय द्वारा मुकदमे की कार्यवाही और सर्वोच्च न्यायालय में बाद में अपील संविधान के अनुच्छेद 4 और 9 में निहित निष्पक्ष सुनवाई और उचित प्रक्रिया के मौलिक अधिकार से कम थी।
बिलावल भुट्टो ने फैसले का किया स्वागत
भुट्टो को जब हटाया गया था तब वह अपने देश में सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक थे। उन्हें अपने राजनीतिक विरोधी अहमद रजा कसूरी की हत्या के आरोप में उन्हें जनरल जिया ने हटा दिया और खुद सत्ता पर कब्जा कर लिया। वह भी तब जब भुट्टो ने ही जनरल जिया को पाकिस्तानी सेना का प्रमुख नियुक्त किया था।
भुट्टो को फांसी देने की कानूनी प्रक्रिया पर कई कानूनी विशेषज्ञों ने सवाल उठाए थे। पाकिस्तान की शीर्ष अदालत ने स्वीकार किया कि पाकिस्तान के न्यायिक इतिहास में कुछ मामलों ने न्याय के प्रशासन को प्रभावित करने वाले भय या पक्षपात की सार्वजनिक धारणा बनाई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संवैधानिक और कानूनी सीमाओं के कारण भुट्टो की मौत की सजा का फैसला अब नहीं बदला जा सकता है।
-एजेंसी
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