स्कूली शिक्षा, भटकती दिशा: सरकारी स्कूलों पर लगा सरकार की ही नीतियों का ग्रहण..

अन्तर्द्वन्द

वैश्विक स्तर पर पहचान बनाने और विश्व गुरु बनने की ललक हमसे मांगती है शिक्षा का उच्च स्तर, जो कि सरकार और कुछ कुछ समाज की भटकती सोच से पूर्ण होती नहीं दिखती है । अच्छी शिक्षा मांगती है हमसे उसकी दिशा और दशा का बेहतर मूल्यांकन और उसमें सुधार ।. नई शिक्षा नीति ने दिशा में आंशिक परिवर्तन किया है किन्तु अनेक ऐसे प्रश्न हैंजो अनुत्तरित हैं या कि शिक्षा व्यवस्था में ऐसा कुछ परिवर्तन हो रहा है, हुआ है जो हमे मजबूर कर रहा है अपनी शिक्षा व्यवस्था पर फिर से सचेत हो कर सोचने के लिए । आइये समझें..

गुरुकुल शिक्षा पद्धति से लेकर विवेकानंद और अमर्त्य सेन तक सभी महापुरुषों ने शिक्षा और ज्ञान की महत्ता और शक्ति को स्वीकारा है। वे सभी मानते हैं कि जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाना हो या कि बुद्धि का परिमार्जन, सभी के लिए दीक्षा -शिक्षा ही एकमेव हथियार है । यही नहीं देशों की विकास यात्रा और गरीबी दूर करने में भी इसकी महती भूमिका होती है । ‘लेकिन साथ ही शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे ज्ञान-विज्ञानं के साथ ही मनुष्य का चरित्र निर्माण हो, दिमाग की ताकत और बुद्धि बढ़े और व्यक्ति अपने पैर पर खड़ा हो सके । तो देश में जितनी ही अधिक पाठशालायें, विद्यालय, महाविद्यालय होंगी उतनी ही शिक्षा की उन्नति सुनिश्चित होगी। देश में तीन तरह के स्कूल हैं- सरकारी स्कूल, सरकार द्वारा सहायता प्राप्त निजी स्कूल और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल। अब देखें कि इनमें विभिन्न वर्षों में स्कूलों की संख्या कितनी थी ? हम यूडीसे के आंकड़ों का उपयोग करेंगे।

सन 2012-13 से सन 2019-20 तक जिसके लिए आंकड़े उपलब्ध हैं वह हमारी स्कूली शिक्षा की अव्यवस्था और बदहाली को उधेड़ कर रख देती है। वह दिखाती है की स्कूल और स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या घटती जा रही है ऐसे देश में, जहाँ स्कूल और स्कूल में पढ़ने वालों की मांग दिन दुगनी रात चौगुनी बढ़ रही है ।

सन 2012-13 में देश में स्कूलों की संख्या 15,00,768 थी जो बढ़ कर सन 2017-18 में 15,58,903 हो गई । लेकिन स्कूलों की संख्या इसके पश्चात लगातार घट रही है और सन 2019-20 में यह घट कर 15,07,708 हो गई । इसका अर्थ हुआ कि कोई 51194 स्कूल बंद हो गए । अब छात्रों के पंजीयन(भर्ती) को देखें । सन 2012-13 में स्कूलों में कुल 25,42,75,128 छात्र अध्ययन कर रहे थे । यह संख्या सन 2015-16 में बढ़ कर 26,05,96,960 (सर्वाधिक) हो गई । लेकिन इस वर्ष के पश्चात छात्रों की संख्या लगभग लगातार घट रही थी और सन 2019-20 में यह 25,09,71,683 हो गई । तो इस समयावधि में विद्यार्थिओं के पंजीयन में 9625277 की कमी आई । तो प्रश्न उठता है कि क्या स्कूल कम हो जाने से या छात्रों के कम पंजीयन से ही अच्छे दिन आने थे ? यह भी एक शोध का विषय होगा की पंजीयन घटने से क्या मिड-डे मील, यूनिफार्म, किताबों और विद्यार्थिओं को प्रदान किये जाने वाले अन्य प्रोत्साहनों के वितरण पर होने वाले खर्चों में भी कोई कमी आई या नहीं ? अध्यापको की संख्या पर क्या प्रभाव पड़ा? अब देखें कि कौन से स्कूल ज्यादा बंद हुए और उनमे बच्चों के पढ़ने की संख्या पर क्या प्रभाव पड़ा ?

देश में सन 2018-19, सन 2019-20 और सन 2020-21 में सरकारी स्कूलों की संख्या और कुल स्कूलों की संख्या में उनका प्रतिशत क्रमसः था-1083678 (72.5%), 1032570 (70.9%) और 1032049 (70.8%)।इसी तरह, सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों की संख्या और उनका प्रतिशत सन 2018-19, सन 2019-20 और सन 2020-21 में क्रमसः 84614 (5.6%), 84362 (5.8%),और 84295 (5.7%)था।

इसी भांति, निजी स्कूलों की संख्या और उनका प्रतिशत इन्ही समयवधिओं में क्रमसः थी- 325760 (21.8%), 337499 (23.2%) और 340753 (23.4%) ।(कुछ थोड़े अन्य स्कूल भी थे जिनके आंकड़े नहीं दिए जा रहे हैं ) । तो स्पष्ट है कि देश यद्यपि सरकारी स्कूल बाहुल्य रहा है (लगातार 70% के आसपास) किन्तु उनकी संख्या दिनों-दिन घटती जा रही है और दूसरी तरफ निजी स्कूलों की संख्या तेजी से बढ़ी है । ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि सरकार की नीति बदली है और कम पंजीयन वाले सरकारी स्कूलों का एक दूसरे में सविलियन करने का फैसला लिया गया है । इस नीति का दुष्प्रभाव तो पड़ना ही था। इसका प्रभाव छात्रों के पंजीयन और ग्रामीण स्कूलों पर पड़ा । आइये पहले इनमे पढ़ने वाले बच्चों की संख्या पर इस नीति के प्रभाव को देखें ।

सन 2018-19 में सरकारी स्कूल, सहायता प्राप्त, गैर सहायता प्राप्त निजी और अन्य स्कूलों में पंजीकृत छात्रों की संख्या और प्रतिशत क्रमसः 12,87,16,369 (51.83%),2,75,30,022(11.08%), 8,41,22,799 (33.87%), और 79,69,394 (3.2%)थी । सन 2019-20 में सरकारी, सहायता प्राप्त, गैर सहायता प्राप्त निजी और अन्य स्कूलों में पंजीकृत छात्रों की संख्या और प्रतिशत बदल कर क्रमसः 12,81,42,596 (51.05%), 2,70,14,238 (10.76%), 8,89,13,012 (35.4%), और 69,01,837 (2.75%) हो गई । तो निजी स्कूलों में इधर पंजीयन तेजी से बढ़ा है किन्तु सरकारी स्कूलों समेत अन्य स्कूलों में भी छात्रों के नामांकन में कमी आई है।

सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार 16 राज्य ऐसे थे जहां निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का प्रतिशत 50 से ज्यादा रहा । शहरी क्षेत्रों के 73 प्रतिशत बच्चे इन स्कूलों में पढ़ रहे थे । गावों में भी इनकी मांग बढ़ी हैं क्योंकि अब सड़के बेहतर हुई हैं और बिजली की उपलब्धता बढ़ी है ।

तो यह विश्लेषण क्या बताता है ? हमारी शिक्षा व्यवस्था में सरकारी स्कूलों का योगदान अभी भी अविवादित है किन्तु महत्व घटा है । आधे से ज्यादा बच्चे, शिक्षा और ज्ञान के बाजार में अभी भी सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर हैं, जबकि सन 1978 में 74.1 प्रतिशत बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते थे। किन्तु अब इन पर भी सरकार की नीतियों का ग्रहण लग गया है । कारण क्या है ? एक, सन 2016 में इस नीति को अपनाया गया कि जिन स्कूलों में छात्रों की संख्या कम है या जहाँ स्कूलों की संख्या ज्यादा है, उन्हें आसपास के स्कूलों में विलय कर दिया जायेगा ।कहा गया की सरकार इन स्कूलों का खर्च वहन नहीं कर सकती अतः उनका युक्तिकरण करने की आवश्यकता है । दूसरे इन स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर भी संदेह व्यक्त किया गया । अब इन दो बिंदुओं की गहराई से जाँच करने की आवश्यकता है ।

स्कूलों के सविलयन से अनेक समस्याएं आ रही हैं ।स्कूलों की संख्या कम हो गई है । पंजीकरण कम हो गया है और एक ही कक्षा में दो ग्रेड की साथ साथ पढाई रुकी है । तो छोटे स्कूल या दुर्गम स्थानों पर कार्यरत एक-दो कमरों के स्कूल समाप्त हुए हैं । अध्यापकों का नियोजन किन्ही अन्य स्कूलों में कर दिया गया है ।तो सरकार छोटे स्कूलों को व्यवहार्य नहीं मानती । लेकिन प्रश्न तो यह है कि जो दुर्गम, जंगली या पहाड़ी क्षेत्र हैं वहाँ स्कूलों को बंद कर देने से वहाँ के बच्चे कहां पढ़ेंगे ? सन 2030 तक सार्वभौमिक शिक्षा का लक्ष्य कैसे पूरा होगा ? ऐसे स्थानों में निजी विद्यालय खुलने से रहे और बच्चे पढ़ने से रहे । यही कम हो रहे स्कूलों और पंजीकरण का कारण है। दूसरे, जिस देश में आज भी 80 करोड़ जनसँख्या को जिन्दा रखने के लिए सरकार मुफ्त का अनाज बाँट रही हो तो उनके बच्चे निजी स्कूलों की पढाई कैसे कर सकेंगे? लेकिन प्रश्न तो यह है कि सरकार की सोच तो बदल चुकी है ।

अब सरकारी स्कूलों के गुणवत्ता के प्रश्न की जाँच की जाय। जब सरकारी स्कूलों में पर्याप्त अध्यापक ही न हों तो कैसी पढाई और कैसी गुणवत्ता? उदाहरण के लिए विज्ञानं ग्रुप में सभी विषयों के (रसायन,भौतिक,जीव विज्ञानं या गणित,जैसा सयोजन हो)अध्यापक होने चाहिए ।अब यदि एक भी विषय का अध्यापक कम हो गया तो उसका एडमिशन, पढाई पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और रिजल्ट और गुणवत्ता भी प्रभावित होती है ।तो इसमें अध्यापकों का क्या दोष? यह तो सिस्टम की कमी है जो समय पर अध्यापक नहीं दे पाती है । अब यह भी देखा जाय की सरकार की कृपा से पढाई भी कितने दिन होती है? नीउपा (एम्एचआरडी की एक संस्था ) के एक सर्वे में पता चला था कि अध्यापक अपनी कुल कार्यशील घंटे का महज 19.1 प्रतिशत ही ज्ञान देने में लगा पाते हैं। वे 220 दिन में से केवल 42 दिन ही अध्यापन का कार्य कर पाते हैं । तो वे अन्य समय क्या करते हैं? स्कूल और मध्यान्ह भोजन का रजिस्टर बनाने, फीस लेने, परीक्षा के कार्य करने, इलेक्शन ड्यूटी और विभिन्न सर्वेक्षण कार्य करने, पल्स पोलियो अभियान को सफल बनाने, बीएलओ की ड्यूटी करने आदि अनेक कार्य करने होते हैं उन्हें ।

पूरी प्रशाशनिक व्यवस्था के हुक्मों के गुलाम और समाज और अभिवावकों के भी ताबेदार होते हैं वे ।कार्य पर स्कूल से बाहर वे प्रशासन के आदेश पर होते हैं और पढाई न होने के गुस्से का ठीकरा भी उन्हीं पर फूटता है ।तो गुणवत्ता तो प्रभावित होगी ही । खुली आँखों से नंगा सच भी नहीं दिखता शासन, प्रशासन और समाज को। सभी अपने स्वार्थ के गुलाम होते हैं, अध्यापकों के कार्यों और उनकी क्षमताओं का मूल्यांकन करने में । सच तो यह है कि सरकारी स्कूल के अध्यापक अधिक योग्य होते हैं किन्तु सरकारी व्यवस्था उन्हें अयोग्य बना देती है ।

दूसरी तरफ, वे भी अध्यापक हैं जो की निजी स्कूलों में काम करते हैं न्यून वेतन पर, शोसित होकर ।सभी को यह सत्य पता है किन्तु उनका कोई तारनहार नहीं होता । जिनकी मेहनत की बदौलत से स्कूल खड़ा होता है वही मेहनताना भी पूरा नहीं पा पाते । बच्चा निजी स्कूल में दाखिला पा ले, अच्छी पढाई, ज्ञान का आश्वासन हो जाय, तो अध्यापक का शोषण हो, उनकी बला से । क्या फर्क पड़ता है ? केवल एक दिन के गुरूजी जो (5 सितम्बर ) ठहरे।

अब एक और नंगे सच की छान बीन की जाय। शिक्षा क्षेत्र में एक नई इबादत लिखी जा रही प्रतीत हो रही है आज-कल। प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष टैक्स दो, पेट्रोल पर सेस भी; जिसकी धनराशि शिक्षा पर खर्च की जानी है । लेकिन जैसे की सरकारें कह रही हों की सरकारी स्कूल में दाखिला मत लो । क्योंकि स्कूल बंद किये जा रहे हैं । अध्यापक नहीं हैं और हैं तो प्रायः सरकार के द्वारा अन्य कार्यों में लगाए गए होते हैं । इंफ्रास्ट्रक्टर आदि की कमी तो पहले से ही है । बोर्ड नहीं, कमरे नहीं, लेबोरेटरी नहीं । खेल के मैदान हैं तो खेल के संसाधन नहीं । तो जैसे सरकारें कह रही हों कि निजी स्कूलों में दाखिला ले लो ।लेकिन वहां भी तारण नहीं । आप सरकार को टैक्स देते हैं शिक्षा की व्यवस्था करने के लिए, किन्तु आपको पढ़ाना पड़ता हैं बच्चे को निजी स्कूल में । फिर कोचिंग भी करानी पड़ती है । तो शिक्षा की लागत तेजी से बढ़ी है। वस्तुतः शिक्षा की सम्पूर्ण व्यवस्था, अव्यवस्था की शिकार हो गई है । अफ़सोस तो यह है कि सरकारी स्कूलों, संस्थाओं में पढ़े, पले-बढ़े लोगों नें ही जैसे उनका अपमान करने का अपना जन्म सिद्ध कर्तब्य बना लिया है । ऐसे में दिल्ली स्कूल मॉडल भी इन समस्याओं का आंशिक समाधान ही प्रस्तुत कर पायेगी । क्योंकि, क्या वह इलेक्शन कमीशन को अध्यापकों की ड्यूटी इलेक्शन में लगा पाने से रोक पायेगी ? क्या वह रोक पायेगी अपने और अपने महकमें को उनसे अध्यापन के अतिरिक्त सभी कार्य लेने से ? क्या वह सरकारी स्कूलों की रौनक लौटा पायेगी जिसने अभी तक एक गरीब देश में ज्ञान और विकास की गंगा बहाने में भरपूर योगदान दिया है । शायद हां,शायद नहीं । अब तो प्रत्येक वर्ष आता-जाता शिक्षक दिवस भी हमको मनन-चिंतन करने को मजबूर नहीं करता ।

– विमल शंकर सिंह


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