सच बोले स्क्रीन वाला: इन्फ्लुएंसर, जागो! जिम्मेदारी भी कभी वायरल करो….

अन्तर्द्वन्द
डॉ सत्यवान सौरभ
डॉ सत्यवान सौरभ

आज सोशल मीडिया पर मौजूद इन्फ्लुएंसर्स का प्रभाव समाज और राजनीति पर तेजी से बढ़ रहा है। वे बिना किसी जवाबदेही के जनमत को प्रभावित करते हैं, विशेष रूप से चुनावों में। पारंपरिक मीडिया के विपरीत, इनके लिए कोई स्पष्ट आचार संहिता नहीं है। ऐसे में लोकतंत्र की पारदर्शिता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि इन पर भी निगरानी और जवाबदेही तय हो। चुनाव आयोग और सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए। सोशल मीडिया की स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी भी उतनी ही ज़रूरी है।

आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। यह न केवल संचार का एक सशक्त माध्यम है, बल्कि जनमत निर्माण, सामाजिक जागरूकता और राजनैतिक विमर्श का भी एक महत्वपूर्ण मंच बन गया है। ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर मौजूद इन्फ्लुएंसर्स का प्रभाव अब केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वे सामाजिक और राजनैतिक मामलों पर भी जनता की सोच को दिशा देने लगे हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इन इन्फ्लुएंसर्स की कोई नैतिक या कानूनी जवाबदेही होनी चाहिए? क्या उन्हें भी निष्पक्षता का पालन करना चाहिए जैसे पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है?

सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स वे लोग हैं जिनके पास हजारों या लाखों की संख्या में अनुयायी (followers) होते हैं। उनके विचार, प्रतिक्रियाएं, समीक्षाएं और टिप्पणियां लोगों को प्रभावित करती हैं। कई ब्रांड्स और कंपनियां इन्हीं इन्फ्लुएंसर्स की सहायता से अपने उत्पादों का प्रचार करती हैं। अब यह प्रभाव केवल आर्थिक नहीं रहा, बल्कि यह सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी गहराई से प्रवेश कर चुका है।

2024 के लोकसभा चुनावों और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह स्पष्ट देखने को मिला कि सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स किस प्रकार राजनैतिक दलों के लिए प्रचारक की भूमिका निभा रहे हैं। वे सीधे तौर पर किसी पार्टी विशेष के समर्थन या विरोध में पोस्ट साझा करते हैं, वीडियो बनाते हैं या लाइव डिबेट करते हैं। इनमें से अधिकतर पोस्ट्स में प्रचार सामग्री होती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि वह ‘पेड’ है या नहीं। पारंपरिक मीडिया में पेड न्यूज की निगरानी के लिए चुनाव आयोग की गाइडलाइन है, लेकिन सोशल मीडिया की इस नई दुनिया पर यह नियंत्रण नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट्स ने भी समय-समय पर सोशल मीडिया पर गलत सूचना, नफरत फैलाने वाले भाषण और चुनावी प्रचार की निगरानी को लेकर चिंता व्यक्त की है। तकनीक ने भले ही लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी हो, लेकिन जब यह स्वतंत्रता बिना किसी जिम्मेदारी के प्रयोग की जाती है, तो वह लोकतंत्र को कमजोर करने लगती है।

आज हर कोई पत्रकार बन सकता है – एक स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्शन के ज़रिए। ऐसे में पत्रकारिता और इन्फ्लुएंसर्स की भूमिका में एक महीन सी रेखा रह गई है, जिसे स्पष्ट रूप से चिन्हित करना आवश्यक है। पत्रकारों के लिए आचार संहिता है, प्रेस काउंसिल है, समाचार संगठनों की जवाबदेही है। लेकिन सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के लिए ऐसा कोई तंत्र मौजूद नहीं है।

यहां पर दो बातें अहम हैं – एक, इन्फ्लुएंसर्स की स्वतंत्रता और दूसरा, उनकी जिम्मेदारी। स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि वे किसी भी तरह की जानकारी या विचार को बिना तथ्यों की जांच के फैलाएं। यदि वे किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार कर रहे हैं या किसी विशेष पार्टी के पक्ष में जनमत को प्रभावित कर रहे हैं, तो यह जरूरी है कि वे इसे पारदर्शी ढंग से करें और यह स्पष्ट हो कि वे किसी एजेंडे के तहत कार्य कर रहे हैं।

इसके अतिरिक्त, इन्फ्लुएंसर्स की पोस्ट या वीडियो को पेड प्रमोशन मानते हुए चुनाव आयोग को भी इसके लिए स्पष्ट नियम बनाने चाहिए। जिस तरह टीवी और अखबार में विज्ञापन के लिए शुल्क का निर्धारण होता है और उसकी घोषणा अनिवार्य होती है, उसी प्रकार सोशल मीडिया पर भी प्रचार पोस्ट्स की निगरानी होनी चाहिए।

आखिरकार, लोकतंत्र की ताकत उसकी पारदर्शिता और निष्पक्षता में निहित होती है। अगर कोई भी माध्यम – चाहे वह पारंपरिक मीडिया हो या सोशल मीडिया – पक्षपातपूर्ण व्यवहार करता है, तो इससे जनमत प्रभावित होता है और लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं।

दूसरी ओर, बहुत से इन्फ्लुएंसर्स यह तर्क दे सकते हैं कि वे स्वतंत्र नागरिक हैं और उन्हें किसी भी विचार को समर्थन देने का अधिकार है। यह तर्क कुछ हद तक सही भी है, लेकिन जब कोई व्यक्ति या समूह अपने विचारों के ज़रिए लाखों लोगों की राय को प्रभावित कर रहा हो, तब उसकी सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है।

इन्फ्लुएंसर्स को यह समझना चाहिए कि उनकी बातों का असर केवल मनोरंजन या सौंदर्य उत्पादों के प्रचार तक नहीं है, बल्कि वे सामाजिक सरोकारों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रभाव के साथ उन्हें जवाबदेही भी स्वीकार करनी चाहिए।

यह समय है जब सरकार, चुनाव आयोग, और समाज इस दिशा में ठोस कदम उठाएं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को भी अपने यूज़र्स की गतिविधियों पर निगरानी रखनी चाहिए और पेड प्रचार को चिन्हित करने के लिए तकनीकी व्यवस्था करनी चाहिए। साथ ही, एक ऐसी रूपरेखा बनाई जाए जो इन्फ्लुएंसर्स को आचार संहिता के दायरे में लाए और उन्हें भी पारदर्शिता तथा निष्पक्षता के लिए बाध्य करे।

समय की मांग है कि हम केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात न करें, बल्कि उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही को भी उतना ही महत्व दें।

लोकतंत्र की सफलता के लिए यह अनिवार्य है कि हर मंच, हर माध्यम और हर आवाज निष्पक्ष, जिम्मेदार और सत्यनिष्ठ हो – फिर चाहे वह अखबार का संपादकीय हो, टीवी का डिबेट हो या इंस्टाग्राम की कोई पोस्ट।

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