एस जयशंकर: पद्मश्री ब्यूरोक्रेट से सख़्त विदेश मंत्री तक का सफ़र..

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विदेश मंत्री एस जयशंकर के पिता के सुब्रमण्यम को भारत की कूटनीति का भीष्म पितामह कहा जाता है. के. सुब्रमण्यम को कई सरकारों ने पद्म सम्मान के लिए चुना लेकिन उन्होंने हमेशा लेने से इंकार कर दिया. उनका कहना था कि ब्यूरोक्रेट और पत्रकार को सरकार से कोई सम्मान लेने से बचना चाहिए. लेकिन मार्च 2019 में उनके बेटे एस जयशंकर ने ब्यूरोक्रेट के तौर पर ही पद्मश्री सम्मान लिया था.

मोदी कैबिनेट में एस जयशंकर की जो पारिवारिक पृष्ठभूमि है, वह किसी भी मंत्री की नहीं है. भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर जाने-माने स्कॉलर परिवार से हैं. उनके पिता के सुब्रमण्यम देश के जाने-माने कूटनीतिज्ञ थे. के सुब्रमण्यम 1951 आईएएस बैच के टॉपर थे. उन्हें केएस या सुब्बु नाम से भी जाना जाता था.
केएस को भारत के न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन का शिल्पकार माना जाता है. ‘परमाणु हथियार का इस्तेमाल भारत पहले नहीं करेगा’ वाले सिद्धांत का श्रेय भी केएस को ही दिया जाता है.

इन्होंने होमी भाभा के साथ भी काम किया था. 1962 से 1966 तक भारत के रक्षा मंत्री वाईबी चव्हाण थे और केएस पर वह काफ़ी भरोसा करते थे. यह वही दौर था जब भारत पर चीन (1962) और पाकिस्तान (1965) ने हमला किया था. अटल बिहारी वाजपेयी ने केएस को करगिल युद्ध की समीक्षा के लिए बनी समिति का अध्यक्ष बनाया था.

जयशंकर की माँ सुलोचना जानी-मानी तमिल विद्वान थीं. इनके एक भाई एस विजय कुमार मनमोहन सिंह की सरकार में खनन मंत्रालय में सचिव थे. इसके अलावा दूसरे भाई संजय सुब्रमण्यम जाने-माने इतिहासकार हैं.

जयशंकर पर पीएम मोदी का भरोसा

एस जयशंकर की पहचान भी एक तेज़-तर्रार डिप्लोमैट की रही है. नरेंद्र मोदी जब 2014 में प्रधानमंत्री चुने गए तो एस जयशंकर अमेरिका में भारत के राजदूत थे. नरेंद्र मोदी ने पहले कार्यकाल में सुषमा स्वराज को विदेश मंत्री बनाया था. मनमोहन सिंह के आख़िरी विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद थे और तब विदेश सचिव सुजाता सिंह थीं.

जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो 2005 में अमेरिका ने वीज़ा देने से इंकार कर दिया था. लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद अमेरिका ने मोदी का स्वागत किया. पीएम बनने के बाद मोदी ने सितंबर 2014 में अमेरिका का पहला दौरा किया.

तब जयशंकर ही अमेरिका में भारत के राजदूत थे. कहा जाता है कि जयशंकर ने जिस तरह से मोदी के दौरे की प्लानिंग की थी, उससे वह काफ़ी प्रभावित थे. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2015 में 26 जनवरी को भारत का दौरा किया था. इसमें भी एस जयशंकर की भूमिका बड़ी मानी जाती है.

दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र में डॉक्टर राजन कुमार असोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. डॉ राजन कुमार कहते हैं कि मोदी अपने पहले अमेरिकी दौरे में जयशंकर की भूमिका से काफ़ी ख़ुश थे.

न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वेयर में हज़ारों भारतीय-अमेरिकी लोगों ने पीएम मोदी का ज़ोरदार स्वागत किया था. मोदी को सुनने के लिए पूरा स्टेडियम भरा हुआ था. मोदी के इस दौरे को काफ़ी सफल माना गया था और इसका श्रेय एस जयशंकर को गया था. इसके अलावा भारत के लिए चीन और रूस बेहद अहम देश हैं. इन दोनों देशों में एस जयशंकर भारत के राजूदत रहे हैं. कहा जाता है कि इस अनुभव के कारण भी पीएम मोदी ने एस जयशंकर को पसंद किया.

2015 में 31 जनवरी को एस जयशंकर का अमेरिकी राजदूत के तौर पर कार्यकाल ख़त्म हो रहा था. उससे पहले ही सुजाता सिंह को हटाकर उन्हें विदेश सचिव बना दिया गया. तब विदेश सचिव के तौर पर सुजाता सिंह का कार्यकाल सात महीने बचा था. कहा जाता है कि यूपीए 2 में मनमोहन सिंह भी एस जयशंकर को ही विदेश सचिव बनाना चाहते थे लेकिन सुजाता सिंह को वरिष्ठता और महिला होने के कारण प्राथमिकता दी गई थी.

विदेश सचिव का कार्यकाल दो साल का होता है. जयशंकर मोदी सरकार में विदेश सचिव रहने के बाद मई 2018 में टाटा सन्स प्राइवेट लिमिटेड में ग्लोबल कॉर्पोरेट अफ़ेयर्स के अध्यक्ष बने.

2019 में आम चुनाव हुआ और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को एक बार फिर से प्रचंड बहुमत मिला. मोदी के दूसरे कार्यकाल में कैबिनेट मंत्रियों की लिस्ट सामने आई. सुषमा स्वराज इस लिस्ट में नहीं थीं.

कहा गया कि उन्होंने सेहत का हवाला देकर मंत्री बनने से इंकार कर दिया था. फिर सवाल उठने लगा कि विदेश मंत्री कौन बनेगा? एस जयशंकर ने मंत्री पद की शपथ ली तभी स्पष्ट हो गया था कि मोदी के दूसरे कार्यकाल में विदेश मंत्री की ज़िम्मेदारी वही संभालेंगे.

एस जयशंकर के करियर पर एक नज़र

दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफ़न्स कॉलेज से ग्रेजुएशन
जेएनयू से राजनीतिक विज्ञान में एमए, एमफ़िल और अंतर्राष्ट्रीय संबंध में पीएचडी
पहली बार विदेश मंत्रालय से 1977 में जुड़े और विदेश में पहली पोस्टिंग मॉस्को स्थित भारतीय दूतावास में पहले और दूसरे सचिव के तौर पर हुई
1985 में वॉशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास में पहले सचिव के तौर पर तैनात किए गए और तीन साल तक यहाँ रहे
1988 में श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फ़ोर्स के राजनीतिक सलाहकार बने
1990 में हंगरी स्थित भारतीय दूतावास में वाणिज्यिक दूत बनाए गए
1993 में भारत लौटे और विदेश मंत्रालय में पूर्वी यूरोपियन डिविज़न के निदेशक बनाए गए
1996 में टोक्यो स्थित भारतीय दूतावास में जयशंकर को उप-राजदूत बनाया गया
2000 में चेक रिपब्लिक में पहली बार जयशंकर की पोस्टिंग राजदूत के तौर पर हुई
2007 में सिंगापुर में भारतीय उच्चायुक्त बने
2009 से 2013 तक चीन में भारत के राजदूत बने
2013 से 2015 तक अमेरिका में भारत के राजदूत रहे
2015 में विदेश सचिव और 2019 में भारत के विदेश मंत्री बने

जयशंकर अभी सख़्त क्यों हैं?

नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में शिव सेना नेता सुरेश प्रभु को लेकर भी इसी तरह से चौंकाया था. उन्हें मोदी ने रेल मंत्री बनाने के लिए शिव सेना से बीजेपी में शामिल किया था. हालांकि सुरेश प्रभु को तीन साल के भीतर ही रेल मंत्री से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. लेकिन जयशंकर को लेकर पीएम मोदी का भरोसा अभी तक डगमगाया नहीं है.

यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से जयशंकर के तेवर की विदेश मंत्री के रूप में काफ़ी चर्चा हो रही है. विदेश मंत्री एस जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह इसी महीने 11 अप्रैल को 2+2 वार्ता के लिए अमेरिका गए थे.

इस वार्ता के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के साथ भारतीय विदेश और रक्षा मंत्री प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रहे थे. प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक पत्रकार ने रूस से से भारत के तेल ख़रीदने पर सवाल पूछा तो जयशंकर ने दो टूक जवाब देते हुए कहा था कि ‘भारत रूस से जितना तेल एक महीने में ख़रीदता है, उतना यूरोप एक दोपहर में ख़रीदता है’.

जयशंकर के इस जवाब की चर्चा दुनिया भर के मीडिया में हुई. जयशंकर यहीं तक नहीं रुके. इसी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा था कि भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर उनकी नज़र है. ब्लिंकन की इस टिप्पणी पर वॉशिंगटन में भारतीय पत्रकारों ने जयशंकर से जवाब मांगा तो उन्होंने दो टूक कहा- “जिस तरह से अमेरिका भारत में मानवाधिकारों को लेकर अपनी राय रखता है, उसी तरह से भारत भी अमेरिका में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर अपना विचार रखता है.”

जयशंकर की इस टिप्पणी को काफ़ी सख़्त माना गया. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र की अध्यक्ष अर्चना उपाध्याय कहती हैं कि पहली बार किसी भारतीय विदेश मंत्री ने अमेरिका को उसी की धरती पर आईना दिखाया है. लेकिन जयशंकर के ये तेवर नरम नहीं पड़े. उनके तेवर अब भी उतने ही तल्ख़ हैं.

एक बार फिर से दो टूक

भारत पर यूरोप दबाव डाल रहा है कि वह यूक्रेन पर रूस के हमले का विरोध करे. मंगलवार को भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक बार फिर रायसीना डायलॉग में तल्ख़ जवाब दिया.

विदेश मंत्री एस जयशंकर नॉर्वे के विदेश मंत्री के सवाल का जवाब दे रहे थे. अपने जवाब में जयशंकर ने कहा, ”याद कीजिए कि अफ़ग़ानिस्तान में क्या हुआ. यहाँ की पूरी सिविल सोसाइटी को दुनिया ने छोड़ दिया. जब एशिया में नियम आधारित व्यवस्था को चुनौती मिली तब हमें यूरोप से व्यापार बढ़ाने की सलाह मिली. कम से कम हम सलाह तो नहीं दे रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान के मामले में किस नियम आधारित व्यवस्था का पालन किया गया. कोई टकराव नहीं चाहता है और यूक्रेन-रूस संघर्ष में कोई विजेता नहीं होगा.”

डॉ. राजन कुमार कहते हैं, ”जयशंकर का बयान यूँ ही नहीं है. मुझे लगता है कि यह भारत की विदेश नीति में नई शिफ्टिंग है. जयशंकर को अमेरिका समर्थक माना जाता था. जिस तरह से उन्होंने अमेरिका में मोदी के कैंपेन में वहाँ बसे भारतीयों को जोड़ने का काम किया था, उससे यही लगता था लेकिन भारत पिछले साल अगस्त से बहुत नाराज़ है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने जिस तरह से भारत को बताए बिना अपना बोरिया-बिस्तर समेटा है, वह मोदी सरकार के लिए बड़ा झटका था. भारत ने वहाँ अरबों डॉलर का निवेश किया था.”

राजन कुमार कहते हैं, ”अमेरिका ने क्वॉड बनाया लेकिन अचानक से ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन के साथ ऑकस बना दिया. क्वॉड में बातें दुनिया भर की होती हैं लेकिन लागू कुछ भी नहीं होता है. ऑकस बनने के बाद क्वॉड का कुछ मतलब नहीं दिखता है. भारत में एक धारणा मज़बूत बन रही है कि अमेरिका या पश्चिम पर भरोसा नहीं किया जा सकता है. जयशंकर के बयान से साफ़ है कि मोदी सरकार अब अमेरिका और पश्चिम के दावों को लेकर सतर्क है.”

भारत के बारे में क्या सोचते हैं जयशंकर?

सितंबर 2020 में जयशंकर की किताब ‘द इंडिया वे’ आई थी. इस किताब में कहा गया है कि तीन चीज़ों ने भारत की विदेश नीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.

पहला देश का विभाजन. जयशंकर की किताब के अनुसार विभाजन के कारण भारत का आकार छोटा हुआ और चीन की अहमियत पहले से ज़्यादा बढ़ गई. दूसरा यह कि 1991 के आर्थिक सुधार में देरी हुई और यह पहले हो जाना चाहिए था.

जयशंकर ने लिखा है कि अगर यह आर्थिक सुधार पहले हो गया होता तो भारत पहले अमीर राष्ट्र बन जाता. तीसरी बात यह कही गई है कि भारत ने परमाणु हथियार चुनने के मामले में देरी की. जयशंकर ने इन तीनों को भारत के लिए बोझ बताया है.

जयशंकर के पिता के सुब्रमण्यम की विशेषज्ञता को कई प्रधानमंत्री तवज्जो देते थे. इनमें राजीव गांधी, आईके गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक शामिल हैं. हालांकि ये सभी प्रधानमंत्री विचारधारा के स्तर पर अलग-अलग सोचते थे.

-BBC

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