ऐसा भारतीय साधु जिसने कैलाश पर्वत पर रहकर की चीन की जासूसी, पढ़िए स्वामी प्रणवानंद की कहानी..

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आंध्र का लड़का लाहौर पहुंचा

1896 में आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के एक छोटे से गांव में प्रणवानंद का जन्म हुआ। तब उनका नाम कनकदंडी वेंकट सोमायाजुलु रखा गया था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज, लाहौर में एडमिशन लिया। अब इसे सरकारी इस्लामिया कॉलेज के नाम से जाना जाता है। कॉलेज की पढ़ाई कर कनकदंडी लाहौर में ही रेलवे अकाउंटेंट दफ्तर में नौकरी करने लगे। सितंबर 1920 में वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। अगले 6 वर्षों तक वह आजादी की लड़ाई में गांव-गांव, शहर-शहर घूमते रहे। अपने जिले में कांग्रेस पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में काम करते रहे। धीरे-धीरे उनके जीवन में आध्यात्मिक चेतना बढ़ने लगी। स्वामी ज्ञानानंद की प्रेरणा से उन्हें हिमालय के बारे में जानकारी हुई।

स्वामी ज्ञानानंद को उस दौर में भारत के प्रमुख परमाणु भौतिकशास्त्रियों में से एक माना जाता है। यहीं से KVS के जीवन में एक नया मोड़ आया। ऋषिकेश में उन्हें नया नाम मिला और वह ब्रह्मचारी प्रणवानंद कहलाए।

पैदल चल पड़े हिमालय की यात्रा पर

सांसारिक मोहमाया से दूर गुरु ज्ञानानंद ने हिमालय पर कई साल बिताए थे। उनके नक्शे कदम पर चलते हुए प्रणवानंद ने पैदल यात्रा शुरू कर दी। वह सबसे पहले कश्मीर के रास्ते कैलाश मानसरोवर के लिए निकले। रास्ते में कुछ दूरी का सफर उन्होंने घोड़े पर तय किया। वह साल 1928 था। देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के लिए संघर्ष कर रहा था। 1935 से लगातार हर साल 1950 तक प्रणवानंद कैलाश की यात्रा करते रहे। अपनी यात्राओं के दौरान स्वामी प्रणवानंद जिस क्षेत्र में होते वहां के खनिज, भूविज्ञान, जलवायु, पक्षियों आदि के बारे में व्यापक जानकारी इकट्ठा करते। उन्होंने क्षेत्र में झरनों, नदियों जैसे जलस्रोतों के बारे में बहुमूल्य वैज्ञानिक जानकारियां जुटाईं। तब तक इस क्षेत्र के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी।

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि प्रणवानंद ने ही सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलुज जैसी नदियों के अलग-अलग उद्गम स्थान बताए, तब तक ऐसा माना जाता था कि ये नदियां कैलाश पर्वत के पास मनसरोवर झील से निकलती हैं। उनके द्वारा जुटाई गई जानकारियों और निष्कर्षों को 1941 से सर्वे ऑफ इंडिया ने सभी मानचित्रों में शामिल कर लिया।

The Paperclip ने उस समय की तस्वीरों, नक्शों और आईकार्ड की तस्वीरें ट्विटर पर शेयर की हैं। ये हैबिटेट सेंटर से ली गई हैं। स्वामी प्रणवानंद ने कैलास क्षेत्र पर 3 किताबें लिखीं- हमारी कैलास यात्रा 1932 में आई, पवित्र कैलास और मानसरोवर की चार प्रमुख नदियों के स्रोत समेत दो किताबें 1939 में आईं। उन्हें रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी का फेलो बनाया गया।

आजादी के बाद चीन के खिलाफ जासूसी

भारत की आजादी के बाद स्वामी प्रणवानंद के कार्यों को मान्यता मिली। असहयोग आंदोलन में उनकी सक्रियता और दुर्गम हिमालयी क्षेत्रों में उनके मौलिक शोध को देशभर में सराहा गया। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के तौर पर पेंशन मिलने लगी। हालांकि स्वामी प्रणवानंद ने अपने हिमालय भ्रमण को बंद नहीं किया। वह 1950 से 1954 के दौरान लगातार कैलाश मानसरोवर यात्रा करते रहे। उस समय चीन में माओ का राज था और इस क्षेत्र पर कम्युनिस्ट देश की सेना PLA का कब्जा हो चुका था तब भी वह एक गुप्त एजेंट के तौर पर काम करते रहे।

भारत सरकार को किया अलर्ट

संग्रहालय और किताबों में जानकारी मिलती है कि स्वामी प्रणवानंद चीन के कब्जे के बाद भी पांच साल तक कैलास-मानसरोवर क्षेत्र में आते जाते रहे। यह उनकी अपनी पहल थी। उन्होंने चीनी फौज की मौजूदगी के बारे में भारत सरकार को अलर्ट किया और सामरिक जानकारी उपलब्ध कराई। यह कोई एक दो पन्ने की सूचना नहीं थी। बताते हैं कि उन्होंने भारत-तिब्बत सीमा पर पाकिस्तान और ईसाई मिशन एजेंटों की खुफिया गतिविधियों के बारे में 4000 पेज की सूचना जुटाई थी। ये एजेंट पश्चिमी देशों से जुड़े थे।

पिस्तौल लेकर चलने वाला साधु

तब कैलाश पर्वत के आसपास के इलाके में लुटेरे घूमते रहते थे, जो यहां आने वाले तीर्थयात्रियों को निशाना बनाते थे। ऐसे में स्वामी प्रणवानंद उन्हें डराने के लिए 0.25 बोर की रिवाल्वर बांधे रहते थे। बाद में उन्होंने 0.30 माउजर पिस्टल रखना शुरू कर दिया। 1962 में चीन के साथ लड़ाई छिड़ी तो उन्होंने अपनी पिस्टल डिफेंस फंड में दान दे दी थी।

तब बाघ को जहर दे देते थे तस्कर

बताया जाता है कि उस दौर में बड़ी तेजी से अवैध तरीके से वनों को काटा जा रहा था और दुर्लभ पक्षियों-पशुओं के शिकार हो रहे थे। कस्तूरी के लिए हिरणों को मारा जाता था। दांत, हड्डी, खाल के लिए बाघों को जहर दे दिया जाता था। इसी तरह भालू समेत कई हिमालयी जानवरों को मौत के घाट उतार दिया जाता था। उन्होंने अपनी लेखनी के जरिए बेजुबान जानवरों के संरक्षण पर जोर दिया। उनका दूसरा मुख्य योगदान भारत-तिब्बत और भारत-नेपाल सीमा पर पर्यटन और अनुसंधान के नाम विदेशियों की साजिश के बारे में सरकार को अलर्ट करना रहा। आगे चलकर उन्हें बॉर्डर एक्सपर्ट के तौर पर जाना गया।

देश ने दिया पद्मश्री

किसी पेशेवर गुप्तचर की तरह स्वामी प्रणवानंद 1955 तक खुफिया जानकारियां भारत सरकार को देते रहे। इसी साल चीन की खुफिया एजेंसी ने उनका पता लगा लिया। ऐसे में स्वामी ने फौरन लोकेशन बदली और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में रहने का फैसला किया। उन्हें 1976 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म श्री से सम्मानित किया गया।

1980 में वह अपनी जन्मभूमि आंध्र प्रदेश लौट गए और अपने गांव में एक मंदिर का निर्माण कराया। 1989 में 93 साल की उम्र में स्वामी प्रणवानंद परलोक सिधार गए। दुर्भाग्य है कि आज की पीढ़ी को उनके योगदान के बारे में जानकारी ही नहीं है। उन्हें किताबों में भी कम जगह मिली। हिमालय की कंदराओं में घूमने वाले वह साधु वास्तव में एक वैज्ञानिक, लेखक, वन्यजीव संरक्षक, पर्यावरण प्रेमी तो थे ही, उन्होंने चीन बॉर्डर पर गुप्तचर के रूप में देश को बहुमूल्य जानकारियां दीं। जब भी देश के जासूसों की कहानियां लिखी जाएंगी, उनका नाम गर्व के साथ लिया जाएगा।

Compiled: up18 News