दिल मे है नफरत ऐसी ही है इनकी फितरत दंगो से प्यार है हिन्दू -मुस्लिम राजनीति ही इनका हथियार है
बाहर दिखावा अहिंसा के पुजारी गाँधी जी को आत्मसात का, अंदरूनी समर्थन कतली नाथूराम के जज्बात का..?
वो राम को “नहीं” लाये हैं…मगर जज्बात भुनाएंगे…ऐसे ही वो जनता को हरदम बरगलायेंगे.
वाराणसी। विविधताओं से भरे देश भारत में भगवान राम हमेसा से ही सनातनियों के आराध्यदेव रहे हैं। राम मात्र आस्था के नहीं बल्कि बुराई पर अच्छाई की जीत के लिये पूजे जाते हैं। इसलिए सनातनियों द्वारा किसी के अभिवादन में बाअदब राम-राम कहा जाता है, सीताराम कहा जाता है। राम ने कईयों का कल्याण किया है। उसमें एक बीजेपी भी है, जिसने तो राम के नाम को सत्ता की कुंजी ही बना लिया है। इसलिए चुनावी बेला में अपनी उपलब्धियों से ज्यादा राम के नाम को आगे कर रही है। और बीजेपी के लोग जोश में कह जा रहे हैं कि जो “राम को लाये हैं”…जबकि यह नारा ही हास्यास्पद है क्योंकि राम का अस्तित्व बीजेपी से नहीं बल्कि बीजेपी का अस्तित्व राम से है।
खैर विषय में राम हों और चर्चा राम को भजने वाले महात्मा गांधी और उनके कातिल ‘नाथूराम’ की चर्चा इसलिए जरूरी हो जाती है। क्योंकि मूख में राम रखने वालों (संघ/बीजेपी) ने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को राम-राम से अंतिम वाक्य “हेराम” तक पहुचाने वाले नाथूराम को अप्रत्यक्ष तौर पर हमेसा अपने दिमाग में समुचित और सम्मानजनक स्थान दिया है, आपका सवाल होगा कैसे…?
तो याद करना होगा वर्ष 2019 के उस पल को जब भाजपा सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताया था। जिसपर पीएम मोदी ने नाराजगी जताते हुये कहा था कि वह प्रज्ञा ठाकुर को “कभी दिल से माफ नहीं कर पायेंगे” । देखा जाय की अगर वाकई प्रज्ञा ठाकुर के बयान से वह आहत होतें तो अब तलक कब का ही प्रज्ञा को पार्टी से किनारे कर दिया गया होता। क्योंकि बीजेपी सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने कई मौकों पर नाथूराम गोडसे का पक्ष लिया है। प्रज्ञा ने नाथूराम को कहा था कि वह देशभक्त थे, हैं और हमेशा रहेंगे। उन्हें आतंकवादी कहने वाले लोगों को अपने गिरेहबान में झांकना चाहिए। दरअसल बीजेपी/संघ ने महात्मा गांधी को केवल उनके वैश्विक स्वीकारता को देखते हुये उनके नाम को अपनी सुविधा के अनुसार स्वीकार किया है।
क्योंकि वह बखूबी जानते हैं कि भले ही वह महात्मा गांधी की हत्या को दशकों बीत गयें हैं मगर गांधी आज भी करोड़ों लोगों के विचारों में जीवित हैं। इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिल से कहें या मजबूरन गांधी जी के नाम की माला सार्वजनिक तौर पर जपते रहते हैं।
संघ/बीजेपी के लिये यह भी मसला है कि उन्हें लगता है वह जिसदिन गांधी जी को आत्मिक तौर पर स्वीकार लेगी उसी दिन से उसके एजेंडे की नींव दरक जायेगी। इसलिए बहरहाल बाहर से ही वह गांधी जी को स्वीकारती रहती है और वक्त-वक्त पर नाथूराम के नाम को उछालकर जनता के नब्ज को टटोलती रहती है कि क्या नाथूराम की स्वीकार्यता बढ़ी है कि नहीं..?
इसलिए यह आम जनमानस को सोचने समझने का विषय है की मुहं में राम और दिल में नाथूराम को रखने वाले देश, काल, समाज समरसता के लिये हितकारी होंगे या अहितकर…? यह हमसे नहीं बल्कि खुद के अंतरात्मा से सवाल करिये, वरना सामाजिक ताने बाने का “राम नाम सत्य” होने से कोई नहीं रोक सकता।
-अमित मौर्या-