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अन्तर्द्वन्द

हिमांशु कुमार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का यह कैसा न्याय

श्री विजय शंकर सिंह (रिटायर्ड IPS अधिकारी)

इंसाफ मांगने वालों पर अब सुप्रीम कोर्ट ने जुर्माना लगाने की एक नई परम्परा शुरू की है। याचिका तो खारिज होती ही है, याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी, अलग से लगाया जाने लगा । यह एक निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण प्रथा है माननीय सुप्रीम कोर्ट। माननीय जज साहबान, अपना अंतरावलोकन कीजिए, अगर आप इंसाफ नहीं कर पाए तो, इसके क्या दुष्परिणाम होंगे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

जज साहबान और अदालतों को माननीय कहे जाने की परंपरा है और यह परंपरा ब्रिटिश जुडिशियल सिस्टम से आई है। यह मान कर चला जाता है कि हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को माननीय कहा जाना चाहिए और न्यायमूर्ति महानुभावों को माननीय और विद्वान। सिस्टम यह अपेक्षा भी करता है कि, अदालतें और जस्टिस, माननीयता और विद्वता के मार्ग से विचलित भी न हों। इन दो विशेषणों के साथ ही उन्हे अपनी अवमानना करने वालों से निपटने का भी अधिकार प्राप्त है। भारत में तो अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियां और अधिकार भी प्राप्त है।

पर यह सारी शक्तियां और अधिकार, माननीयता और विद्वता का लकब, केवल न्याय, संविधान की रक्षा और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए ही संविधान ने आप को नवाजा है, न कि आप की दहलीज पर इंसाफ और किसी घटना की जांच के लिए गए किसी फरियादी को दंडित करने के लिए। आप तक पहुंचने वाला हर फरियादी यह सोच कर आता है कि, असाधारण अधिकार और शक्ति संपन्न न्यायपालिका, बिना किसी पक्षपात के, विधिसम्मत रूप से, उसके अधिकारों की रक्षा करेगी।

एक व्यक्ति के नाते, हर जज की भी एक विचारधारा हो सकती है, राजनीतिक सोच और लगाव भी हो सकता है पर जब वह पीठ पर आसीन होता है, तो उससे वही अपेक्षा रहती है, कि जो भी निर्णय होगा, वह न केवल न्यायपूर्ण होगा, बल्कि न्यायपूर्ण दिखेगा भी। जकिया जाफरी केस के बाद अब, हिमांशु कुमार का मामला भी ऐसा ही है, जिसमे अदालत ने कुछ ऐसी बातें अपने फैसले के कही हैं जिनपर लंबे समय तक कानून के जानकर हैरान होते रहेंगे और बहस करते रहेंगे।

हिमांशु कुमार का मामला इस प्रकार है ~

साल 2009 में गोमपाड़ में पुलिस ने 16 माओवादियों के मारे जाने का दावा किया था. लेकिन इस मामले में घायल एक आदिवासी महिला ने दावा किया था कि सुरक्षाबलों ने गांव के निर्दोष लोगों की फर्जी मुठभेड़ में हत्या की है। इसके बाद इस मामले में दंतेवाड़ा में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार और अन्य 12 लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।

लगभग 13 सालों तक चली सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की जांच के लिए एसआईटी गठित करने की भी बात कही थी. लेकिन स्वतंत्र जांच की बात टल गई। इसी साल अप्रैल में केंद्र सरकार की ओर से हिमांशु कुमार और अन्य याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ अदालत में आवेदन दिया गया और याचिकाकर्ताओं के ख़िलाफ़ ही सीबीआई या एनआईए से जांच की मांग की गई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले के गोमपाड़ में 16 आदिवासियों के मारे जाने के मामले की जांच की मांग को ख़ारिज कर दी है।जस्टिस एएम खानविलकर और जे बी पारदीवाला की पीठ ने इस मामले में याचिकाकर्ता हिमांशु कुमार पर पांच लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है.

फ़ैसले के बाद हिमांशु कुमार ने बीबीसी से कहा “यह आदिवासियों के न्याय मांगने के अधिकार पर बड़ा हमला है. अब आदिवासी न्याय मांगने में डरेगा. इससे तो यही साबित होता है कि पहले से ही अन्याय से जूझ रहा आदिवासी अगर अदालत में आएगा तो उसे सजा
दी जाएगी. इसके साथ-साथ जो भी आदिवासियों की मदद की कोशिश कर रहे हैं, उन लोगों के भीतर डर पैदा करेगा.”

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद हिमांशु कुमार ने अपना बयान भी जारी किया है:

” चंपारण में गांधी जी से जज ने कहा तुम्हें सौ रुपयी के जुर्माने पर छोड़ा जाता है
गांधीजी ने कहा मैं जुर्माना नहीं दूंगा

” कोर्ट ने मुझसे कहा पांच लाख जुर्माना दो तुम्हारा जुर्म यह है तुमने आदिवासियों के लिए इंसाफ मांगा।”
मेरा जवाब है,
“मैं जुर्माना नहीं दूंगा
जुर्माना देने का अर्थ होगा मैं अपनी गलती कबूल कर रहा हूं। मैं दिल की गहराई से मानता हूं कि इंसाफ के लिए आवाज उठाना कोई जुर्म नहीं है। यह जुर्म हम बार-बार करेंगे।”

तेरह साल की सुनवाई के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि फरियादी ही मुल्जिम है, उसने अदालत का वक्त जाया किया है और उसे जुर्माने या जेल की सजा दे दी जाय। हर फैसला एक संदेश देता है। यह फैसला क्या यह संदेश नहीं देता है कि गरीबों, आदिवासियों, बेआवाज लोगों के लिए किसी अदालत में बहैसियत फरियादी के रूप में खड़े होना, घातक हो सकता है ?

(श्री विजय शंकर सिंह जी की फ़ेसबुक पोस्ट से साभार सहित)

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