तसलीमा नसरीन बांग्लादेश की मशहूर लेखिका हैं. हालांकि, पहले वह एक डॉक्टर भी थीं लेकिन निर्वासन के चलते डॉक्टरी पेशे को तिलांजलि देनी पड़ी. ‘लज्जा’ उपन्यास के चलते हुए निर्वासित जीवन जीना पड़ा. 1994 से वह निर्वासन में रह रही हैं.
तसलीमा नसरीन का जन्म 25 अगस्त 1962 को पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश के मयमनसिंह शहर में हुआ था. उन्होंने मयमनसिंह मेडिकल कॉलेज से मेडिकल स्नातक की डिग्री हासिल की. डिग्री प्राप्त करने के बाद उन्होंने सरकारी डॉक्टर के रूप में कार्य आरम्भ किया. स्कूल के दिनों से ही उन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था.
अब बात ‘लज्जा’ की
तलसीमा नसरीन का ‘लज्जा’ एक बंगला उपन्यास है. 1993 में यह पहली बार प्रकाशित हुआ था. उपन्यास के प्रकाशित होते ही ये कट्टरपंथियों के निशाने पर आ गईं. इस उपन्यास में उन्होंने साम्प्रदायिक उन्माद के नृशंस रूप को रेखांकित किया है. उपन्यास में धार्मिक कट्टरपन को उसकी पूरी बर्बरता से सामने लाने का प्रयास किया गया है. बढ़ते विरोध के चलते ‘लज्जा’ पर प्रकाशन के छह महीने के भीतर ही प्रतिबंध लगा दिया गया.
कट्टरपंथियों ने उनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया. फतवे के कारण वे बांग्लादेश छोड़ कर अमेरिका चली गईं. तसलीमा ने 10 साल स्वीडन, जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका में बिताए. 2004 में वह कोलकाता आ गईं. 2007 में हैदराबाद में कट्टरपंथियों ने उन पर हमला कर दिया. हमले के बाद वे नजरबंद जीवन जीने लगीं. कुछ समय कोलकाता में रहीं. इसके बाद दिल्ली आ गईं. तभी से वे दिल्ली में रह रही हैं और साहित्य सृजन में रमी रहती हैं.
तसलीमा नसरीन ने कविता, निबंध, उपन्यास, लघु कथा और संस्मरणों की तीन दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी हैं. कई भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद हुआ है. इस उपन्यास का हिंदी संस्करण वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है.
‘लज्जा’ उपन्यास का एक अंश
सुरंजन सोया हुआ है. माया बार-बार उससे कह रही है- ‘भैया उठो, कुछ तो करो… देर होने पर कोई दुर्घटना घट सकती है. सुरंजन जानता है, कुछ करने का मतलब है कहीं जाकर छिप जाना. जिस प्रकार चूहा डर कर बिल में घुस जाता है, फिर जब उसका डर खत्म होता है तो चारों तरफ देखकर बिल से निकल आता है. उसी तरह उन्हें भी परिस्थिति शांत होने पर छिपी हुई जगह से निकलना होगा. आखिर क्यों उसे घर छोड़कर भागना होगा?
सिर्फ इसलिए कि उसका नाम सुरंजन दत्त, उसके पिता का नाम सुधामय दत्त, मां का नाम किरणमयी दत्त और बहन का नाम नीलांजना दत्त है. क्यों उसके मां-बाप, बहन को घर छोड़ना होगा।
कमाल, बेताल व हैदर के घर में आश्रय लेना होगा. जैसा कि दो साल पहले लेना पड़ा था. तीस अक्तूबर की सुबह कमाल अपने इस्कोटन के घर से कुछ आशंका करके ही दौड़ा आया था. सुरंजन को नींद से जगाकर कहा, ‘जल्दी चलो, दो-चार कपड़े जल्दी से लेकर घर पर ताल लगाकर सभी मेरे साथ चलो. देर मत करो, जल्दी चलो. कमाल के घर पर उनकी मेहमान नवाजी में कोई कमी नहीं थी. सुबह नाश्ते में अंडा-रोटी, दोपहर में मछली-भात, शाम को लॉन में बैठकर अहेबाजी, रात में आरामदेह बिस्तर पर सोना, काफी अच्छा बीता था वह समय. लेकिन क्यों उसे कमाल के घर पर आश्रय लेना पड़ता है? कमाल उसका बहुत पुराना दोस्त है. रिश्तेदारों को लेकर वह दो-चार दिन कमाल के घर पर रह सकता है लेकिन उसे क्यों रहना पड़ेगा? उसे क्यों अपना घर छोड़कर भागना पड़ता है, कमाल को तो भागना नहीं पड़ता? यह देश जितना कमाल के लिए है उतना ही सुरंजन के लिए भी तो है. नागरिक अधिकार दोनों का समान ही होना चाहिए लेकिन कमाल की तरह वह क्यों सिर उठाये खड़ा नहीं हो सकता. वह क्यों इस बात का दावा नहीं कर सकता कि मैं इसी मिट्टी की संतान हूं, मुझे कोई नुकसान मत पहुंचाओ.
सुरंजन लेटा ही रहता है. माया बेचैन होकर इस कमरे से उस कमरे में टहल रही है. वह यह समझना चाह रही है कि कुछ अघट घट जाने के बाद दुखी होने से कोई फायदा नहीं होता. सीएनएन टीवी पर बाबरी मस्जिद तोड़े जाने का दृश्य दिखा रहा है. टेलीविजन के सामने सुधामय और किरणमयी स्तमित बैठे हैं. वे सोच रहे हैं कि सन् 1990 के अक्तूबर की तरह इस बार भी सुरंजन किसी मुसलमान के घर पर उन्हें छिपाने ले जायेगा लेकिन आज सुरंजन को कहीं भी जाने की इच्छा नहीं है. उसने निश्चय किया है कि वह सारा दिन सोकर ही बिताएगा. कमाल या अन्य कोई यदि लेने भी आता है तो कहेगा, ‘घर छोड़कर वह कहीं नहीं जायेगा, जो होगा देखा जायेगा.
-एजेंसी