आर्थिक सवालों से बचने के लिए धार्मिक गौरव की शरण में मोदी…

Cover Story अन्तर्द्वन्द

महंगाई, बेरोज़गारी, महँगी शिक्षा, कम सैलरी की नौकरी, ज़्यादा घंटे के काम, संविदा की नौकरी, पुरानी पेंशन। ये सब आर्थिक मुद्दों की श्रेणी में आते हैं। यह सही है कि किसी भी चुनाव में इन आर्थिक मुद्दों की निर्णायक भूमिका नहीं रही, मगर इनका असर दिखने लगा है। राजस्थान और ओडिशा में कई हज़ार संविदाकर्मियों की नौकरी पक्की की गई है। यही नहीं राजस्थान सरकार ने कहा है कि संविदा की बहाली नहीं होगी। आर्थिक मुद्दों की राजनीति का यह सबसे अच्छा नतीजा है। इन मुद्दों पर जितनी राजनीति होगी, जनता का जीवन उतना ही बेहतर होगा। झारखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में पुरानी पेंशन लौट आई है। अब गुजरात और हिमाचल में इनकी वापसी की माँग हो रही है। प्रधानमंत्री भी नौकरी की बात करने लगे हैं। हाल ही में 75,000 नियुक्ति प्रमाण पत्र बाँटे गए हैं।

जनता देख सकती है कि इन मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाने से कितना फ़ायदा हुआ है। जिस तरह से जीवन आर्थिक अनिश्चितताओं से घिरा है, उसे देख कर लगता है कि आर्थिक मुद्दों की ही प्रधानता होनी चाहिए। मेरे पास इसका सटीक आँकलन नहीं है कि इन मुद्दों की बदौलत किस राज्य में चुनाव जीता गया और हारा गया। इनकी क्या भूमिका रही? क्या लोग इन्हें किनारे लगाकर आस्था और धर्म के गौरव से जुड़े मुद्दे पर वोट देते रहे हैं और देंगे? इन सवालों के उत्तर हाँ में आते हैं, फिर भी ठोस अध्ययन होना ही चाहिए

प्रधानमंत्री मोदी विरासत के नाम पर धर्म और आस्था की राजनीति करने लगे हैं। उन्हें पता है कि अगले दो साल में आर्थिक तौर पर करने के लिए कुछ ख़ास नहीं बचा है। इस मामले में नारेबाज़ी तो होगी मगर ठोक नतीजे नहीं दिखेंगे। जनता महंगाई और बेरोज़गारी और कम से कम सैलरी की नौकरी के जाल में फँस कर छटपटा रही है। इसमें बदलाव का समय और अवसर नहीं है। न मोदी के पास कोई आर्थिक उपाय है। इससे पहले कि लोग सवाल पूछें, नरेंद्र मोदी सवाल ही बदलने में लगे हैं। वे मंदिर परिसरों के उत्थान की राजनीति का खेल सेट कर रहे हैं ताकि उदास और ग़रीब जनता को बता सकें कि कुछ तो कर रहे हैं। यह काम किसी ने नहीं किया मगर वे कर रहे हैं। जैसे गाँव में कहते हैं कि जाने दीजिए, पढ़ाई में ठीक नहीं है तो क्या हुआ, घर का सारा काम ठीक से करता है। ठीक इसी तरह से मूल प्रश्नों से बचने के लिए प्रधानमंत्री यह भंगिमा अपना रहे हैं कि वे पूजा में व्यस्त हैं।

ऐसा नहीं है कि प्रमुख मंदिर स्थानों में पहले से इंतज़ाम नहीं है। कई सारे ऐसे परिसर व्यवस्थित और सुसज्जित होते ही हैं। हमें यह जानना चाहिए कि सरकार ने जो इन परिसरों में विकास के काम कराए हैं, क्या इसके लिए उन मंदिर संस्थानों के पास पैसे नहीं थे? उनकी तरफ़ से की जाने वाली सजावट और देखरेख में ऐसी क्या कमी थी कि इनमें मामूली जोड़ घटाव कर कॉरोडिर का नाम दिया जा रहा है। इसलिए कि यहाँ आने वाले लोगों को लगे कि वाह मोदी ने चमका दिया है। इन परिसरों के पास करोड़ों रुपये का फंड होता है,जिससे वे परिसर की व्यवस्था करते ही हैं, अब सरकार भी इन मंदिर परिसरों के विकास पर कई सौ करोड़ ख़र्च कर रही है।यह काम तेज़ गति से पूरा कराया जा रहा है।

प्रधानमंत्री वहाँ जाकर कहने लगे हैं कि वे हीन भावना दूर कर रहे हैं। कुछ दिन में लोग मान भी लेंगे कि वे हीन भावना के शिकार थे, मंदिर जाने में शर्म आती थी, मोदी जी के कारण गौरव होता है। कोई यह नहीं पूछेगा कि हर धार्मिक उत्सव में करोड़ों लोग हिस्सा लेते हैं, स्थानीय मंदिरों में लाखों लोग आते ही रहे हैं, उनमें हीन भावना कब थी मगर मोदी जी बार बार बोल कर भर देंगे कि पहले उनमें हीन भावना थी और अब वह मोदी जी के कारण दूर हो रही है। यही नहीं इस पर भी ज़ोर दिया जाएगा कि विरासत के विकास के बाद लाखों दर्शन के लिए जाने लगे हैं, जैसे पहले लाखों लोग नहीं जाते थे। जो व्यक्ति कई साल से नियमित दर्शन परिक्रमा करता है, वह भी मान लेगा कि मोदी जी के बाद से करने लगेगा।

गोदी मीडिया को सरकार और बाज़ार से करोड़ों रुपये के विज्ञापन मिलते हैं क्योंकि इसे करोड़ों लोग देखते हैं। इसी तरह धार्मिक स्थानों में करोड़ों लोग आते ही हैं। तो यह जगह प्रचार के काम आ सकती है। विरासत के विकास के नाम पर प्रधानमंत्री यही कर रहे हैं। जिस तरह से उनकी मंदिर यात्रा को कई कैमरों से दिखाया जाता है, गोदी मीडिया भी जुट जाता है, अख़बारों में विज्ञापन छपते हैं, उससे साफ़ है कि इरादा राजनीतिक ही है। ऐसा लगता है कि इस देश में पूजा करना केवल इन्हीं को आता है। जो काम हर नागरिक का सामान्य धार्मिक कर्म है, उसे विशेष बनाकर राजनीतिक लाभ के लिए कर रहे हैं।

लोग गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। लोगों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं है मगर धार्मिक उत्सव के नाम पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। जल्दी ही यह एक होड़ में बदलने जा रहा है, जिसके कारण और भी पैसा बहाया जाएगा। हर दल के नेता अपना मूल काम नहीं करेंगे, मंदिर-मंदिर घूमते रहेंगे। बस इसलिए कि आस्था का मामला जानकर कोई सवाल नहीं करेगा।

विपक्षी दल भी विरासत के विकास की राजनीति को लेकर सवाल नहीं करेंगे। उन्हें डर है कि ऐसा करने पर जनता उन्हें धर्म विरोधी समझ बैठेगी। इन सवालों से बचकर भी विपक्षी दलों को कोई फ़ायदा नहीं होगा। यह जान लेना चाहिए कि 2024 का चुनाव भी 2019 की तरह भावुक मुद्दे पर होगा क्योंकि भावुकता ही सवालों से पीछा छुड़ा सकती है। विपक्ष को इन मुद्दों पर अपना मत रखना ही होगा क्योंकि मंदिरों के विकास को लेकर मोदी आक्रामक होते जाएँगे। उनके पास दस साल के काम का हिसाब देने से बचने का यही कारगर रास्ता बचा है। लोगों के लिए अधिक से अधिक घंटे के काम और कम से कम सैलरी की नौकरी का अवसर बनाओ और उन्हें इस हाल पर छोड़ दो कि अस्सी करोड़ लोग दो वक्त का अनाज न ख़रीद पाएँ। लोग जब घर लौट कर अपने हालात से कराह रहे हों तो उन्हें मंदिर का दर्शन कराओ और वोट पाओ।

विपक्षी दलों को जनता के बीच इन मुद्दों पर काउंटर देना चाहिए कि इस देश में हिन्दू होने या मंदिर जाने को लेकर किसे हीन भावना थी? क्या लाखों लोग हीन भावना से मंदिरों में जा रहे थे? उन्हें मंदिर और आस्था को लेकर जनता से बात करने की भाषा सीखनी होगी।जनता के बीच बोलने का जोखिम उठाना होगा कि विरासत का विकास कुछ नहीं बल्कि बेहद कम काम में जनता को भरमाने और भटकाने का नया एजेंडा है।

रविश कुमार जी की फेसबुक वाल से साभार सहित