जलियाँवाला बाग़ कांड से बड़ा था मानगढ़ पहाड़ी का नरसंहार

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जलियाँवाला बाग़ नरसंहार से छह साल पहले राजस्थान-गुजरात सीमा की मानगढ़ पहाड़ी पर हुए नरसंहार से कम ही लोग परिचित होंगे.

जलियाँवाला बाग़ में जहां एक हज़ार से ज़्यादा लोग अंग्रेज़ी हुक़ूमत की गोलियों से मारे गए थे वहीं मानगढ़ नरसंहार में डेढ़ हज़ार लोगों के मारे जाने का दावा किया जाता है.

मानगढ़ पहाड़ी पर जुटे हज़ारों लोगों पर अंग्रेज़ी और देसी रियासतों की फ़ौज ने पूरी तैयारी के साथ गोलियाँ बरसाईं थीं.

साहित्यकार, इतिहासकार और स्थानीय लोगों का दावा है कि ये कांड जलियाँवाला बाग़ से बड़ा नरसंहार था लेकिन इतना बड़ा नरसंहार इतिहास में उस स्तर पर दर्ज नहीं हो सका.

राजस्थान की राजधानी जयपुर से क़रीब 550 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल बांसवाड़ा के ज़िला मुख्यालय से क़रीब 80 किमी दूर है मानगढ़. आनंदपुरी पंचायत समिति मुख्यालय से आगे बढ़ते हुए क़रीब चार किमी दूर से ही एक पहाड़ साफ नज़र आता है.

108 साल पहले हुए नरसंहार का गवाह रहा ये पहाड़ इसकी कहानी ख़ुद में समेटे हुए है. लोग अब इसे मानगढ़ धाम के नाम से बुलाते हैं. इसका क़रीब 80 फ़ीसदी भाग राजस्थान और 20 फ़ीसदी हिस्सा गुजरात में पड़ता है.

मानगढ़ पहाड़ी चारों ओर जंगल से घिरी हुई है. पहाड़ी की ऊँचाई क़रीब 800 मीटर मानी जाती है. पहचान के नाम पर घटना के क़रीब 80 साल तक यहाँ कुछ नहीं था. बीते दो दशक में ही यहाँ शहीद स्मारक, संग्रहालय और सड़क बनाई गई. एक तरह से कहें, तो मानगढ़ की ऐतिहासिकता को मान लिया गया लेकिन चारों ओर जंगल से घिरे मानगढ़ पहाड़ पर 108 साल पहले क्या स्थितियाँ रही होंगी, ये यहाँ पहुँच कर ही अंदाज़ा हो जाता है. इस नरसंहार को स्वीकार करने में सरकार ने भी बहुत समय लगा दिया.

घटना के क़रीब आठ दशक बाद राजस्थान सरकार ने नरसंहार में मारे गए सैकड़ों लोगों की याद में 27 मई 1999 को शहीद स्मारक बनवाया तो मानगढ़ को पहचान मिली लेकिन इतिहास ने कभी इस नरसंहार को वो जगह नहीं दी.

बांसवाड़ा के विधायक और पूर्व जनजाति विकास मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय कहते हैं, “मंत्री रहते हुए मैंने पाँच लोगों की कमेटी बनाकर राष्ट्रीय अभिलेखागार दिल्ली से इसके इतिहास को निकलवाया. ख़ुशी है कि धीरे-धीरे लोग जान रहे हैं कि मानगढ़ पर इतनी बड़ी घटना हुई थी.”

हमने मानगढ़ पहाड़ पर पहुँच कर देखा, यहाँ एक धूणी है, गोविंद गुरु की प्रतिमा और मानगढ़ से संबंधित जानकारी पत्थरों पर लिखी हुई हैं. डूंगरपुर ज़िले के बांसिया (वेड़सा) गाँव के बंजारा परिवार में जन्मे गोविंद गुरु ने 1880 में लोगों को जागरूक करने के लिए आंदोलन चलाया.

उन दिनों स्थानीय लोग ब्रितानी हुकूमत और देसी रियासतों के टैक्स, बेगारी प्रथा समेत कई अत्याचारों से जूझ रहे थे. इतिहासकार और रिटायर्ड प्रोफेसर बीके शर्मा कहते हैं, “ज़बरन टैक्स लगाए जा रहे थे. लोगों के साथ अछूतों जैसा बर्ताव किया जा रहा था. इन्हीं हालात में गोविंद गुरु के आंदोलन से एक नई चेतना का उदय हो रहा था.”

गोविंद गुरु ने लोगों को समझाया कि धूणी में पूजा करें, शराब-मांस नहीं खाएँ, स्वच्छ रहें. उनके आंदोलन से चोरी तक की घटनाएँ भी बंद हो गई थीं और शराब का राजस्व घट गया था.

‘धूणीं तपे तीर’ के लेखक और पूर्व आईपीएस अधिकारी हरिराम मीणा कहते हैं, “साल 1903 में गोविंद गुरु ने संप सभा की स्थापना की. उनकी मुहिम को भगत आंदोलन भी कहा जाता है. जनजागृति का ये आंदोलन बढ़ता गया. देसी रियासतों को लगा कि गोविंद गुरु के नेतृत्व में आदिवासी अलग स्टेट की मांग कर रहे हैं.”

इतिहासकार और रिटार्यड प्रोफेसर वीके वशिष्ठ भी मानते हैं कि भील राज स्थापित करना चाहते थे. इस दौरान रियासतों ने ब्रितानी सरकार से कहा कि ये आदिवासी अपना राज स्थापित करना चाहते हैं. इसी वजह से यहाँ शराब की बिक्री कम हो गई है.

हालाँकि गोविंद गुरु ने ही संप सभा की स्थापना की, इस बात से प्रोफेसर वशिष्ठ इत्तेफ़ाक नहीं रखते. गोविंद गुरु के आंदोलन का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि देसी रियासतों ने ब्रितानी हुकूमत से इनके आंदोलन की शिकायत शुरू कर दी. यहीं से हालात बदले और कुछ सालों बाद 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी पर नरसंहार हुआ.

गोविंद गुरु का जनजागृति आंदोलन अब चरम पर था. मानगढ़ पर यज्ञ के लिए लोगों का कई दिन से आना जारी था. राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त तत्कालीन पत्र भी बताते हैं, ब्रितानी हुकूमत ने 13 और 15 नवंबर को गोविंद गुरु से मानगढ़ पहाड़ी ख़ाली करने के लिए कहा था. गोविंद गुरु ने यहाँ यज्ञ के लिए लोगों के जुटने की बात कही थी.

प्रोफ़ेसर अरुण वघेला बताते हैं कि “गुजरात के कुंड़ा, बांसवाड़ा के भुखिया वर्तमान आनंदपुरी और मोर्चा वाली घाटी की ओर से मानगढ़ को फ़ौज ने घेर लिया था. इस ऑपरेशन में ब्रितानी सेना के साथ ही बांसवाड़ा, डूंगरपुर, बरोड़ा, जोगरबारिया, गायकवाड़ रियासतों की फ़ौज और मेवाड़ भील कोर की कंपनी भी थी.”

फ़ौज ने पहाड़ी का नक्शा बनाया था और खच्चरों से मशीनगन और तोप मानगढ़ पहाड़ी पर पहुँचाईं थीं. मेजर हैमिल्टन और उनके तीन अफ़सरों ने सुबह 6.30 बजे हथियारबंद फ़ौज के साथ मानगढ़ पहाड़ी को तीन ओर से घेर लिया था. सुबह आठ बज कर दस मिनट पर शुरू हुई गोलीबारी 10 बजे तक चली.

मानगढ़ पर गुजरात सीमा में कुंडा गाँव के निवासी पारगी मंदिर में पूजा पाठ करते हैं. वह बताते हैं, “गोलीबारी तब रोकी गई, जब अंग्रेज़ अफ़सर ने देखा कि एक मृत महिला से लिपट कर उसका बच्चा स्तनपान कर रहा है.”

राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त तत्कालीन ब्रितानी पत्रों से ये पता चलता है कि इस फ़ोर्स में सातवीं जाट रेजिमेंट, नौवीं राजपूत रेजिमेंट, 104 वेल्सरेज़ राइफल रेजिमेंट, महू, बड़ौदा, अहमदाबाद छावनियों से एक-एक कंपनी पहुँची थी. मेवाड़ भील कोर से कैप्टेन जेपी स्टैकलीन के नेतृत्व में दो कंपनियाँ पहुँची थी.

पूर्व आईपीएस हरिराम मीणा बताते हैं, “एक कंपनी में क़रीब 120 जवान होते हैं, इनमें 100 हथियारबंद होते हैं. इतनी ही फ़ौज मेवाड़, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, कुशलगढ़ देसी रियासतों से शामिल हुई. डेढ़ हज़ार शहीदों के बराबर ही फ़ौजी ही थे.”

वह कहते हैं, “मेरी रिसर्च के अनुसार मानगढ़ में क़रीब 1500 लोग मारे गए थे. 700 लोग तो गोलीबारी में ही मारे गए और जबकि इतने ही पहाड़ी से गिरकर और उपचार के अभाव में मारे गए.”

इतिहासकार और रिटार्यड प्रोफेसर बीके शर्मा भी मानते हैं कि डेढ़ हज़ार आदिवासी इस नरसंहार में मारे गए थे. मानगढ़ पर लिखी गई क़िताबें और यहाँ संग्रहालय में उपलब्ध जानकारी भी 1500 लोगों की मौत का दावा करती है.

घटना के बाद ब्रितानी अधिकारी सरकार को मृतकों की सही संख्या नहीं बताते हैं पर ये जानकारी देते हैं कि “मानगढ़ पहाड़ी को ख़ाली करा लिया है. आठ लोग घायल हुए हैं. 900 लोगों ने आत्मसमर्पण कर दिया.”

घटना के बाद गोविंद गुरु और शिष्य पूंजा पारगी को सज़ा दी गई. बाद में गोविंद गुरु को मौत से उम्रक़ैद और बाद में बांसवाड़ा, संतरामपुर और मानगढ़ नहीं जाने की पाबंदी के साथ रिहा कर दिया गया. इस तरह आदिवासियों के आंदोलन को नरसंहार में बदल कर कुचल दिया गया.

फांसी की सज़ा से उम्रकैद और फिर सशर्त रिहाई के बाद दाहोद में 1921 में गोविंद गुरु की मृत्यु हो गई. आज भी अनेक धूणियाँ हैं और गोविंद गुरु की आज भी पूजा की जाती है. 17 नवंबर को हुए नरसंहार के बाद क़रीब 80 के दशक तक मानगढ़ पर किसी के भी आने-जाने पर पाबंदी रही.

इतिहासकार अरुण वाघेला कहते हैं, “लोग इस घटना के बाद ख़ौफ़ में थे इसलिए आसपास के इलाक़े के लोग भी अपने गाँवों को छोड़ अन्य जगह चले गए. नंगे पैर.”

भगवा रंग के कपड़े पहने हुए मानगढ़ के महंत रामचंद्र गिरि कहते हैं, “मानगढ़ हत्याकांड में अंग्रेज़ों ने जो गोलियाँ चलाई थीं, उसमें मेरे दादा हाला और दादी आमरी की मौत हुई थी. वे बावरी के रहने वाले थे. यहाँ 1500 से अधिक लोग शहीद हुए. यहीं लोगों की लाशें पड़ी रहीं और यहीं सड़ गईं.”

बीते कुछ साल से यहाँ 17 नवंबर को शहीद दिवस मनाया जाता है. नरसंहार में मारे गए लोगों को याद किया जाता है. पूजा हवन किया जाता है और गोविंद गुरु के भजन गए जाते हैं.

अरुण वघेला बताते हैं, “इस घटना के बाद जब भी आदिवासी एकत्रित होते थे, तो इनको ‘मानगढ़ जैसी होगी’ कह कर डरा दिया जाता था. गुजरात के दाहोद के विराट खेड़ी में 1938 में एकजुट हुए आदिवासियों को मानगढ़ याद दिला कर तितर बितर कर दिया गया.”

बांसवाड़ा के विधायक महेंद्र सिंह मालवीय कहते हैं, “जालोद के पास गोविंद गुरु का देहांत हुआ था, वहाँ उनका आश्रम और समाधि है. हमारे यहाँ का आदिवासी उनकी समाधि पर जबतक भुट्टे नहीं चढ़ाता, तब तक खाता नहीं है. ये मान्यता है.”

गुजरात यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर अरुण वघेला बताते हैं, “मानगढ़ पहाड़ी के गुजरात वाले हिस्से में स्मृति वन बना है. नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया था. यहाँ मानगढ़ में मारे गए लोगों की संख्या को 1507 बताया गया है.”

इतिहासकार मानते हैं कि मानगढ़ की घटना एक बड़ी घटना रही. लेकिन इसके इतिहास में दर्ज नहीं होने के पीछे वे अपने अपने तर्क देते हैं.

बांसवाड़ा के विधायक महेंद्रजीत सिंह मालवीय कहते हैं जब हाल ही में यहाँ खुदाई कराई गई थी, तब ब्रिटिश सरकार की थ्री नॉट थ्री गोलियाँ मिलीं थीं, जिन्हें उदयपुर संग्रहालय में ले जाया गया. इतना बड़ा नरसंहार हुआ, लेकिन हिंदुस्तान और राजस्थान के इतिहास के पन्नों पर जगह नहीं मिली है. लेकिन, धीरे धीरे लोग जान रहे हैं मानगढ़ नरसंहार को.

-BBC