बाजारू मीडिया के दरबार में साहित्य का मुजरा!

अन्तर्द्वन्द

हैरानी की बात है कि ‘साहित्य आजतक’ के बाजारू मजमे का बड़ी ढिठाई के साथ बचाव किया जा रहा है। बचाव करने वालों में कुछ वे लोग हैं जिन्होंने उस मजमे में शिरकत कर उसकी ‘शोभा’ बढ़ाई और कुछ वे हैं जिन्हें उसमें शिरकत करने का न्योता नहीं मिला लेकिन वे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन कर इस प्रत्याशा में उसका बचाव कर रहे हैं कि शायद भविष्य में उन्हें भी आजतक के या किसी और के ऐसे ही दरबार में जाने का मौका मिल जाए। हां, मृदुला गर्ग जी को जरूर अपवाद कहा जा सकता है, जिन्होंने उस आयोजन में शिरकत करने बाद उसकी विद्रूपता को लेकर अपनी फेसबुक वाल पर टिप्पणी लिखी।

बहरहाल सवाल यह नहीं है कि ‘आजतक’ के मजमे का प्रायोजक कौन था? यह बेमतलब सवाल है। बाजारवाद के मौजूदा दौर में कोई क्षेत्र बाजार से अछूता नहीं है। जब हमारी राजनीति, आर्थिकी, शिक्षा, खेल, पत्रकारिता, सिनेमा और यहां तक कि धार्मिक संस्थानों और पर्वों-त्योहारों तक पर बाजार का कब्जा हो चुका है तो साहित्य किस खेत की मूली है? वह कैसे बच सकता है?

कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले कुछ समय में उपन्यासों और कहानी, कविता, व्यंग्य आदि के संग्रहों पर भी रजनीगंधा, पान बहार, पान पराग, कमला पसंद आदि पान मसालों, बैगपाइपर, रॉयल चैलेंज, मैकडॉवेल, ओल्ड मॉन्क आदि शराब कंपनियों, विल्स, पनामा,फोर स्क्वेयर, डनहिल,क्लासिक जैसी सिगरेट कंपनियों और कामसूत्र, डीलक्स, मैनफोर्स, कोहिनूर आदि कंडोम कंपनियों के विज्ञापन भी छपने लग जाए और उन विज्ञापनों से उन पुस्तकों के लेखक अपने को गौरवान्वित महसूस करे। कमाई होगी सो अलग। यही कंपनियां अगर साहित्य के नाम पर कोई पुरस्कार घोषित करेंगी तो उसे हथियाने के लिए खूब लाॅबइंग होगी और हासिल करने वाले अपने को धन्य मानेंगे.

इसलिए सवाल यह नहीं है कि साहित्योत्सव का प्रायोजक कौन था। सवाल उसमें चेतन भगत, संगीत रागी, विक्रम संपत जैसी साहित्य की गाजरघास की शिरकत पर भी नहीं है। सवाल आयोजक को लेकर है। जो मीडिया समूह पैसा कमाने के लिए पत्रकारिता के नाम पर हर गिरे हुए से गिरा हुआ काम करने को तत्पर रहता हो और सत्ता का ढिंढोरची बन कर दिन-रात अफवाहें और नफरत फैलाता हो, सत्ता के कुकर्मों पर सवाल उठाने वालों का चरित्र हनन करता हो और मनोरंजन के नाम पर अपने पाठकों और दर्शकों के सामने नग्नता परोसता हो, उससे किसी गंभीर और सुरुचिपूर्ण आयोजन की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

सवाल उन साहित्यकर्मियों से भी हैं जो समृद्ध सामाजिक सरोकारों वाले माने जाते हैं। उनसे सवाल यह है कि ऐसे आयोजनों का हिस्सा बन कर वे किन मूल्यों को बढ़ावा दे रहे हैं? क्या वे उस आयोजन में शिरकत कर उस मीडिया समूह के समाज-विरोधी कृत्यों को वैधता प्रदान नहीं कर रहे हैं? क्या किसी ने भी उस आयोजन के मंच से उस मीडिया समूह के कुकर्मों पर कोई सवाल उठाया है?

बताया जा रहा है कि आयोजन स्थल यानी त्यागराज स्टेडियम में प्रेमचंद, महादेवी, प्रसाद, निराला, दिनकर, यशपाल, रेणु, मंटो, मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यंत कुमार, परसाई, शरद जोशी, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, निर्मल वर्मा, ओमप्रकाश वाल्मीकि आदि के कटआउट्स नहीं बल्कि जगह-जगह लिपे-पुते चेहरे वाली आजतक की मूर्ख और वाचाल एंकरनियों के कटआउट लगे थे। क्या इस घिनौने वातावरण में किसी साहित्यकार को जरा भी घुटन महसूस नहीं हुई? कहने की आवश्यकता नहीं कि साहित्यकारों के लिए अन्य मूल्यों की तरह ईमानदारी और आत्म-सम्मान भी अब गुजरे जमाने के मूल्य हो चुके हैं.

साभार सहित : (अनिल जैन)


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