जेनेटिक्स की यह तकनीक बहुत पुरानी नहीं है. 39 साल पहले यानी साल 1984 में दुनिया ने इस टेस्ट के बारे में जाना. देखते-देखते अब यह बहुत पापुलर हो चुका है. अनेक केस इसके माध्यम से सुलझाए जा चुके हैं.
अभी तक इस टेस्ट पर कोई सवाल नहीं उठा है. यह सर्वोत्तम तकनीक के रूप में दुनिया के सामने है. ब्रिटिश साइटिंस्ट एलेक जैफरीज ने इसे दुनिया के सामने रखा. अपने देश में इस टेस्ट की शुरुआत प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ लालजी सिंह ने की. साल 1991 में उन्होंने एक अदालत में पैटरनिटी विवाद को सुलझाने के लिए पहली बार टेस्ट रिपोर्ट दी थी.
DNA टेस्ट की अनुमति से जुड़ी याचिकाओं में विशेष सतर्कता बरतने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दे रखा है क्योंकि आजकल अदालतों में ऐसे मामलों की संख्या बढ़ी है, जब अपना काम बनाने के लिए लोग DNA टेस्ट की माँग करने लगे हैं.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 क्या कहती है? निजता का अधिकार का उल्लंघन DNA टेस्ट के मामलों में कैसे होता है? इसके लिए तय नियम-कानून क्या हैं?
बेवफाई का सबूत नहीं हो सकता बच्चे का DNA टेस्ट
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा बेवफाई का सबूत स्थापित करने के लिए युद्धरत माता-पिता बच्चे का डीएनए टेस्ट नहीं करवा सकते. जस्टिस वी. रामासुब्रमण्यन और बी.वी. नागरत्ना की खंडपीठ ने कहा कि अनुवांशिक जानकारी व्यक्तिगत और अंतरंग है.
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट विनीत जिंदल कहते हैं कि तलाक का आधार बनाने के लिए बच्चे का डीएनए टेस्ट उसके निजता के अधिकार का उल्लंघन है. यह अधिकार भारत का संविधान हर व्यक्ति को देता है चाहे वह किसी भी उम्र का हो. पैरेंट्स इस इसका उल्लंघन नहीं कर सकते. यह भारतीय संविधान में दिए गए राइट टू प्राइवेसी का उल्लंघन भी है, इसलिए अदालतें खास तौर से तलाक के मामलों में डीएनए टेस्ट की अनुमति देने को लेकर संवेदनशील है. सुप्रीम कोर्ट ने अनेक मौकों पर ऐसे मामलों में अदालतों से भी सावधानी बरतने को कहा है.
क्या है भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112
भारतीय साक्ष्य अधिनियम (IE Act) की धारा 112 का इस्तेमाल प्रायः पति-पत्नी के बीच बच्चे को लेकर विवाद में इस्तेमाल होता है. अदालतें इसे लेकर बेहद सतर्क दृष्टि रखती हैं. कानून कहता है कि विधि मान्य शादी या पति-पत्नी के रिश्ते में बनी दूरी के 280 दिन बाद होने वाले बच्चे को लेकर स्वाभाविक रूप से कोई विवाद नहीं हो सकता.
ऐसे में मामलों में अदालतें भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 का इस्तेमाल करती हैं और इससे बच्चे के निजता का अधिकार की रक्षा भी होती है. यूँ तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम में 11 अध्याय एवं 167 धाराएं हैं. सभी धाराओं का इस्तेमाल मुकदमों के दौरान होता है. क्योंकि अदालतें साक्ष्य के आधार पर ही मामलों की सुनवाई करती हैं इसलिए यह पूरा का पूरा अधिनियम कानून की दृष्टि में बहुत महत्वपूर्ण है.
DNA के लिए यूं ही नहीं बनाए नियम कानून
यूँ भी डीएनए टेस्ट के लिए कुछ तय नियम-कानून बनाए गए हैं. इसमें स्पष्ट किया गया है कि किन हालातों में यह टेस्ट कराना अनिवार्य है. टेस्ट के पहले जरूरी है कि सभी पक्ष सहमत हों, वह भी जिसका नमूना लिया जाना अपरिहार्य है. यह टेस्ट अधिकृत एवं विश्वसनीय प्रयोगशालाओं में ही कराया जा सकता है. पितृत्व विवाद, क्रिमिनल केस आदि में बिना अदालत की अनुमति के यह टेस्ट नहीं कराया जा सकता. हालाँकि, कोई भी महिला-पुरुष इस संबंध में अदालत के सामने जा सकते हैं.
वह पूरे प्रकरण को सुनने के बाद गुण-दोष के आधार पर तय करेगी कि टेस्ट की अनुमति देना है या नहीं? टेस्ट के लिए नमूना संग्रह में किसी भी तरह की जोर-जबरदस्ती नहीं की जा सकती. लैब निर्देशानुसार अपनी रिपोर्ट तैयार करके देती है. डीएनए टेस्ट रिपोर्ट सबूत के रूप में अदालत में पेश किए जा सकते हैं. जरूरत पड़ने पर अदालत प्रयोगशाला के साइंटिस्ट को बतौर गवाह बुला सकती है.
आमतौर पर इस टेस्ट का इस्तेमाल जटिल आपराधिक मामलों को सुलझाने, पेटरनिटी संबंधी प्रकरण तथा अनेक बार लावारिस मृत की पहचान आदि के मालों में करने की परंपरा रही है. ताजा मामला बालासोर रेल हादसे में मारे गए लोगों की पहचान करने में भी इस टेस्ट का सहारा लिया जा रहा है. दिल्ली में बहुचर्चित श्रद्धा की हत्या में भी यह टेस्ट कराया गया था.
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