आगरा: श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन ट्रस्ट, आगरा के तत्वाधान में चल रहे चातुर्मासिक प्रवचन में प्रतिदिन ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है। आगम ज्ञान रत्नाकर, बहुश्रुत परम पूज्य जय मुनि जी महाराज ‘भगवान महावीर की करुणा यात्रा’ के माध्यम से व्यावहारिक ज्ञान का उपदेश दे रहे हैं।
करुणा और पारिवारिक संबंध:
गुरुवार के प्रवचन में जय मुनि जी महाराज ने भगवान महावीर की करुणा को उनके सभी संदेशों का मूल आधार बताया। उन्होंने कहा कि हमें अपने घर में सभी के प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए। माता-पिता के प्रति श्रद्धा, सेवा और उपकार का भाव रखना आवश्यक है। भाई-बहन के साथ अपनापन और सहयोग की भावना होनी चाहिए, और पत्नी के प्रति भी करुणा का भाव रखना चाहिए। महाराज ने बताया कि भगवान महावीर ने अपने माता-पिता की इच्छा का सम्मान करते हुए बिना विरोध के विवाह किया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि राग या प्रेम करना गलत नहीं है, बशर्ते वह द्वेष या दलदल का कारण न बने।
ब्रह्मचर्य और गृहस्थ जीवन:
महाराज ने श्रावकों के बारह व्रतों में से चौथे व्रत ‘ब्रह्मचर्य’ पर प्रकाश डालते हुए कहा कि विवाहित जीवन में पति-पत्नी का एक-दूसरे के प्रति समर्पित रहना ही ब्रह्मचर्य है। अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा जैसे त्योहारों पर शील व्रत का पालन करना गृहस्थ का ब्रह्मचर्य है। उन्होंने यह भी बताया कि ‘सत्य’ के अतिचारों से बचने के लिए पति-पत्नी को एक-दूसरे के मर्म को किसी अन्य के सामने उजागर नहीं करना चाहिए, जो कि आपसी करुणा का ही एक रूप है। उन्होंने घर में शांति के लिए पत्नी का सम्मान करने और घर के कामों तथा धर्म-ध्यान में उनका सहयोग करने पर बल दिया।
पूज्य श्री आदीश मुनि जी महाराज: ‘सुख पाने के सूत्र’ और जायज़ हक़ छोड़ना
हृदय सम्राट पूज्य श्री आदीश मुनि जी महाराज ने गुरु वंदन के गीत से अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित किए। उन्होंने ‘सुख पाने के सूत्र’ की श्रृंखला में एक ज्वलंत विषय पर बोलते हुए कहा कि कभी-कभी हमें अपना जायज़ हक छोड़ना भी सीखना चाहिए। उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का उदाहरण देते हुए कहा कि आज अदालतों में अधिकांश मुकदमे अधिकारों से संबंधित हैं, जबकि हमें यह सोचना चाहिए कि हम इस धरती पर क्या लेकर आए हैं और क्या लेकर जाएंगे।
मानव की चार भावनाएं:
पूज्य श्री ने मनुष्यों में चार प्रकार की भावनाओं का वर्णन किया:
* राक्षसी भावना: ‘मेरा सो मेरा, तेरा भी मेरा।’ (जैसे कौरव)
* मानवी भावना: ‘मेरा सो मेरा, तेरा सो तेरा।’ (जैसे पांडव)
* दैवीय भावना: ‘तेरा सो तेरा, मेरा भी तेरा।’ (जैसे भगवान राम)
* ब्राह्मी भावना: ‘न तेरा, न मेरा।’ (जैसे भगवान महावीर)
उन्होंने ‘संविभाग’ यानी बांटकर खाने की भावना को बच्चों में भी विकसित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उनका कहना था कि धन-दौलत के साथ-साथ समय आने पर अपने अधिकारों को भी त्यागना सीखना चाहिए ताकि जीवन सुखी और महान बन सके।
पूज्य श्री विजय मुनि जी का उद्बोधन: प्रसन्नता ही असली धन है
पूज्य श्री विजय मुनि जी ने अपने उद्बोधन में भौतिक सम्पत्ति की दौड़ से अलग हटकर हृदय की प्रसन्नता को सबसे बड़ा धन बताया। उन्होंने कहा कि मुस्कुराता हुआ व्यक्ति हर वातावरण को खुशनुमा बना देता है और यह एक ऐसी निजी निधि है जिसे कोई छीन नहीं सकता। उन्होंने भगवान राम के वनवास और भगवान महावीर की घोर तपस्या के दौरान भी उनके चेहरे पर मुस्कान रहने का उदाहरण दिया, जिसने उन्हें महामानव बनाया।
सत्संग और आज का संकल्प:
पूज्य श्री ने सत्संग को मन की प्रसन्नता का स्रोत बताया और कहा कि यह एक मानसरोवर है, जिसे किस्मत वाले ही पाते हैं। प्रवचन के अंत में उन्होंने श्रावक-श्राविकाओं को ‘संति-संति करे लोए’ का जाप करने और रसगुल्ले व रायते का त्याग करने का संकल्प दिलाया। साथ ही, झूठा न छोड़ने की शपथ भी दिलाई गई। आज की धर्म सभा में अमृतसर, दिल्ली, गुड़गांव, सूरत और लुधियाना जैसे शहरों से बड़ी संख्या में धर्मप्रेमी उपस्थित थे।