
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट
खजागुड़ा जैसे जंगलों को शहरीकरण के नाम पर नष्ट किया जा रहा है, जिससे न केवल पेड़, बल्कि वन्यजीव और स्थानीय समुदाय भी प्रभावित हो रहे हैं। यह विनाश पर्यावरणीय असंतुलन, जलवायु संकट और सामाजिक अन्याय को बढ़ावा देता है। आज न्याय के दोहरे मापदंड है — जहाँ आम आदमी पेड़ काटे तो अपराध, परंतु सरकार या कंपनियाँ जब हज़ारों पेड़ काटें तो वह “विकास” कहलाता है। हमें ऐसे विकास मॉडल की ज़रूरत है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य में हो। अन्यथा, यह “विकास” हमें एक अंधकारमय भविष्य की ओर ले जाएगा।
“किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे”—यह पंक्ति सुनने में भले ही काव्यात्मक लगे, लेकिन इसके पीछे छिपा दर्द, पीड़ा और चेतावनी आज के तथाकथित विकास के मॉडल पर करारी चोट करती है। जब हम हैदराबाद के जंगलों की कटाई और अंधाधुंध शहरी विस्तार की तरफ़ देखते हैं, तो यह सवाल और भी प्रासंगिक हो जाता है: क्या हम सचमुच बसा रहे हैं, या उजाड़ने की प्रक्रिया को ही “विकास” कहकर महिमामंडित कर रहे हैं?
जंगलों की चीख और शहरी बहरापन
हैदराबाद का खजागुड़ा रिजर्व फॉरेस्ट, जो कभी वन्य जीवन, जैव विविधता और स्थानीय समुदायों के लिए एक सुरक्षित आश्रय था, अब क्रेनों और बुलडोज़रों की चपेट में है। वहाँ अब पेड़ों की जगह कंक्रीट खड़े हो रहे हैं, और पक्षियों की चहचहाहट की जगह मशीनों की कराह सुनाई देती है। यह केवल एक क्षेत्र की बात नहीं, बल्कि पूरे भारत में फैली उस प्रवृत्ति का प्रतिबिंब है जहाँ प्रकृति के मूल तत्वों को मिटाकर गगनचुंबी इमारतों को प्रगति का प्रतीक माना जाने लगा है।
विकास या विनाश?
यह सच है कि शहरीकरण आवश्यक है। बढ़ती आबादी, रोजगार के अवसर और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सुविधाओं की ज़रूरत होती है। परंतु जब यह विकास जंगलों की आहुति लेकर आता है, जब हज़ारों पेड़ कटते हैं और वन्यजीव बेघर हो जाते हैं, तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह प्रगति है या प्रकृति का सुनियोजित विनाश?
विकास की परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जिसमें संतुलन हो। पर्यावरणीय स्थिरता के बिना कोई भी विकास दीर्घकालिक नहीं होता। लेकिन अफ़सोस कि हमारे नीति-निर्माता और निजी कंपनियाँ अक्सर अल्पकालिक लाभ को ही प्राथमिकता देते हैं।
जंगल नहीं, तो जीवन नहीं
हम यह भूल रहे हैं कि जंगल केवल पेड़ों का समूह नहीं होते। वे पारिस्थितिकीय तंत्र का आधार होते हैं। वे न केवल ऑक्सीजन का स्रोत हैं, बल्कि वर्षा, तापमान नियंत्रण, भूजल संरक्षण और जैव विविधता के लिए अपरिहार्य हैं। जब हम जंगल काटते हैं, तो हम केवल हरियाली नहीं मिटाते, हम अपनी साँसों, अपने पानी, अपने मौसम और अपने जीवन के आधार को भी खो देते हैं।
हैदराबाद जैसे शहर, जहाँ पहले से ही गर्मी की तीव्रता और जल संकट बढ़ रहा है, वहाँ जंगलों का समाप्त होना खतरे की घंटी है। यूँ समझिए, कि हम अपने हाथों से अपनी ही कब्र खोद रहे हैं।
वन्य जीवन पर संकट
जंगलों की कटाई केवल पेड़ों पर नहीं, वहाँ रहने वाले असंख्य जीवों पर भी अत्याचार है। खजागुड़ा हो या आरावली, जंगलों में हो रहे निर्माण कार्यों के कारण जानवर अपने प्राकृतिक आवास से बेदखल हो रहे हैं। यही कारण है कि आजकल शहरों में तेंदुए, साँप, या सूअर देखे जाने की घटनाएँ आम होती जा रही हैं। क्योंकि हमने उनका घर छीना, अब वे हमारे बीच भटक रहे हैं।
दोहरे मापदंड और मौन न्याय
यहाँ सबसे बड़ा सवाल न्याय का है। जब कोई आम नागरिक एक पेड़ काटता है, तो उसके खिलाफ़ केस दर्ज होता है। लेकिन जब कोई कंपनी या सरकार हज़ारों पेड़ काटती है, तो उसे “विकास परियोजना” कहकर उसका स्वागत किया जाता है। यह कैसा न्याय है जो बड़े लोगों की भूलों को ‘नीति’ और छोटे लोगों की भूलों को ‘अपराध’ मानता है?
यहाँ “अकल का विहल” जैसी पंक्ति चरितार्थ होती है — एक ऐसी स्थिति जहाँ विवेक मौन है और सत्ता का विवेक बेमानी।
जनभागीदारी और प्रतिरोध की ज़रूरत
सौभाग्यवश, इस विनाश के विरुद्ध आवाज़ें उठ रही हैं। हैदराबाद में सैकड़ों पर्यावरण प्रेमियों, स्थानीय निवासियों और एक्टिविस्टों ने जंगलों की कटाई का विरोध किया। उन्होंने यह साफ़ कहा कि विकास चाहिए, पर बर्बादी की कीमत पर नहीं।
समाज को यह समझने की ज़रूरत है कि पर्यावरण की रक्षा केवल सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं, हमारी भी है। जब तक आम नागरिक सड़क पर नहीं आएंगे, जब तक जनता अपने जंगलों के लिए नहीं लड़ेगी, तब तक यह विनाश की यात्रा नहीं रुकेगी।
सतत विकास ही एकमात्र रास्ता
हमें एक ऐसे विकास मॉडल की ज़रूरत है जो प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं, संवाद करे। हमें ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर, अर्बन फॉरेस्ट, रिन्युएबल एनर्जी और सस्टेनेबल प्लानिंग को प्राथमिकता देनी होगी। ऐसा विकास जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना लोगों की ज़रूरतें पूरी करे — वही सच्चा विकास है।
फिर वही सवाल
इस पूरे विमर्श के अंत में हम फिर उसी प्रश्न पर लौटते हैं — “किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे?”
क्या ऐसा घर जिसमें किसी और की छत उजड़ी हो, सच में घर कहलाता है?
क्या ऐसी सड़क, जो जंगल की लाश पर बनी हो, सच में प्रगति की राह है?
हमें रुक कर सोचना होगा — नहीं तो भविष्य हमें माफ़ नहीं करेगा।
-up18News