होली रे होली तेरे रंग कितने: भारत के साथ विदेशों में भी बिखरे हैं होली के रंग

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आकांक्षा यादव
(कॉलेज में प्रवक्ता, विचारक-चिंतक, कवयित्री-साहित्यकार)

दुनिया विभिन्न रंगों से भरी पड़ी है। रंगों के बिना कोई भी सौन्दर्य अधूरा लगता है। तभी तो हमारी परंपरा में रंगों का त्योहार समाहित किया गया है। संभवतः मानव ने जब से रंगों को पहचानना आरंभ किया, उसके उत्सवी रूप को भी तभी रंग दिया। इतिहास में झांककर देखे तो प्राचीन भारत में आर्यों के समय भी होली मनायी जाती थी। विंध्य क्षेत्र के रामगढ. स्थान से प्राप्त ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी होली मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रंथों जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र, और कथा गाह्र सू़त्र में पूर्वी भारत में होली मनाने का उल्लेख है तो नारद पुराण और भविष्य पुराण में भी होली का वर्णन मिलता है। यहाँ तक कि भारत की यात्रा पर आये सुप्रसिद्ध पर्यटक अलबरूनी ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होली मनाने का उल्लेख किया है।

इतिहास के विभिन्न काल खण्डों में भिन्न-भिन्न शासकों ने सत्ता संभाली, लेकिन होली का रंग यूँ ही बना रहा। मुगल काल में अकबर का अपनी पत्नी जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहां के समय होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार कहा जाता था। इसमें दोनों धर्मों के लोग शामिल होते थे। 16 वीं शताब्दी के एक चित्र में विजयनगर की राजधानी हम्पी में राजकुमारों और राजकुमारियों को रंग एवं पिचकारी के साथ होली खेलते दिखाया गया है। सूफी संत निजामुद्दीन औलिया और अमिर खुसरो को भी होली का त्योहार बहुत पंसद था। वास्तव में देखें तो सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो से लेकर बहादुरशाह जफर और नजीर अकबराबादी की रचनाएं होली की खिलंदड़ी, उसके अध्यात्म, उसकी सूफियाना मस्ती और उसके विहंगम सामाजिक फैलाव के बारे में बताती हैं।  होली हमारे सामाजिक ताने बाने को सहेजता है।  होली के इन रंगों में सिर्फ इंद्रधनुषी रंग ही नहीं देश का सांस्कृतिक वैविध्य भी घुला-मिला है।

होली  वसंत की विदाई और फागुन के आगमन का सूचक है। फाल्गुन आते ही फाल्गुनी हवा मौसम के बदलने का एहसास करा देती है। कंपकपाती ठंड से राहत लेकर आने वाला फाल्गुन मास लोगों के बीच एक नया सुख का एहसास कराता है। सरसों के पीले फूल, गेहूं की बालियां, पलाश की लालिमा, टेसू, चैती गुलाब, चंपा-चमेली, कचनार की कली, भांग, बूटी, और इन सबके बीच खेतों में गूँजते  किसानों के गीत सब मिलकर फगुनाहट में होली को रोचक और रंगीला वितान प्रदान करते हैं। उम्र की सीमाओं से परे जाति, धर्म और संप्रदाय के बंधनों को खोलता यह त्यौहार समाज में संस्कृतियों और संस्कारों की मिलीजुली रंगतें भी पेश करता है। विविधता हमारे देश की पहचान है। जैसे होली के भिन्न-भिन्न रंग है, वैसे ही देश के विभिन्न भागो में इसे मनाने का अंदाज भी अलग-अलग है। तभी तो  रघुबीर सहाय इसे ”एक अद्वितीय सामाजिक मौसम” की उपमा देते हैं।

जितना बडा देश, उतने ही होली के सांस्कृतिक रंग।  मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं, पर सद्भाव वही है। ब्रज की होली जग प्रसिद्ध है। यहाँ बरसाने और नन्दगांव में लट्ठमार होली मनाई जाती है, जिसमें महिलाएं पुरूषों का लाठियों से स्वागत करती हैं। काशी में शिव-पार्वती के गौने से जोड़कर रंग भरी एकादशी खेली जाती है, वहीं मसाने की होली भी प्रसिद्ध है। इसी प्रकार मालवा में होली के दिन लोग एक-दूसरे पर अंगारे फेंकते हैं। वे मानते हैं कि इससे होलिका राक्षसी का अन्त हो जाता है। राजस्थान के बाड़मेर में पत्थर मार होली खेली जाती है, तो अजमेर में कोड़ा अथवा सामंतमार होली का रिवाज है। पश्चिम बंगाल में होली ढोल जातरा या ढोल पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें राधा-कृष्ण पालकी घुमाई जाती है।

राजस्थान, मध्य प्रदेश व गुजरात के कुछ आदिवासी इलाकों में होली खेलकर जीवन साथी चुनने की भी परंपरा है। बिहार और पूर्वांचल में होलिका दहन के दिन घर के सदस्यों को सरसों का उबटन लगाया जाता है, वहीं बिहार में होली के दिन विशेष पकवान मालपुआ और उ.प्र. और इसके पश्चिमी क्षेत्र में गुझिया बनाने का चलन है। सिखों के दशम गुरू गोविन्द सिंह जी ने होली को ’होला महल्ला’ कहा।

पंजाब एवं हरियाणा में इसे होला महल्ला के रूप में मनाते हैं, जिसमें लोग घोडे पर सवार निहंग, हाथ में निशान साहब उठाए तलवारों के करतब दिखा कर साहस का प्रदर्शन करते हैं। सुदूर पूर्वात्तर भारत के मणिपुर में होली को याओसांग और धुलैडी वाले दिन को पिचकारी कहा जाता है। याओसांग वह छोटी सी झोपड़ी होती है, जिसमें चैतन्य महाप्रभु की प्रतिमा स्थापित की जाती है। पिचकारी के दिन रंग गुलाल अबीर से वातावरण रंगीन हो उठता है और जमकर खुशियां मनाते हैं। सब मानो कहीं-न-कहीं अपनी वैविध्यता के बीच उत्सवी परम्पराओं को एक साथ सहेजते हैं।

सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में रंगों का त्योहार किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। सूरीनाम, फिजी, मॉरीशस, गुयाना, उत्तरी अमेरिका, ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय हर्ष और उल्लास के साथ होली मनाते हैं। नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और मॉरीशस में भारतीय परम्परा के अनुरूप ही होली मनाई जाती है। पोलैंड में आर्सिना पर्व में लोग एक-दूसरे पर रंग और गुलाल मलते हैं। ये रंग फूलों से बने होने के कारण त्वचा को नुकसान नही पहुंँचाते। हालैंड का कार्निवाल होली की मस्ती से भरपूर है तो बेल्जियम की होली भारत जैसी होती है।

थाईलैड में भी सौंगक्रान नाम के पर्व में वृद्धजन इत्र मिश्रित जल डालकर महिलाओं, बच्चों और युवाओं को आशीर्वाद देते हैं। इसी प्रकार चेक और स्लोवाकिया में बोलिया कोनेन्से त्योहार पर युवक-युवतियाँ एक दूसरे पर पानी एवं इत्र डालते हैं। अमेरिका में मेडफो नामक पर्व में लोग गोबर तथा कीचड़ से गोले बनाकर एक-दूसरे पर फेंकते हैं तो स्पेन में लोग एक-दूसरे को टमाटर मारकर होली खेलते हैं।

फ्रांस  में यह पर्व 19 मार्च को डिबोडिबी के नाम से मनाया जाता है। अफ्रीका में ओमेना वोंगा के नाम से होली जैसा पर्व मनाया जाता है। रोम में इसे सेंटरनेविया कहते हैं तो यूनान में मेपोल। ग्रीस का लव ऐपल होली भी प्रसिद्ध है। जापान में टेमोंजी ओकुरिबी नामक पर्व पर आग लगाई जाती है। जर्मनी में ईस्टर के दिन घास का पुतला जलाया जाता है और लोग एक-दूसरे पर रंग डालते हैं।

हंगरी का इस्टर होली के अनुरूप ही है। मिश्र में रात में जंगल में आग जलाकर यह पर्व मनाया जाता है जिसमें लोग अपने पूर्वजों को याद करते हैं। इटली में रेडिका त्योहार में चौराहों पर लकड़ियों के ढेर जलाये जाते हैं और एक दूसरे को गुलाल लगाते हैं।

कवियों ने होली को अपने शब्दों में खूब भिगोया है। साहित्य के तमाम पन्ने होली के गीतों से भरे पड़े हैं। रबींद्रनाथ टैगोर ने अपनी रचना ऋतुरंगशाला में एक जगह इसे आध्यत्मिक स्वरूप देते हुए लिखा भी है कि, “यह दोल (फाल्गुनी पूर्णिमा) पाने और न पाने की एक अजीब सी विवशता के बीच झुलाता है।  एक ओर मिलनोत्सव है तो दूसरी तरफ विरह और बिलगाव।  इन दोनों को छू-पाकर ही तो विश्व का हृदय दोल(झूला) झूल रहा है।”

भगवान कृष्ण को होली का त्योहार बहुत प्रिय था। गोपियों संग रासलीला के दौरान होली के रंग उन्होंने खूब उड़ेले। कृष्ण भक्त मीराबाई भी अपने आराध्य को होली पर्व पर याद करती हैं-

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे,
बिन करताल पखावज बाजै अनहद की झनकार रे।
बिन सुर राग छतीसू गावैं रोम रोम रणकार रे,
सील संतोष की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर बरसत रंग अपार रे,
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर चरण कमल बलिहार रे।  

 फागुन में जब प्रकृति अपने पूर शबाव पर होती है। तो कवि मन भला कैसे अपने को नायिका के सौन्दर्य में डुबोये बिना होली खेले। सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’ की पंक्तियाँ याद आती हैं-

जागी रात सेज प्रिय पति संग रति सनेह-रंग धोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हंस खोली,
मली मुख-चुंबन-रोली……..
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हंस अधर-दशन अनबोली,
कली सी कांटे की तोली…
मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली,
खुले अलक, मुंद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली,
बनी रति की छवि भोली…।

होली के अल्हडपन और मस्ती को नजीर अकबराबादी ने बखूबी अभिव्यक्त किया है –

जब फागुन के रंग झमकते हों तब
देख बहारें होली की।
मुँह लाल, गुलाबी आँखे,
हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को
अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब
देख बहारें होली की।

-up18News